विकास की अवधारणा और विनाश # Concept of development & Disaster


 विकास की अवधारणा और विनाश
विकास मानव सभ्यता की एक अनिवार्य और सदा चलते रहने वाली सतत प्रक्रिया है। डार्विन ने जीव विकास की थ्योरी प्रस्तुत कर बताया कि किस तरह अमीबा, हाईड्रा से जीव और मनुष्य तक क्रमिक विकास हुआ। इतिहास हमें आदिमानव से आधुनिक मानव के वकास की कहानी बताया है तो हमारे धर्म ग्रन्थ जीव के मनुष्य बनने को वास्तविक विकास घोषित करते हैं। इससे स्पष्ट है कि किसी वस्तु, जीव अथवा मनुष्य की उपयोगिता, योग्यता, क्षमता में विस्तार को विकास माना जाता है। जैसे मिट्टी से बर्तन, कलात्मक वस्तुए, ईंट बनना। अयस्क से लोहा अथवा अन्य धतुएं और फिर लोहे आदि धातुओं से बर्तन, हथियार, कल पुर्जे, वाहन आदि बनना। बेकार बंजर भूमि पर फैक्ट्री अथवा आवास बनानाआदि, आदि। अबोध बालक को अक्षर ज्ञान देकर उसे साक्षर तो साक्षर को विद्वान, वैज्ञाानिक, डाक्टर आदि बनाना मानवीय विकास के कुछ उदाहरण है।
आज राजनीति से प्रशासन तक सभी विकास के गीत गाते हैं। पिछले दिनों हुए चुनाव के दौरान सारा जोर विकास के दावों की पड़ताल, विरोधियों द्वारा उन्हें खारिज करना, दावे, प्रतिदावे, सुनहरी भविष्य के स्वप्न दिखाने का दारोमदार विकास की अवधारणा पर ही टिका हुआ है। लेकिन जब हम अब तक के विकास को मूल्यांकन करते हैं तो पाते हैं कि कभी सोने की चिड़ियां कहे जाने वाले देश में आज भी जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग विकास के लिए तरस रहा है तो इसका मतलब है कि विकास के लिए सर्वाधिक शोर के बावजूद यदि ऐसा है तो उसके लिए अपनाएं जाने वाले संसाधनों से भी पहले नीतियों और नीयत की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह वैश्विक अनुभव है कि अनियोजित विकास बहुत महंगा पड़ता है क्योंकि वह विनाश की ओर ले जाता है तो अपमान और आत्मग्लानि का कारण भी बनता है। यूरोप यात्रा के अंतिम चरण में एक मित्र ने  मुझसे दिल्ली और लंदन के अंतर के बारे में पूछा तो मैंने कहा, ‘सबसे बड़ा अंतर हैे ईश्वर प्रदत्त जलवायु तो दूसरा सारी दुनिया को लूटकर प्राप्त की गई आपकी अमीरी है।’ यह सुनकर वह मुस्कुराते हुए बोला, ‘यह सही है कि ईश्वर ने हमें बेहतर जलवायु दी और यह भी सच है कि हमने दुनिया को लूटा। लेकिन अमीर हम नहीं तुम हो। वर्षों से लंदन में हूं लेकिन मैंने  अपनेे सामने की सड़क बनते कभी नहीं देखा। एक बार बनी, आज भी वहीं है और बढ़िया है। जबकि मैं जब भी दिल्ली गया, जहाँ देखा, सड़क, नालियाँ बनती दिखाई दी। बताओ हमारे पास धन ज्यादा है या तुम्हारे पास?’ मैं निरुत्तर था। कैसे कहता कि हमारे यहां सड़कांे का बार-बार बनने-टूटने से ही हमारे नेताओं- अफसरों की रोजी-रोटी है। उनके शब्दकोश में विकास का अर्थ जनता का नहीं, केवल अपना और अपनों का विकास है।
