पुण्य धरा भारत
उत्तरं यत् समुद्रस्य, हिमाद्रेश्चौव दक्षिणम्।
वर्षं तद् भारतं नाम, भारती यत्र संतति।।
अर्थात् हिन्द महासागर के उत्तर तथा हिमालय पर्वत के दक्षिण में जो भू-भाग है उसे भारत कहते हैं। उस समाज(उस धरा की संतान) को भारती या भारतीय के नाम से पहचाना जाता हैं।
हिमालय समारभ्य यावद् इन्दु सरोवरम्।
तं देव निर्मितं देशं, हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।।
अर्थात् हिमालय से लेकर इन्दु (हिन्द) महासागर तक देव पुरुषों द्वारा निर्मित इस भूगोल को हिन्दुस्थान कहा जाता है।
स्पष्ट है कि भारत महान है। इतिहास साक्षी है- इस पुण्य धरा के सम्मान की रक्षा के लिए असंख्य वीरों ने अपना शीश तक हथेली पर धरा है। दुनिया के देशों ने भूमि को भोग्या माना लेकिन भारत में भूमि माता है। पूज्या है। इस धरा की नदियों तक पूज्या और पवित्र मानी जाती हैं। नदियों का जल पवित्र है। पवित्र को समझना जरूरी है। जैसे जल, स्वच्छ जल, शुद्ध जल, पवित्र जल यानि पुण्य जल। शुद्ध और पवित्र में अंतर होता है। इस धरा के धाम पवित्र है। गंगाजल पवित्र है। शीश झुकता है पवित्र पुण्यता के सम्मुख। गंगाजल, माता-पिता, गुरुजनोे, आचार्याे संत-संन्यासियों को बारम बार प्रणाम! जो अपने लिए नहीं बल्कि लोक कल्याणार्थ जीते हैं। उनके दर्शन, पूजन से पवित्रता अनुभव होती है। भारत से दूर रहने वाले भारतपुत्र इस पुण्य धरा का स्मरण कर स्वयं को धन्य समझते हैं।
भारत वह धरा है जहां प्रकृति ने अपनी छटा का हर रंग बिखेरा है। यहाँ सभी छ ऋतुओं हैं। हर प्रकार की जलवायु का आनंद और रसास्वादन केवल यहीं संभव है। यह रत्नागर्भा पुण्य धरा न्यूनाधिक सभी खनिज-द्रव्य सम्पदाओं की स्वामिनी है। सप्त पर्वत श्रृंखला अपने विशालकाय रूप में विद्यमान है। उत्तर में देवतात्मा हिमालय सजग प्रहरी पिता की भूमिका में अटल अचल विराजमान हैं। दुनिया का सर्वाेच्च सागरमाथा (माउंट एवरेस्ट) यहीं है। इसकी दिव्य कंदराएं तपस्थली हैं। तो वन दुर्लभ जीवनदायनी जड़ी-बूटियों का अद्भुत अनुपम भंडार है। इसके आंचल में अनेक तीर्थ स्थानों की मानो माला है। बद्रीनाथ ,केदारनाथ ,बाबा बर्फानी अमरनाथ, माता वैष्णो देवी, चट्टानी बाबा बड़ा अमरनाथ, श्रीनगर, जम्मू ,बारामूला आदि अनेक स्थान विराजमान हैं।
गंगा, सतलुज,गोदावरी जैसी अनेक नदियों इस धरा का कंठहार है, का उद्गम-स्थल भी ये गगनचुम्बी पर्वत हैं। केवल पवित्रतम नदी गंगा जोकि गंगोत्री शिखर पर गो मुख से निकलकर 1450 किमी. लम्बी यात्रा पूरी करती हुई बंगाल की खाड़ी में सागर में विलीन होती है। इसे सूर्यवंशी महाराज भगीरथ कठिन तप कर अपने पूर्वजों के उद्धार हेतु स्वर्ग से लाये थे। उत्तर भारत के भूभाग को अभिसिंचित करते हुए गंगा आगे बढ़ती रही और इसके तट पर कितने ही सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं ऐतिहासिक शहर व् स्थान विकसित होते रहे।
