राष्ट्रपति बनाम राष्ट्रपाल


राष्ट्रपति बनाम राष्ट्रपाल _ डा. विनोद बब्बर इन दिनों सारी दुनिया में राष्ट्रपति चुनावों की चर्चा जोरो पर है। रूस और फ्रांस में राष्ट्रपति चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं तो दुनिया के दादा अमेरिका में भी शीघ्र ही राष्ट्रपति चुनाव होना है। जिन अन्य देशों में लगभग इसी प्रकार की तैयारियां चल रही है उनमें भारत भी शामिल है जहाँ हमें अति शीघ्र नया राष्ट्रपति मिलना है। हमारे संविधान के अनुसार हम गणतंत्र राष्ट्र हैं। हमारे राष्ट्रपति राष्ट्र प्रमुख और भारत के प्रथम नागरिक हैं, साथ ही भारतीय सशस्त्र सेनाओं के प्रमुख सेनापति भी हैं। राष्ट्रपति के पास पर्याप्त शक्ति होती है परंतु ऐसा माना जाता है कि इनके अधिकांश अधिकार वास्तव में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले मंत्रिपरिषद के द्वारा उपयोग किए जाते हैं। हमारे राष्ट्रपति दिल्ली की रायसीना हिल पर बने राष्ट्रपति भवन में रहते है। इस पद पर अधिकतम दो कार्यकाल तक हीं रहा जा सकता है। अब तक केवल प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद के अतिरिक्त सभी राष्ट्रपति केवल एक कार्यकाल तक ही पद पर रहे हैं। हम इन अटकलों में वृद्धि नहीं करना चाहते कि अगला राष्ट्रपति कौन होगा लेकिन इस बहस को अवश्य आगे बढ़ाना चाहते हैं कि यह केवल केवल राजनीतिज्ञों के लिए आरक्षित नहीं होना चाहिए। और यह भी कि जब राज्य के शासन प्रमुख को राज्यपाल कहा जाता है तो फिर राष्ट्र के शासन प्रमुख को राष्ट्रपाल क्यों नहीं कहा जाता? जिसे हम राष्ट्रपति कहते हैं उसे दुनिया भर में प्रेसिडेंट कहा जाता है, जोकि अंग्रेजी शब्द है। उर्दू वाले उन्हें सदर-ए-जम्हूरियत कहते हैं तो राष्ट्रभाषा हिन्दी में राष्ट्रपति क्यों? राष्ट्रपति बनाम राष्ट्रपाल बहस पुरानी है। इस संबंध में अनेक तर्क दिये जाते रहे हैं पर सत्तारूढ़ शक्तियों ने उनकी कभी परवाह नहीं की क्योंकि वर्तमान महामहिम के अतिरिक्त सभी राष्ट्रपति पुरूष ही थे अतः उनके साथ ‘पति’ शब्द जुड़ जाना अस्वाभाविक नहीं दिखाई दिया। इस चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले यह स्मरण करवाना समाचीन होगा कि कुछ दिनों पूर्व लखनऊ की एक बालिका ने सूचना के अधिकार के अंतर्गत सरकार से यह पूछकर कि गांधीजी को राष्ट्रपिता की उपाधि कब और किसने दी एक नई असहजता व हलचल को जन्म दे दिया। इस चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले राष्ट्र व पिता का अर्थ एक बार फिर से समझना होगा। राष्ट्र वस्तुतः जन, संस्कृति व क्षेत्र का समायोजित स्वरूप होता है। आम व्यवहार में पिता का अर्थ हैं, एक जन्म देने वाला जोकि राष्ट्र जैसी विशाल संस्था के संबंध में प्रयोगिक नहीं कहा जाता। भारतीय दर्शन के अनुसार जन्म देने वाला, उपनयन करने वाला, विद्या या शिक्षा देने वाला, भोजन देने वाला अर्थात पालन करने वाला तथा जीवन में विभिन्न भय से रक्षा करने वाला, ये पाँच पिता ही होते हैं। हम राष्ट्र को ‘राष्ट्र पुरूष’ अर्थात देवता के रूप में मान्यता देते हो अथवा ‘राष्ट्रदेवी’ अर्थात भारत माता के रूप में वंदन करते हो, हम सभी उसकी संतान तो हो सकते हैं पर उसके पति-पिता आदि नहीं। अब यदि संस्कृति की दृष्टि से बात करें तो दुनिया की सबसे प्राचीन, सभ्यता संस्कृति का पिता उन्नीसवीं सदी में जन्मा कोई महापुरूष भी कैसे हो सकता है? यदि स्वयं गांधीजी आज होते तो संभवत वे ं इस राष्ट्र के महान गौरव के सम्मुख नतमस्तक होते हुए राष्ट्रपुत्र कहलाने में गर्व अनुभव करते। गांधी जी ही क्यों, भारत की महानतम परंपरा