यह प्रसंग इसलिए स्मरण हुआ कि क्षेत्र की जिस सबसे चौड़ी सड़क पर हमारा कार्यालय है वहां से किसी दूसरे क्षेत्र के लिए पानी की लाइन डालने के लिए महीनों से काम चल रहा है। प्रथम बार मशीन जमीन के अंदर ही अंदर सुराख कर पाइप डाले गए। लेकिन इसे काम संपन्न हो जाना नहीं माना जा सकता क्योंकि उसके कुछ दिन बाद रूक-रूक कर अब मश्ीनों से सड़क को खोदकर फिर पाइप डाले गये। इस प्रक्रिया में आसपास के लोगों की पानी की लाइने टूटने से जल आपूर्ति बाधित हुई। बिजली और टेलिफोन केबल क्षतिग्रस्त हुए वे तो ठीक कर दिये गये लेकिन सड़क की स्थिति जस की तस है। नन्हें मुन्ने बच्चों को स्कूल ले जाने वाले वाहन और ई रिक्शा आदि पतली गलियों से बार-बार अटकते हुए निकलने को विवश है। दिनभर गुजरने वाले हजारों वाहन चालकों की असुविधा और धूल से स्थानीय निवासियों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को विकास का अनिवार्य अंग मान लिया जाता है। आशा है यह स्थिति अगले चुनाव तक रहेगी ताकि ठोकरे खाते लोगों को स्मरण रहे कि ‘यह विकास कार्य फलॉ जी ने अपने फलॉ कोष से करवाया है।’
जब देश की राजधानी में यह सामान्य प्रचलन है तो देश के दूर दराज क्षेत्रों की स्थिति क्या होगी सहज अनुमान लगाया जा सकता है। विकास के नाम पर नित्य बनने वाली गलियों, सड़कों के कारण वहाँ रहने वाले लाखों लोगों का जीवन नारकीय बन चुका है। इन क्षेत्रों में सड़क बनते ही कभी बिजली तो कभी पानी या सीवर के लिए खुदाई का काम आरंभ हो जाता है। टेलीफोन केबल के लिए भी अनेक बार खुदाई होती रहती है। आश्चर्य कि हर बार लापरवाही से सड़क बनाने का अंजाम होता है सड़क का लेबल हर बार 8 से 12 इंच ऊँचा हो जाना। ऐसे में कुछ ही वर्षो में शानदार पक्के मकानों का सड़क लेबल से नीचा हो जाना आम बात है। यह सर्वविदित है कि अनाधिकृत कालोनियों में रहने वाले लोग आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं। बार- बार मकान को ऊंचा  उठाना उनकी क्षमता से बाहर  है अतः उनका जीवन नारकीय हो जाता है। विकास के नाम पर यह विनाश विदेशी डिग्रीधारी हमारे सुयोग्य नीति-निर्माताओं की सोच राष्ट्रीय देश लगभग सभी नगरों, महानगरों में पेयजल की उपलब्धता और गंदेपानी का निष्पादन बहुत बड़ी समस्या है। एक ओर तो हम भूमिगत सीवर के लायक संस्कार विकसित नहीं कर पाये क्योंकि अपने घर का कचरा, पालीथिन, रसायन आदि सीधे और नष्ट न होने वाले कचरे आदि सब ढके नालों अथवा सीवर में डालते है तो दूसरी ओर सीवर और नालों की सफाई में भ्रष्टाचार समस्याओं के समाधान की बजाय उसे और उलझाते है।यह अनियंित्रत लोकतंत्र का एक दुष्परिणाम है कि हमने देश का कर्णधार बनने जा रहे लोगों की न्यूनतम योग्यता तय करने के बारे में कभी सोचा तक नही। उसपर भी सितम यह कि तिकड़मी अयोग्य नेता या उनके चमचे नीति- निर्माता बने हैं। उनके लिए विकास का अर्थ हर तरफ कंक्रीट से ढकना है। ऐसे में बरसात का पानी भूजल स्तर को बढ़ाने की बजाय समस्या बन जाता है। एक तरफ भूजल का स्तर खतरनाक तेजी से नीचे गिर रहा है और सारा साल पेयजल की किल्लत रहती है तो दूसरी ओर थोड़ी सी बरसात होते ही पानी का भर जाता है। इस अनियोजित विकास की कीमत सम्पूर्ण राष्ट्र को चुकानी पड़ती है जहां हमारे तथाकथित विकास माडल के कारण उत्पन्न बीमारिया भी तेजी से बढ़ रही है।
