सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ
यूं मध्यप्रदेश में एक स्थान का नाम सखा है पर हृदय मध्ये सखा के लिए सच्चा स्थान बहुत कम पाया जाता है। हाँ, हर रसना जरूर ‘तुम्हीं हो बंधु सखा तुम्हीं हो’ का सर्वत्र रास रचाती दिखती है। सखा पुराण पर आगे बढ़ने से पहले थोड़ा बाल की खाल खींचने का मन है। इसलिए हे सखा! क्षमा करना।
मित्र, दोस्त, साथी, संगी, सहचर, फ्रेन्ड सबके होते हैं। इनके बिना गुजारा नहीं। लेकिन सखा इन सबसे थोड़ा अलग है। जैसे मिठाईयों में जलेबी। मीठी तो जलेबी भी है लेकिन ‘राउंड- राउंड’ भी। हर जगह की जलेबी का अपना टेस्ट है तो हर सखा की भी अपनी तासीर। जलेबी कहीं दूध के साथ चलती है तो कहीं दही के साथ। उसी तरह सखा भी कही रथी के साथ चलता तो कही अर्थी के साथ भी। किसी को सखा से तर माल चाहिए तो कोई सखा को ही तार देता है। कोई प्यार बांटने आया है तो कोई प्यार के मुखौटे बांटने। सबका अपना अपना टेस्ट है। अब आपने किस सखा की जेब का माल चखा है यह महत्वपूर्ण है। वैसे कुछ बाल सखा होते हैं तो कुछ ग्वाल सखा। लेकिन सर्वाधिक प्रचलित हैं बवाल सखा। ये बवाल सखा जाम सखा के सहोदर होते हैं। तो कभी-कभी जाम सखा ही बवाल सखा के डबल रोल में नजर आते हैं। दमदार सखा, दुमदार सखा, सरकार सखा, बेकार सखा।
कोई शब्द सखा तो कोई शब्द भेदी सखा। कोई धीर सखा तो कोई तीर सखा। कहीं ‘आमचे’ सखा तो कहीं ‘माझा’ सखा। कहीं पराये सखा, कहीं संग जाये भी नहीं सखा। जब भोग सखा तो रोग भी सखा बनन कू बिन बुलावे आवै।
सखा की कितनी शाखाएं है यह कोई अन्तर्यामी सखा ही बता सकता है। कहीं कृष्ण सखा हैं तो कहीं कृष्ण के भी सखा। कहीं प्रभु सखा, सखा प्रभु। कोई अभिन्न सखा तो सखा भिन्न। कहीं भिन-भिन करता फिरे सखा। कोई प्रेम सखा कोई नेम सखा। वे स्वार्थ सखा, ये पुरुषार्थ सखा। वे दाग सखा तो हम आग सखा। वे अनुरागी सखा तो तुम अनुगामी सखा। सब सिद्ध सखा हम गिद्ध सखा। क्यों हूर सखा है दूर सखा। आखिर क्यों है भेद सखा। बन सके तो बन देह नहीं तू देव सखा।
सिंह अकेला चलता है क्योंकि वह ‘स’ खा में विश्वास नहीं रखता लेकिन सीगों वाले तो अक्सर झुंड में ही चलते हैं क्योंकि उनमें जन्मजात स ‘खा’ भाव होता है। मनुष्यों ने भी उनसे बहुत कुछ सीखा लेकिन राजनीति ने तो पूरी तरह उनका अनुसरण किया जाता है। जो नेता ‘स-खा’ के सिद्धांत का प्रतिपालन करता है वही सफल क्योंकि उसे सखाओं की फौज का सुरक्षा कवच मिल जाता है। जो राजनीति में ‘टुच्चे’ यानि केवल खा में विश्वास रखते हैं उनका देर-सवेर अकेले पड़ना तय है।
सिंह अकेला चलता है क्योंकि वह ‘स’ खा में विश्वास नहीं रखता लेकिन सीगों वाले तो अक्सर झुंड में ही चलते हैं क्योंकि उनमें जन्मजात स ‘खा’ भाव होता है। मनुष्यों ने भी उनसे बहुत कुछ सीखा लेकिन राजनीति ने तो पूरी तरह उनका अनुसरण किया जाता है। जो नेता ‘स-खा’ के सिद्धांत का प्रतिपालन करता है वही सफल क्योंकि उसे सखाओं की फौज का सुरक्षा कवच मिल जाता है। जो राजनीति में ‘टुच्चे’ यानि केवल खा में विश्वास रखते हैं उनका देर-सवेर अकेले पड़ना तय है।
