वृक्षारोपण का ढोंग और कटते पेड़


वृक्षारोपण का ढोंग और कटते पेड़ 
दिल्ली में सरकारी आवास बनाने के लिए क़रीब 16 हज़ार पेड़ काटने की योजना पर हाइकोर्ट ने यह कहते हुए 4 जुलाई तक 16500 पेड़ों के काटने पर रोक लगा दी है कि ‘क्या दिल्ली ये झेल सकती है?’ आवास निर्माण  संगठन ने अपने  जवाब कहा है, ‘बेसमेंट बनाने के लिए कुछ पेड़ काटे जा रहे हैं। हमने वन और पर्यावरण विभाग से अनुमति ली है।'  पर्यावरणविदों के अनुसार, ‘दिल्ली में 9 लाख पेड़ों की पहले से ही कमी है। मैट्रो निर्माण के लिए भी हजारों पेड़ काटे गये। तब भी ‘एक के बदले दस पेड़’ लगाने का वादा किया गया था। उस वादें और दावें का क्या हुआ?’ प्रथम जुलाई को पूरी दुनिया के साथ भारत भी वन महोत्सव मानता है। जमीन से ज्यादा वृक्षारोपण समाचार पत्रों में दिखाई देता हैं। इस ढ़ोंग को समर्पित है यह व्यंग्यात्मक आलेख- 
विकासशील देशों में विकास की चाह में पर्यावरण की बलि बहुत सामान्य समझी जाने वाली हरकत है इसलिए ‘क्या पर्यावरण का विकास से कोई संबंध नहीं है?’ जैसे प्रश्न का उत्तर सामान्य तरीके से नहीं दिया जाता। किसी राजनीतिक दल के कुशल प्रवक्ता की तरह प्रश्न को उलटा घुमाते हुए सबसे पहले प्रश्नकर्ता की नीयत पर सवाल उठाना जरूरी है। अगर वह फिर भी मौन न रहे तो बिना देरी किये उसे ‘विकास विरोधी’ घोषित किया जाना चाहिए। उपरोक्त कथन किसी शोध का नहीं बल्कि अनुभव का परिणाम है। आत्मविकास के लिए आपका मन जहां, जो चाहे बनाओ। लेकिन उसके रास्ते में आने वाली  बाधाओं को हटाना आपका ही कर्तव्य है। 16500 क्या हैं अगर जरूरत पड़े तो दिल्ली को पूरी तरह पेड़ों से मुक्त कर दिया जाना चाहिए।
कहा जा रहा है कि एक के बदले दस वर्ष लगाये जायेगे। पर पेड़ लगाने और पेड़ बचाने के बीच की गहरी खाई को पाटने में समय बर्बाद करने की जरुरत नहीं है। इस सवाल का जवाब देना गैरजरूरी  है कि पिछले दस वर्षों में कितने पेड़ कटे और कितने लगाये गये? समझदार लोग ‘अब तक कितने लगाये गये और कितने लगे हैं’ के सांख्यिक समीकरण में तो कतई नहीं उलझते।
उन्हें मूर्ख समझा जाये जिनके अनुसार विकास का अर्थ ‘स्वस्थ परिस्थितियों में यातायात और संचार की आधुनिक सुविधाओं का विस्तार संग लोगों के जीवन स्तर में सुधार होता है।’ जहां भी, जब भी मौका मिले चीख-चीखकर बताओं कि ‘विकास विकास होता है। उसमें ‘स्वस्थ परिस्थितियों’ जैसे शब्द ठूंसना पूरी तरह अप्राकृतिक है। विकास का पर्यावरण से कभी कोई संबंध नहीं रहा इसलिए यदि आपको विकास के साथ धुआं, जहरीले गैसें मिले तो उसे बढ़ती जनसंख्या की तरह विकास का उपउत्पाद मानते हुए सहर्ष स्वीकार करना चाहिए।
इधर प्रथम जुलाई भी आ रही है। इस दिन को वनमहोत्सव के रूप में मनाना जरूरी है। फेसबुक पर फोटो चेपने का प्रचलन अब आया हे लेकिन हमारे यहां सार्वजनिक जीवन में चोटी तक उतरे चोटी के लोगों के लिए ऐसे उत्सवों के फोटो अखबारों में छपवाने का न जाने कब से रहा है। ‘पेड़ लगाओ, फोटो खिंचवाओ और भूल जाओ’ क्योंकि हमे तो यही सिखाया गया है कि ‘हमारा अधिकार केवल कर्म पर है, फल पर नहीं।’
स्मार्ट सिटी बनानी है तो आपको भी थोड़ा स्मार्ट बनना पड़ेगा। ऐसी छोटी -मोटी बातों पर उबलते पर्यावरण प्रेमियों से बचने की बजाय  पूरी स्मार्टनैस के साथ उनका डटकर सामना करो। स्मार्ट सोच के साथ स्मार्ट बहाने तलाशो। स्मार्ट ढ़ंग से शोर मचाओ। उन्हें अपना पक्ष ही प्रस्तुत न करने दो। न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी। आपको बेसुरा बजकर भी पर्यावरण पर आवरण डालना चाहिए। 
‘अचानक हजारांे पेड़ काटने की जरूरत कैसे आन पड़ी? अब तक आप कहां सो रहे थे? पूर्वानुमान क्यों नहीं लगाया? काटने से पहले ही एक के बदले दस पेड़ क्यों नहीं लगाये गये?’ जैसे प्रश्नों से विचलित होने की बजाय आप विकास की आंधी इतनी तेज चलाओं कि कुछ पेड़ काटने से पहले खुद ही उखड़ कर बिछ जाये। 
विरोध करने वाले इतना भी नहीं समझते कि पेड़ों के कटने से आक्सीजन की कमी होगी तो रोजगार के नये अवसर खुलेगे। दम घुटेगा तो पानी की बोतलों की तरह आक्सीजन की बोतले खूब बिकेगी। माना कि इससे सांस के रोगिययों की संख्या बढ़ेगी परंतु डाक्टर, दवा, जांच-केन्द्रो की संभावना बढ़ेगी या नहीं?