ब्रह्मपुत्र (सबसे लम्बी नदी 2900 किमी) कैलाश से निकलकर उत्तर-पूर्व भारत के बड़े भाग (लगभग 500 वर्ग किमी क्षेत्रफल) को अभिसिंचित कर बांग्लादेश में प्रवेश करती है। सूर्य पुत्री यमुना यमनोत्री से चलकर प्रयाग में संगम स्थल पर गंगा में एकाकार हो जाती है। इस तरह कैलाश से कन्याकुमारी तक. अटक से कटकतक, कच्छ से कामरूप तक विस्तृत महान भारत भूमि को अनेकों पवित्र नदियां अपने जल से अभिसिंचित करती है। इसके तटों पर अनेकों धार्मिक व सांस्कृतिक आयोजन होते है। यहां सांस्कृतिक धरोहर के चिन्ह सर्वत्र बिखरे हुए हैं। अनेक तीर्थ है। कुम्भ स्थल तीर्थ हैं। इसका कण-कण पवित्र है। इसीलिए तो प्रत्येक भारतीय गाता है - ‘कण-कण में सोया शहीद, पत्थर-पत्थर इतिहास है। पग-पग में उत्सर्ग- शौर्य का अंकित इतिहास है!’
अरावली विश्व की प्राचीनतम पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है। दिल्ली ,राजस्थान से गुजरात तक फैली इस पर्वत- श्रृंखला का नाम आते ही हमारे स्मृति पटल पर शौर्य वीर महाराणा प्रताप द्वारा विधर्मियों को नाको चने चबवाने की गौरव गाथाएं प्रकट हो जाती हैं। धन्य है वह वीर प्रताप घास की रोटी खाना स्वीकार किया लेकिन मातृभूमि के भाल को झुकने नहीं दिया। भामाशाह की दानवीरता और रानी पद्मावती का जौहर के स्मरण मात्र से ही शीश श्रद्धा से झुक जाते हैं। धन्य हैं वे क्षत्राणियां जिनके सतीत्व एवं पवित्रता को विधर्मी छू भी न सके। नमन हैं उन देवियों को- ‘यत्र नर्यस्ते पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता!’
इस पुण्य भूमि के स्वाभिमान की रक्षा के लिए असंख्य वीरों ने निज शोणित से स्नान किया। गुरु गोविंदसिंह, छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप द्वारा धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए किये गये त्याग, तपस्या और बलिदान के सम्मुख सारा भारत नतमस्तक है। बिरसा मुंडा, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे जैसे वीर इस पुण्य धरा के चंदन वन है जिनकी वीरता और शौर्य की सुगंध से विश्व अभिभूत है।
त्यागी वीरों और तपस्वी संतो ने इस देश को एकता अखण्डता की मजबूत घुट्टी पिलाई है। आदि शंकराचार्य जी ने देश के चारों कोनो में मठों की स्थापना की। आज भी दक्षिण के मंदिरों में उत्तर के पुजारी और उत्तर में दक्षिण के पुजारी देखे जा सकते हैं। एकता और समन्वय का ऐसा सुंदर उदाहरण विश्व में अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलेगा। इसीलिए भगवान स्वयं इस धरा पर अवतरित होते रहे है। ईसा मसीह और मोहम्मद साहिब के यहां अध्ययन के लिए आने के प्रमाण मिलते है। हमारे भगवान बुद्ध