हर उम्र की अपनी जरूरतें होते हैं। जवानी में हर तरह की मस्ती के लिए सखा तलाशने वाले बुढ़ापे में संास तक सस्ती चाहते है। अंतर जेब का है या जरूरत का इसका भी कोई एक नियम नहीं है। वैसे जवानी के तैर सखा अगर टिके रहे तो बुढ़ापे के सैर सखा हो जाते है। राजनीति में जीवन भर जिसे सूखा-सूखा कर मारने की तमन्ना रखी जाती है, किसी खास मोड़ पर उसे भी सखा घोषित करना पड़ता है। दगा सखा छूमंतर बोलते ही सगा सखा हो जाता है। चारा सखा बेचारा सखा हो जाता है। मजबूत सखा मजबूर सखा हो जाता है। खास सखा बनने- बनाने में चक्कर में साख भी सखा नहीं रहती। तब न तो ईश सखा रहते हैं न नित-इश सखा। जब लालू के लाल होत सखा तब सखा भी बहु रूप धरै। अपने अर्थ का देख अनर्थ सखा सखा को व्यर्थ कहें। नामी सखा जब बोझ बने तब अनाम सखा ही कष्ट हरें। तब बस हरनाम, हरिनाम ही केवल सखा।
सुना है महाराष्ट्र में ‘सखाराम’ होते हैं। सामाजिक कुरीतियों से भिड़ने वाले नाटककार विजय तेंडुलकर के ‘सखाराम बाइंडर’ ने खासी धूम मचायी। सखाराम तो केवल वहीं होते हैं लेकिन ‘रामसखा’ तो देशभर में हैं। इधर भ्रष्टाचार का साम्राज्य इतना फला-फूला है कि ‘हराम सखा’ बिन ढ़ूंढ़े मिलते हैं। जिनके हो दाम सखा वे रखते बस आराम सखा।
प्यारे, लाडले, लुभावने, रसीले, सुखदाता, मलााईदार सखा की कामना करने वालों जिस दिन समय को सखा और समस्याओं को सगा बना लोगे संतोष, समन्वय, समाधान तुम्हारे स्थाई सखा हो जायेंगे। तब जीवन जलेबी की तरह ‘राऊंड- राऊंड’ नहीं, साऊंड हो जाएगा। हर दुःख अंडरग्राउंड हो जाएगा और सुख केवल आपकी सेवा के लिए बाउंड हो जाएगा।
आज जब सब सखा अपने-अपने हस्तीनापुर से बंधे हुए है। आयु के इस मोड़ पर अच्छा स्वास्थ्य सखा नहीं रहता तो पराक्रम, पुरुषार्थ कैसे साथ निभाये। जब ठाट छिन जाये तो फटा टाट भी सखा बनने से पहले सोचता है। सबकी तरह उसके पास भी कोरे वादे होते हैं। लेकिन दावे नहीं। तब केवल ‘शब्द’ ही सखा बना मेरे साथ है। वह मुझ उपेक्षित से चाहता तो कुछ नहीं पर देना अनन्त चाहता है। मुझे भी उससे कोई शिकायत नहीं है क्योंकि शब्द सखा निशब्द बना हर कष्ट, अपमान सहकर भी मेरा मान बढ़ाता है। मैं बलिहारी हूं इस शब्द
सखा के जो हैं तो ब्रह्म लेकिन मेरे बारे में अनेक तरह के भ्रम उत्पन्न कर मेरे सम्मान की रक्षा करता है।
सखा के जो हैं तो ब्रह्म लेकिन मेरे बारे में अनेक तरह के भ्रम उत्पन्न कर मेरे सम्मान की रक्षा करता है।
सखा भाव से इस सखा पुराण के लिए जो बन पड़ा मैंने किया इसलिए हे सखा! तुम भी इस कोष में यथा शक्ति अपना योगदान देना। --विनोद बब्बर 09868211911
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