गौ संरक्षणः नारे नहीं, व्यवहार से बदलेगी तस्वीर Cow-- Practical aproach will change the scenario



 गौ संरक्षण वर्तमान भारत का सर्वाधिक ज्वलंत मुद्दा है. इसीलिए इसपर बहुत चर्चा होती है। निश्चित रूप से गाय इस देश के बहुसंख्यक लोगों की धार्मिक आस्था का प्रतीक है। गौहत्या को ब्रह्म हत्या के समान माना जाता है।  इसीलिए गौ-हत्या के समाचार समाज को विचलित करते है। ऐसे मामलों में विवाद भी कम नहीं होते। कानून को अपने हाथ में लेने के समाचार भी आते रहते है। पिछलंे दिनों हुई कुछ दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटनाओं के बाद प्रधानमंत्री के फर्जी गौ-रक्षकों पर कड़े बयानों के बाद अनेक संगठनों की ओर उनकी कड़ी आलोचना भी हुई। इसी बीच केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्यों को निर्देश जारी किये हैं जिसके अनुसार गौ-संरक्षण के नाम पर कानून हाथ में लेने वालों पर सख्त कार्रवाई करने को कहा है।
भारतीय संस्कृति और इतिहास में गाय का बहुत सम्मान रहा है। हर घर में सबसे पहले गौ-ग्रास निकालने की परम्परा रही है।  गौ पूजा के अनेक पर्व है तो श्रीकृष्ण की गौ सेवक की छवि सर्वाधिक लोेकप्रिय है। गांधी जी के मतानुसार गौ-संरक्षण उनके लिए केवल गाय का नहीं, बल्कि कमजोर और असहायों का संरक्षण भी है। गौ संरक्षण देश के लिए, पर्यावरण के लिए, अर्थव्यवस्था के लिए  महत्वपूर्ण था। उसका दूध भी माँ के दूध के बाद सर्वश्रेष्ठ है इसलिए उसे हमारे उत्तम स्वास्थ्य के लिए आवश्यक माना जाता है। गोमूत्र केंसर सहित अनेक बीमारियों में रामबाण औषधि माना जाता है।  इसी बीच एक शोध रिपोर्ट के अनुसार  गाय दूध ही नहीं सोना भी देतीं है। तीन सदस्यीय टीम ने अपने चार वर्ष के शोध के दौरान गिर नस्ल की 400 से अधिक गायों के यूरीन का क्रोमैटोग्राफी-मास स्पेक्ट्रोमेट्री विधि के प्रयोग से  परीक्षण कर गौमूत्र से सोना प्राप्त होने की पुष्टि की। उनके अनुसार, ‘प्राचीन ग्रंथों में गोमूत्र में स्वर्ण पाए जाने की चर्चा थी। लेकिन इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं था। उन्होंने परीक्षण कर इसे प्रमाणित किया।  
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि  गौ-संरक्षण की नाम पर जोश और नारे तो बहुत हैं लेकिन व्यवहार कम ही देखने को मिलता है। शहरों में स्थान का अभाव और अनेक तरह के नियम तो दूसरी ओर गांवों में भी लोग गाय पालना नहीं चाहते। तेजी से फैली टीवी संस्कृति ने गांव की महिलाओं को भी अपनी लपेट में ले लिया है। वे गाय की सेवा में घंटांे लगाने की बजाय बाजार से दूध लेना चाहती हैं। वैसे इसके अनेक कारण भी है। अब गावांे तक में चारागाह की समस्या होने लगी है। पहले हर गांव में चारागाह, (जिसे ओरण, अरण्य, बणी, गौचर भी कहा जाता है) छोड़ी जाती थी। लेकिन इधर जमीनों में दाम बढ़ने से पंचायतों की मिलीभगत से बहुबाली लोगों के कब्जे होने लगे। जिसका सीधा दुष्प्रभाव छोटे व भूमिहीन गौ पालकों पर पड़ा है। आटोमैटिक मशीनों से फसल कटाई का दुष्परिणाम भूसे का बहुत बड़ा भाग बर्बाद हो जाता है। हरा चारा चरी, खल, चूरा आदि खरीद कर खिलाना बहुत महंगा पड़ता है।  गाय यदि किसी दूसरे के खेत में घुस गई तो लड़ाई झगड़े की नौबत आ जाती है।
बदलते परिवेश में लोगों का व्यवहार भी बदला है। दिखावे के लिए जरूर गाय को माता कहेंगे लेकिन घरों में कुत्ते पालने का प्रचलन बढ़ा है। गौ पालन में कमी का कारण उसका लाभकारी न होना बताने वाले कुत्ते से होने वाले आर्थिक लाभ के प्रश्न पर मौन रहने को विवश होते है या इसे अपनी- अपनी पसंद बताकर पल्ला झाड़ लेते है।  व्यवसायिक होते दौर में लोगों की मानसिकता में भी बदलाव हुआ है तो कुछ कट्टरवादी लोग भी अपनी भूमिका निभा रहे हैं। एक संगठन ने तो कुछ विशिष्ट नस्ल की गायों को ही ‘गौ-माता’ माना है और शेष का बहिष्कार करने की आहृवान भी किया है। वैसे ऐसे लोगों की भी  कमी नहीं है जिनका मत है कि  विदेशी नस्ल की गायों के कारण से ही इस देश में दूध की उपलब्धता बढ़ी है। खैर गाय गाय है। जो भी हमें दूध देती है वह हमारे उपयोगी है। उसका संरक्षण किया जाना स्वाभाविक है। लेकिन न जाने क्यों सड़को पर घूमी गायों का मुद्दा अक्सर दबा दिया जाता है। आखिर वे गाय किसकी है? क्या हमारे समाज में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो दूध निकाल लेने के बाद अपनी गाय को गलियों- बाजारों में धक्के खाने के लिए छोड़ देते हैं?  क्या ऐसे लोगों जो गाय का दूध बेचकर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। अपने लिए आराम दायक घर बनाते हैं लेकिन दूध निकालने के बाद गाय को ड़ंडा मार घर से निकाल देते हैं क्या ऐसे लोगों को हम गौ-पालक अथवा गौ रक्षक कह सकते हैं या इनके लिए किसी अन्य शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए?