का संदेश आज दुनिया भर में फल फूल रहा है। उन देशों के लोगों के लिए भी भारत आस्था और श्रद्धा की धरती है। यह विश्व गुरु है क्योंकि दुनिया भर से लोग नालंदा तक्षशिला में शिक्षा ग्रहण करने आते थे। हमारे चाणक्य, गुरु नानक, कबीर, स्वामी दयानन्द की शिक्षाएं आज भी दुनिया भर के लिए उपयोगी बनी हुई है। शिकागो में विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद ने एक बार फिर से इस पुण्य धरा के ज्ञान का डंका सारी दुनिया के सामने बजाया। उन्होंने पश्चिम को बताया- ‘आपके यहां एक टेलर किसी को भी जेंटलमैन बना सकता है लेकिन भारत में करैक्टर के बिना कोई जेंटलेमन नहीं होता।’ विवेकानंद जी से प्रभावित जर्मन के दार्शनिक मेक्समुलर ने कहा था, ‘बेशक मैं कभी भारत नहीं गया लेकिन मैं भारत को भली भांति जानता हूं क्योंकि मैंने एक भारत पुत्र को बहुत नजदीक से देखा है।’
ज्ञान के प्रथम ग्रन्थ वेद की रचना यहीं हुई। रामायण, श्रीमद्भगवतगीता, उपनिषद, पुराणों, श्री गुरु ग्रन्थसाहिब, सहित अनेक ग्रन्थ विश्व को इसी धरा की देन है। शांति और समन्वय की इस धरा के बारे में सभी जानते हैं कि बेशक यहां असंख्य आक्रांता लुटेरे आये लेकिन हमने कभी किसी देश पर आक्रमण नहीं किया। उन्होंने खजाने लूटे। राज्यों को जीता लेकिन हमने दिलों को जीता। यहां तक कि लंका विजय के पश्चात भी श्रीराम ने लंका में प्रवेश तक नहीं किया। उन्होंने स्पष्ट कहा, ‘अपि स्वर्णमयी लंका न में लक्ष्मण रोचत। जननी जन्म भूमिश्चा स्वर्गादपि गरीयसी।
भगवान श्री राम ने वनवासी ,गिरिवासी भील-भीलनी ,निषादराज आदि सबको गले लगाया क्योंकि सामाजिक समरसता इस धरा का स्वभाव था। हैं और रहेगा।
आज ग्लोबल विलेज की बात पश्चिम से उड़ते- उड़ते यहां भी फलाई जा रही हैं। लेकिन वे जानते ही नहीं कि विलेज (गांव) किसे कहते हैं। उनके विलेज में पड़ोसी का पता नहीं है। परिवार के सदस्य भी एक दूसरे के दुख सुख से दूर है। लेकिन हमारी गांव की अवधारणा क्या है वे नहीं समझ सकते। हमें पिछड़ा बताने वाले वे लोग हैं जो आज ग्लोबल विलेज की झूठी अवधारणा पर झूम रहे हैं क्योंकि वे नहीं जानते कि सदियों से ग्लोबल फैमिली (वसुधैव कुटम्बकम्) को हमारा चिंतन सूत्र हैं। वे अपने अंदर भी अशांत हैं। दूसरों की अशांति से उनका कोई लेना-देना नहीं परंतु हम तो नित्य प्रति शांति पाठ करते हुए वनस्पतियों, जल, पृथ्वी यहां तक कि अंतरिक्ष की शांति की भी प्रार्थना करते हैं। हमारी जीवन शैली पूर्णत विज्ञानं व प्रकृति आधारित रही है। हम पेड़ों की पूजा करते हे। जल को देवता मानते हैं। पृथ्वी को माता मानते है। सबके मंगल की कामना करते हुए उद्घोष करते हैं- सर्वे भवन्तु सुखिनः, कृण्वन्ते विश्वमरयम, तेरे भाणे सरबत दा भला!
धर्म की जय हो ,अधर्म का नाश हो!