जब शमशान भी अब सीएनजी वाले हो रहे हैं तो लकड़ी का करना भी क्या है? अरे गरीबों को जलाने के लिए घर-घर मुफ्त गैस कनैक्शन पहुंचाये जा रहे हैं। आपने पेड़ों की दातुन छोड़ दी। उसके पत्तों का काढ़ा, दवाई बनाने को मूढ़ता मानने लगे हो। पेड़ों की पूजा के नाम पर आपको अंधविश्वास याद आने लगता है। पेड़ तले बैठना आपको गंवारूं लगता है तो बताओं पेड़ों की फिर जरूरत ही क्या है?
पेड़ काटने का विरोध करने वालों पर ताबड़-तोड़  आरोपों की झड़ी लगा दो, ‘तुम गरीबों को गरीब रखना चाहते हो? उनके घरों को कच्चा रखना चाहते हो। तुम नहीं चाहते कि उन्हें रोजगार मिले। अगर नहीं तो बताओ बढ़ती जनसंख्या के लिए रोजगार के नये अवसर तलाशने का विरोध क्यों किया जा रहा है? देश के गरीबों की आर्थिक स्थिति सुधारने की संभावनाओं को पलीता लगाने का  आपका अभियान गरीब विरोधी नहीं तो आखिर और क्या हैं?’
ये दांव भी न चले तो थोड़ा और अधिक स्मार्ट बनिये। जहां फंसते दिखो तो दूसरो को उनकी जिम्मेवारी याद दिलाकर अपना पल्ला झाड़ लीजिए। झूठे-सच्चे आंकड़ों का खेल खेलिये। अगर आप राज्य सरकार हैं तो केन्द्र को कोसिये और केन्द्र है तो राज्य पर मनमानी का आरोप लगाईये। संजय गांधी से आपकी वैचारिक साम्य हो या न हो लेकिन उन्हें  याद कीजिये, ‘काश उनकी मानते हुए ‘वो’ कटवाई होती तो न जनसंख्या इतनी बढ़ती, और न ही इतने पेड़ कटते।’
क्या कहा,पेड़ों को बचाने के लिए  ‘चिपको आंदोलन?’ न भाई न। ये तुमसे न होगा। तुम दिन-रात नेट से चिपके हो डेढ़ जीबी डाटा निपटाओं। व्हाट्सअप युनिवर्सिटी की पढ़ाई पूरी करो। इधर- उधर से मिले जुठे मैसेज को अपने सब मित्रों को जबरदस्ती पढ़ाने के लिए जल्द से जल्द फारवर्ड करो। जानते ही हो, जहां चिपके हो वहां से छूटना मुश्किल। इसलिए वही चिपके सोशल मीडिया पर पर्यावरण की चिंता में घड़ियाली आंसू बहा लीजिए। पर पेड़ों को कटने दें। क्योंकि पेड़ कटते थे। कटते हैं। कटते रहेंगे और कटते भी रहने चाहिए। क्योंकि आपको, हमको माल चाहिए। पर हां, ‘माल’ की परिभाषा पूछने से बचे क्योंकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में न आने वाला अति गोपनीय विषय है।
अरे जब हम गौमाता को कटने से नहीं रोक सके, पवित्र नदियों को प्रदूषित होने से नहीं रोक सके। संस्कृति और संस्कारों का मजाक बनने से नहीं रोक सके तो बेचारे पेड़ों के लिए इतनी मारामारी ठीक नहीं। कभी फुर्सत मिली तो ‘पेड़ बचाओ’ मंत्रालय का गठन किया जायेगा। फिलहाल आप रास्ता छोड़कर खड़े हो ताकि कटा हुआ पेड़ आप पर न गिरे। अस्तु!
डा. विनोद बब्बर संपर्क-   9868211911, 8800963021  1vinodbabbar@gmail.com


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