में भगवान राम अथवा श्रीकृष्ण हो या वाल्मीकि, वेदव्यास, पाणिनि, कपिल, शंकराचार्य, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, कालिदास व चाणक्य जैसे लाखों उद्भट विद्वान, दार्शनिक, वैज्ञानिक तथा भगवान महावीर, गौतम बुद्ध, गुरुनानक, कबीर, तुलसीदास व रामकृष्ण परमहंस जैसे लाखों महात्मा सन्त, जनक युधिष्ठिर से लेकर चन्द्रगुप्त मौर्य विक्रमादित्य, समुदगुप्त, शालिवाहन, महाराणा प्रताप, शिवाजी जैसे ं वीर, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि रमण व स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानंद जैसे विचारकों ने जन्म लिया है किन्तु किसी को राष्ट्रपिता की उपाधि नहीं दी जा सकती। दुनिया में भारत ही एकमात्र राष्ट्र है जहां राष्ट्रभूमि को माँ के परम-पवित्र व सर्वाधिक गरिमामय सम्बोधन से संबोधित करते हैं। जहाँ श्रीराम कहते हैं, ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादापि गरीयसी अर्थात् जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है’ भला उस राष्ट्रभूमि का कोई पुत्र राष्ट्रपिता कैसे हो सकता है? इसीलिए तो हम अपने राम अथवा कृष्ण कों भी राष्ट्रपुरुष कहकर संबोधित करते हैा जाता है राष्ट्रपिता नहीं। यह संभव है कि गांधीजी के विचारों से कुछ लोगों की असहमति हो लेकिन अपने सर्वथा नए प्रयोगों और देश की स्वतंत्रता के लिए किए गए उनके प्रयासांे के लिए वे हम सभी के लिए सम्माननीय और एक महान नायक हैं। लोग उन्हें महात्मा भी कहते थे लेकिन इस सबके बावजूद वे महानतम् राष्ट्रपुत्र कहलाने के हकदार ही हैं। राष्ट्रपिता शब्द अति उत्साह में दिया गया प्रतीक है, सत्य या व्यवहारिक प्रतीत नहीं होता। आखिर किसी पिता का अपनी संतति के आस्तिव में आने से पूर्व होना तथा उसकी उत्पत्ति का कारक/कारण होना चाहिए। क्या यह संभव है कि ऐसा पिता संभव है जिसकी सैंकड़ों पीढ़ियों से पूर्व भी सन्तान (राष्ट्र) का आस्तित्व रहा हो? शायद नहीं निश्चित रूप से ऐसा नहीं हो सकता। क्या यह सत्य नहीं कि देश का प्रबुद्ध वर्ग ही नहीं आम जनता भी ‘पति’ तथा ‘पिता’ के अर्थ को केवल एक ही रूप में लेती है। उनके लिए ‘राष्ट्रपति’ शब्द शाब्दिक दृष्टि से अटपटा है क्योंकि कोई भी व्यक्ति चाहे कितना भी महान क्यों न हो। इस राष्ट्र का पति अथवा पिता नहीं हो सकता। इसी तरह ‘राष्ट्रपति’ शब्द भी उचित नहीं है। उसे भी राज्यपाल की तरह ‘राष्ट्र-पाल’ कहना ज्यादा उचित होगा। व्याकरण की दृष्टि से ‘पति’ शब्द को पुल्लिंग माना जाता है। वर्तमान प्रेजिडेंट महोदया देश की प्रथम महिला राष्ट्राध्यक्षा हैं लेकिन उनके लिए ‘पति’ शब्द का उपयोग व्याकरण और व्यवहारिक दृष्टि से कितना जायज हो सकता है, यह विचारणीय है। इस देश में विद्वानों की कमी नहीं है जो वैकल्पिक शब्द भी सुझा सकते हैं और फिर शब्द चयन आयोग ही है जो ऐसी परिस्थितियों का सामना करने के लिए ही गठित किया गया है। यह राष्ट्र भाषा हिन्दी के समस्त विद्वानों के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है कि वे प्रेसिडंेट शब्द का सर्वमान्य हिन्दी विकल्प सुझाकर एक बार फिर से साबित कर दे तो राष्ट्रभाषा किसी दृष्टि में दीन-हीन नहीं अपितु दुनिया की सर्वाधिक समृद्ध भाषा है। यदि हिन्दी में संभव न हो तो किसी भी भारतीय भाषा से शब्द लेकर भाषायी एकता संग राष्ट्र की प्रतिष्ठा की रक्षा की जानी चाहिए। इस बहस को किसी राजनैतिक विवाद में उलझाने की बजाय आगे बढ़ाया जाना चाहिए ताकि देश के सवौच्च पद के उच्चारण में ही भारतीयता झलके न कि भ्रम!
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