प्राणियों में सद्भावना हो ,विश्व का कल्याण हो! विश्वास के साथ कहना चाहता हूं, आलमा इलबाल के मन-मस्तिष्क में इस धरा की महानता अपना प्रभाव दिखा रही होगी तभी तो उन्होंने लिखा- यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा, सब मिट गए जहाँ से।
अब तक मगर है बाक़ी, नाम-ओ-निशाँ हमारा।।
और अंत में चर्चा करना चाहूंगा, अपने अग्रज की जापान यात्रा की। वहां उन्हें भारतीय भोजन की कुछ कठिनाई अनुभव हुई तो किसी ने उन्हें ‘इंडियन रेस्टोरेंट’ के बारे में जानकारी दी। वे जब भी अवसर मिलता, वहां जाते। जैसाकि कि हम भारतीयों का स्वभाव है, मौका पाकर एक दिन उन्होंने रेस्टोरेंट के स्वामी से सम्पर्क किया। बातचीत के दौरान उन्होंने उससे पूछ ही लिया कि वह भारत में कहां का रहने वाला है? उन्हें उस समय बहुत आश्चर्य हुआ जब जवाब में बताया गया कि वह भारत का नहीं अपितु पाकिस्तान का रहने वाला है। इस पर भाई साहब ने पूछा, ‘तब आपने अपने रेस्टोरेंट का नाम ‘इंडियन रेस्टोरेंट’ की बजाय ‘पाकिस्तानी रेस्टोरेंट’ क्यों नहीं रखा?’ उसने विनम्रता से उत्तर दिया, ‘‘इंडियन रेस्टोरेंट’ में हर देश के पर्यटक आते हैं। अगर इसका नाम पाकिस्तानी रेस्टोरेंट होता तो तो.....!’
बिना कहे ही उसने बहुत कुछ कह दिया मेरी भारत माता के विषय में। अब आप ही बतायें कि जिस देश के नाम में ही पवित्रता की गारंटी हो, वह धरा पुण्य धरा है या नहीं? दुश्मन भी जिसका मात्र नाम लेकर भी लाभ कमा रहे हो, जरूर उसमें कुछ खास बात होगी। कौन अभागा होगा जो इस पुण्य धरा पर जन्म लेकर भी इसकी जय जयकार न करें। मैं हिन्दू हूं, पुनर्जन्म में विश्वास रखता हूं। इसलिए गर्व के साथ बार-बार दोहराना चाहता हूं-
बेशक जीवन में न अमोद प्रमोद मिले
गर मानुष जीवन मिले तो
भारत माँ की गोद मिले!
भारत माँ की गोद मिले!!
भारत माँ की गोद मिले!!!
जय हिन्द! जय भारत!!
(-डॉ. अम्बरीश कुमार के व्याख्यान के मुख्य अंश)
वर्षं तद् भारतं नाम, भारती यत्र संतति।।
अर्थात् हिन्द महासागर के उत्तर तथा हिमालय पर्वत के दक्षिण में जो भू-भाग है उसे भारत कहते हैं। उस समाज(उस धरा की संतान) को भारती या भारतीय के नाम से पहचाना जाता हैं।
हिमालय समारभ्य यावद् इन्दु सरोवरम्।
तं देव निर्मितं देशं, हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।।
अर्थात् हिमालय से लेकर इन्दु (हिन्द) महासागर तक देव पुरुषों द्वारा निर्मित इस भूगोल को हिन्दुस्थान कहा जाता है।
स्पष्ट है कि भारत महान है। इतिहास साक्षी है- इस पुण्य धरा के सम्मान की रक्षा के लिए असंख्य वीरों ने अपना शीश तक हथेली पर धरा है। दुनिया के देशों ने भूमि को भोग्या माना लेकिन भारत में भूमि माता है। पूज्या है। इस धरा की नदियों तक पूज्या और पवित्र मानी जाती हैं। नदियों का जल पवित्र है। पवित्र को समझना जरूरी है। जैसे जल, स्वच्छ जल, शुद्ध जल, पवित्र जल यानि पुण्य जल। शुद्ध और पवित्र में अंतर होता है। इस धरा के धाम पवित्र है। गंगाजल पवित्र है। शीश झुकता है पवित्र पुण्यता के सम्मुख। गंगाजल, माता-पिता, गुरुजनोे, आचार्याे संत-संन्यासियों को बारम बार प्रणाम! जो अपने लिए नहीं बल्कि लोक कल्याणार्थ जीते हैं। उनके दर्शन, पूजन से पवित्रता अनुभव होती है। भारत से दूर रहने वाले भारतपुत्र इस पुण्य धरा का स्मरण कर स्वयं को धन्य समझते हैं।