अक्सर देखा जाता है कि बरसात के दिनों में गायों के झुंड देशभर के हाई-वे पर आ बैठते हैं। अनेक बार दुर्घटनाएं भी होती हैं। गौ हत्या के विरोधी भी ऐसी दुर्घटनाओं में गायो की मौत पर मौन रहते हैं। पिछले कुछ महीनों में मैं लगातार इस बात का चिंतन करता रहा कि हाई-वे बैठी गो दूध देने वाली हैं तो उनके पालक उन्हें खुला छोड़कर इतना रिसक क्यों लेते हैं? मैंने राजस्थान, गुजरात सहित अनेक राज्यों में पाया कि हाई-वे या आसपास बैठी गाय नहीं बछड़े हैं। इधर आधाुनिकता ने अधिक दूध की चाह में कृत्रिम गर्भादान और वर्णशंकर नस्ल को बढ़ावा दिया है। बछिया हुई तो ठीक लेकिन बछड़े कोई नहीं पालना चाहता।   इधर देश में बैल आधारित खेती का प्रचलन लगभग समाप्ति की ओर है। दूसरे जर्सी गाय के बछड़े  जुताई आदि में बहुत कारगर भी नहीं होते। ऐसे में बछड़ों को महत्व कम अथवा समाप्त हो रहा है। इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि बछड़ों की उपयोगिता कैसे बढ़ाई जाय। उसकी उपयोगिता बचाये बिना उसे इस तरह लावारिश होने से नहीं बचाया जा सकता।
इसे सीधे स्वीकार करें या झूठी शान में इंकार करें पर सत्य यही है कि इंसान परले दर्जे का स्वार्थी है। जो अनुपयोगी जो जाने पर अपने माँ - बाप को नहीं रखना चाहता वह अनुपयोगी बछड़े को क्यों पाले? गौ संरक्षण जरूरी है लेकिन क्या इसी तरह? ‘बेटी बचाओं’ की गुहार लगाने वाला समाज का ‘बछड़े’ की दुर्दशा पर मौन क्या मनुष्य के लैंगिक भेदभाव का उसकी गौ माता की संतान से बदला तो नहीं है?
इसमें कोई संदेह नहीं कि आज भी फर्जी नहीं असली गौसेवको की कमी नहीं है। अनेक लोग पूरे मनो योग से कार्यरत है। राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र के श्री अशोक काठोरी को अपने परिवार से अधिक गायों की चिंता रहती है। दिन-रात एक ही काम। जहां से भी सूचना मिलती है गायों के चारे की व्यवस्था, उनकी सुरक्षा की व्यवस्था। पिछले दिनों भारी वर्षा और बाढ़ की स्थिति में अपने क्षेत्र की गायों की चिंता में स्वय डूबे अशोक भाई कोठारी मन वचन और कर्म से गौ सेवक है। दूध चाय लेगे भी तो केवल गाय के दूध की ही। भोजन में दही, छाद, घी आदि केवल तभी स्वीकार यदि हो गाय का वरना नमक से सूखी रोटी खाना मंजूर। उनके प्रयासों से क्षेत्र में अनेक चारागाहों की व्यवस्था हुई है। अनेक स्थानो पर कब्जे छुड़ाये गये। लेकिन वे इसे ही पर्याप्त नहीं मानते। उनके अनुसार अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। सबसे जरूरी है गाय केवल धार्मिक आस्था तक सीमित न रहे बल्कि परिवार का एक महत्वपूर्ण सदस्य बनें।
पंजाब लुधियाना का गौधाम की सुव्यवस्था  देखते ही बनती है। बीमार, अंधी, लंगड़ी गायों की देखभाल, साफ- सफाई, सबके लिए अलग- अलग बाड़ा। नगर में कहीं से भी आवारा गाय की सूचना पाते ही उसे गौधाम लाने के लिए उनके पास वाहन भी है। सबसे बड़ी बात है जनता का उन्हें भरपूर सहयोग मिलता है। उसके आसपास चारे आदि की अनेक दुकान हैं। जहां से गौग्रास खरीदकर गौधाम भेजा जा सकता है। वहां गौघृत सहित अन्य उत्पाद भी प्राप्त किये जा सकते है। इसी परिसर में भव्य मंदिर भी है। इसी प्रकार हरियाणा के मेवात क्षेत्र में ग्वाला गद्दी उल्लेखनीय कार्य कर रही है। गुजरात में गौसेवा  बढ़े पैमाने पर हो रही है। दिल्ली के कुछ क्षेत्रों में घर-घर जाकर गौग्रास एकत्र करने वाले रिक्शा हैं। बेशक  प्राप्ति से खर्च अधिक है लेकिन लोगों को गौसेवा से जोड़ने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। स्पष्ट है कि गौ संरक्षण केवल गगनभेदी नारो अथवा गौ हत्या पर रोष से नहीं बल्कि अपने दैनिक व्यवहार में गौसेवा को लाने से ही संभव है।-- विनोद बब्बर 9868211911


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