भारत वह धरा है जहां प्रकृति ने अपनी छटा का हर रंग बिखेरा है। यहाँ सभी छ ऋतुओं हैं। हर प्रकार की जलवायु का आनंद और रसास्वादन केवल यहीं संभव है। यह रत्नागर्भा पुण्य धरा न्यूनाधिक सभी खनिज-द्रव्य सम्पदाओं की स्वामिनी है। सप्त पर्वत श्रृंखला अपने विशालकाय रूप में विद्यमान है। उत्तर में देवतात्मा हिमालय सजग प्रहरी पिता की भूमिका में अटल अचल विराजमान हैं। दुनिया का सर्वाेच्च सागरमाथा (माउंट एवरेस्ट) यहीं है। इसकी दिव्य कंदराएं तपस्थली हैं। तो वन दुर्लभ जीवनदायनी जड़ी-बूटियों का अद्भुत अनुपम भंडार है। इसके आंचल में अनेक तीर्थ स्थानों की मानो माला है। बद्रीनाथ ,केदारनाथ ,बाबा बर्फानी अमरनाथ, माता वैष्णो देवी, चट्टानी बाबा बड़ा अमरनाथ, श्रीनगर, जम्मू ,बारामूला आदि अनेक स्थान विराजमान हैं।
गंगा, सतलुज,गोदावरी जैसी अनेक नदियों इस धरा का कंठहार है, का उद्गम-स्थल भी ये गगनचुम्बी पर्वत हैं। केवल पवित्रतम नदी गंगा जोकि गंगोत्री शिखर पर गो मुख से निकलकर 1450 किमी. लम्बी यात्रा पूरी करती हुई बंगाल की खाड़ी में सागर में विलीन होती है। इसे सूर्यवंशी महाराज भगीरथ कठिन तप कर अपने पूर्वजों के उद्धार हेतु स्वर्ग से लाये थे। उत्तर भारत के भूभाग को अभिसिंचित करते हुए गंगा आगे बढ़ती रही और इसके तट पर कितने ही सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं ऐतिहासिक शहर व् स्थान विकसित होते रहे।
ब्रह्मपुत्र (सबसे लम्बी नदी 2900 किमी) कैलाश से निकलकर उत्तर-पूर्व भारत के बड़े भाग (लगभग 500 वर्ग किमी क्षेत्रफल) को अभिसिंचित कर बांग्लादेश में प्रवेश करती है। सूर्य पुत्री यमुना यमनोत्री से चलकर प्रयाग में संगम स्थल पर गंगा में एकाकार हो जाती है। इस तरह कैलाश से कन्याकुमारी तक. अटक से कटकतक, कच्छ से कामरूप तक विस्तृत महान भारत भूमि को अनेकों पवित्र नदियां अपने जल से अभिसिंचित करती है। इसके तटों पर अनेकों धार्मिक व सांस्कृतिक आयोजन होते है। यहां सांस्कृतिक धरोहर के चिन्ह सर्वत्र बिखरे हुए हैं। अनेक तीर्थ है। कुम्भ स्थल तीर्थ हैं। इसका कण-कण पवित्र है। इसीलिए तो प्रत्येक भारतीय गाता है - ‘कण-कण में सोया शहीद, पत्थर-पत्थर इतिहास है। पग-पग में उत्सर्ग- शौर्य का अंकित इतिहास है!’
अरावली विश्व की प्राचीनतम पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है। दिल्ली ,राजस्थान से गुजरात तक फैली इस पर्वत- श्रृंखला का नाम आते ही हमारे स्मृति पटल पर शौर्य वीर महाराणा प्रताप द्वारा विधर्मियों को नाको चने चबवाने की गौरव गाथाएं प्रकट हो जाती हैं। धन्य है वह वीर प्रताप घास की रोटी खाना स्वीकार किया लेकिन मातृभूमि के भाल को झुकने नहीं दिया। भामाशाह की दानवीरता और रानी पद्मावती का जौहर के स्मरण मात्र से ही शीश श्रद्धा से झुक जाते हैं। धन्य हैं वे क्षत्राणियां जिनके सतीत्व एवं पवित्रता को विधर्मी छू भी न सके। नमन हैं उन देवियों को- ‘यत्र नर्यस्ते पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता!’
इस पुण्य भूमि के स्वाभिमान की रक्षा के लिए असंख्य वीरों ने निज शोणित से स्नान किया। गुरु गोविंदसिंह, छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप द्वारा धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए किये गये त्याग, तपस्या और बलिदान के सम्मुख सारा भारत नतमस्तक है। बिरसा मुंडा, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे जैसे वीर इस पुण्य धरा के चंदन वन है जिनकी वीरता और शौर्य की सुगंध से विश्व अभिभूत है।
त्यागी वीरों और तपस्वी संतो ने इस देश को एकता अखण्डता की मजबूत घुट्टी पिलाई है। आदि शंकराचार्य जी ने देश के चारों कोनो में मठों की स्थापना की। आज भी दक्षिण के मंदिरों में उत्तर के पुजारी और उत्तर में दक्षिण के पुजारी देखे जा सकते हैं। एकता और समन्वय का ऐसा सुंदर उदाहरण विश्व में अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलेगा। इसीलिए भगवान स्वयं इस धरा पर अवतरित होते रहे है। ईसा मसीह और मोहम्मद साहिब के यहां अध्ययन के लिए आने के प्रमाण मिलते है। हमारे भगवान बुद्ध का संदेश आज दुनिया भर में फल फूल रहा है। उन देशों के लोगों के लिए भी भारत आस्था और श्रद्धा की धरती है। यह विश्व गुरु है क्योंकि दुनिया भर से लोग नालंदा तक्षशिला में शिक्षा ग्रहण करने आते थे। हमारे चाणक्य, गुरु नानक, कबीर, स्वामी दयानन्द की शिक्षाएं आज भी दुनिया भर के लिए उपयोगी बनी हुई है। शिकागो में विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद ने एक बार फिर से इस पुण्य धरा के ज्ञान का डंका सारी दुनिया के सामने बजाया। उन्होंने पश्चिम को बताया- ‘आपके यहां एक टेलर किसी को भी जेंटलमैन बना सकता है लेकिन भारत में करैक्टर के बिना कोई जेंटलेमन नहीं होता।’ विवेकानंद जी से प्रभावित जर्मन के दार्शनिक मेक्समुलर ने कहा था, ‘बेशक मैं कभी भारत नहीं गया लेकिन मैं भारत को भली भांति जानता हूं क्योंकि मैंने एक भारत पुत्र को बहुत नजदीक से देखा है।’
ज्ञान के प्रथम ग्रन्थ वेद की रचना यहीं हुई। रामायण, श्रीमद्भगवतगीता, उपनिषद, पुराणों, श्री गुरु ग्रन्थसाहिब, सहित अनेक ग्रन्थ विश्व को इसी धरा की देन है। शांति और समन्वय की इस धरा के बारे में सभी जानते हैं कि बेशक यहां असंख्य आक्रांता लुटेरे आये लेकिन हमने कभी किसी देश पर आक्रमण नहीं किया। उन्होंने खजाने लूटे। राज्यों को जीता लेकिन हमने दिलों को जीता। यहां तक कि लंका विजय के पश्चात भी श्रीराम ने लंका में प्रवेश तक नहीं किया। उन्होंने स्पष्ट कहा, ‘अपि स्वर्णमयी लंका न में लक्ष्मण रोचत। जननी जन्म भूमिश्चा स्वर्गादपि गरीयसी।
भगवान श्री राम ने वनवासी ,गिरिवासी भील-भीलनी ,निषादराज आदि सबको गले लगाया क्योंकि सामाजिक समरसता इस धरा का स्वभाव था। हैं और रहेगा।
आज ग्लोबल विलेज की बात पश्चिम से उड़ते- उड़ते यहां भी फलाई जा रही हैं। लेकिन वे जानते ही नहीं कि विलेज (गांव) किसे कहते हैं। उनके विलेज में पड़ोसी का पता नहीं है। परिवार के सदस्य भी एक दूसरे के दुख सुख से दूर है। लेकिन हमारी गांव की अवधारणा क्या है वे नहीं समझ सकते। हमें पिछड़ा बताने वाले वे लोग हैं जो आज ग्लोबल विलेज की झूठी अवधारणा पर झूम रहे हैं क्योंकि वे नहीं जानते कि सदियों से ग्लोबल फैमिली (वसुधैव कुटम्बकम्) को हमारा चिंतन सूत्र हैं। वे अपने अंदर भी अशांत हैं। दूसरों की अशांति से उनका कोई लेना-देना नहीं परंतु हम तो नित्य प्रति शांति पाठ करते हुए वनस्पतियों, जल, पृथ्वी यहां तक कि अंतरिक्ष की शांति की भी प्रार्थना करते हैं। हमारी जीवन शैली पूर्णत विज्ञानं व प्रकृति आधारित रही है। हम पेड़ों की पूजा करते हे। जल को देवता मानते हैं। पृथ्वी को माता मानते है। सबके मंगल की कामना करते हुए उद्घोष करते हैं- सर्वे भवन्तु सुखिनः, कृण्वन्ते विश्वमरयम, तेरे भाणे सरबत दा भला!
धर्म की जय हो ,अधर्म का नाश हो!
प्राणियों में सद्भावना हो ,विश्व का कल्याण हो! विश्वास के साथ कहना चाहता हूं, आलमा इलबाल के मन-मस्तिष्क में इस धरा की महानता अपना प्रभाव दिखा रही होगी तभी तो उन्होंने लिखा- यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा, सब मिट गए जहाँ से।
अब तक मगर है बाक़ी, नाम-ओ-निशाँ हमारा।।
और अंत में चर्चा करना चाहूंगा, अपने अग्रज की जापान यात्रा की। वहां उन्हें भारतीय भोजन की कुछ कठिनाई अनुभव हुई तो किसी ने उन्हें ‘इंडियन रेस्टोरेंट’ के बारे में जानकारी दी। वे जब भी अवसर मिलता, वहां जाते। जैसाकि कि हम भारतीयों का स्वभाव है, मौका पाकर एक दिन उन्होंने रेस्टोरेंट के स्वामी से सम्पर्क किया। बातचीत के दौरान उन्होंने उससे पूछ ही लिया कि वह भारत में कहां का रहने वाला है? उन्हें उस समय बहुत आश्चर्य हुआ जब जवाब में बताया गया कि वह भारत का नहीं अपितु पाकिस्तान का रहने वाला है। इस पर भाई साहब ने पूछा, ‘तब आपने अपने रेस्टोरेंट का नाम ‘इंडियन रेस्टोरेंट’ की बजाय ‘पाकिस्तानी रेस्टोरेंट’ क्यों नहीं रखा?’ उसने विनम्रता से उत्तर दिया, ‘‘इंडियन रेस्टोरेंट’ में हर देश के पर्यटक आते हैं। अगर इसका नाम पाकिस्तानी रेस्टोरेंट होता तो तो.....!’
बिना कहे ही उसने बहुत कुछ कह दिया मेरी भारत माता के विषय में। अब आप ही बतायें कि जिस देश के नाम में ही पवित्रता की गारंटी हो, वह धरा पुण्य धरा है या नहीं? दुश्मन भी जिसका मात्र नाम लेकर भी लाभ कमा रहे हो, जरूर उसमें कुछ खास बात होगी। कौन अभागा होगा जो इस पुण्य धरा पर जन्म लेकर भी इसकी जय जयकार न करें। मैं हिन्दू हूं, पुनर्जन्म में विश्वास रखता हूं। इसलिए गर्व के साथ बार-बार दोहराना चाहता हूं-
बेशक जीवन में न अमोद प्रमोद मिले
गर मानुष जीवन मिले तो
भारत माँ की गोद मिले!
भारत माँ की गोद मिले!!
भारत माँ की गोद मिले!!!
जय हिन्द! जय भारत!!
(-डॉ. अम्बरीश कुमार के व्याख्यान के मुख्य अंश)
पुण्य धरा भारत
Reviewed by rashtra kinkar
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20:31
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माँ भारती के प्रताप का अद्भुत वर्णन ...
ReplyDeleteकाश, आज के शंकराचार्य भी इसे पढ़ते, समझते !!