इस बात से शायद ही कोई असहमत हो कि बढ़ती जनसंख्या अनेक समस्याओं को आमंत्रित करती है। परंतु इस पर कोई ठोस कदम उठाते हुए स्वयं को राष्ट्रभक्त घोषित करने वालों को तीव्र प्रतिक्रिया का तो अन्यों को अपने वोटबैंक गवांने का भय रहता है। इसलिए वे मौन रहने में भी अपनी भलाई समझते हैं। ऐसे में विकास की अवधारणा का भटक जाना स्वाभाविक है क्योंकि विकास से कई गुणा अधिक उनके उपभोग करने वाले लगातार बढ़ते रहते हैं। 
लगभग हर वर्ष कहा जाता है कि इस साल ‘रिकार्डतोड़ गर्मी रही’। हमे पेड़ पौधो को बचाने की चिंता नहीं। जो पेड़ हमारे लालच से बचे भी है तो तथाकथित विकास ने हर फुटपाथ को पूरी तरह सीमेंट से ढक दिया गया है तो वहां लगे पेड़ पौधों को पानी कहां से मिलेगा इसकी चिंता किसी को नहीं। पाताल में समाते भूजल तक पेड़ की जड़े पहुंच नहीं पाती अतः जरा सी तेज हवा या आंधी उसका काल बन जाती है। ऐसे में पर्यावरण का क्या हो सकता है समझना मुश्किल नहीं। 
हमारे देश में सदा से सड़कों के किनारे पेड़ लगाने का प्रचलन रहा है लेकिन आज की टोल वसूलने वाली सड़कों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। कहने को हम कागजों में नदी, तालाब के संरक्षण की बात करते हैं तो पेड़ लगाकर धरती को बचाने के नारे भी खूब उछालते हैं पर सच्चाई कुछ ओर ही है। जो पेड़ लगते भी है उनकी देखभाल की कोई व्यवस्था नहीं है। जब तक वृक्षारोपण के बाद की जिम्मेवारी तय नहीं होगी पर्यावरण संरक्षण का कोई अर्थ नहीं होगा। जबं स्वच्छ वायु, स्वच्छ पानी की कल्पना अनियोजित विकास की अवधारणा की भेंट चढ़ रही हो तो शहरीकरण  की चपेट में आने से प्रकृति और नैसर्गिकता को कैसे रोका जाए इस प्रश्न पर नीति -निर्धारकों के मौन को आखिर अपराध नहीं तो और क्या माना जाए? 
दुनिया में सभ्यता का विकास नदियों के किनारे हुआ। भारत में भी नदियों की अविरल धारा और उसके तट पर मानव-जीवन फलता- फूलता रहा है। हमने नदियों को देवता माना पर आज क्या दशा है हमारी नदियों की? गंदे नाले में बदल चुकी यमुना नदी को नदी कहे भी तो आखिर कैसे? जबकि निर्मल यमुना के नाम पर हजारों करोड़ रूपये बहाने के बाद भी स्थिति ‘जस की तस’ रहने पर किसी को अपराध बोध न होना क्या विकास के गलत मॉडल का दुष्परिणाम नहीं है?
यदि ईमानदारी से विश्लेषण करे तो समझा जा सकता है कि विकास के जिस माडल पर हम आत्ममुग्ध हैं कि इसने हाईवे, माल, मल्टीप्लेक्स एवं संचार व परिवहन के द्रुतगामी साधन दिये परंतु किस कीमत पर? हमारा पर्यावरण बिगाड़ा, सांस्कृतिक मूल्य नष्ट हुए। समाज को बाजार बनाने वाली इस व्यवस्था ने चकाचौध तो अवश्य दी है पर तेजी से बढ़ती असमानता की कीमत पर। इसे विकास कहे या विकास का मुखौटा जिसने कुछ साधारण लोगों को बेशुमार दौलत के स्वामी बनाया है पर सामान्यजन तो साफ हवा पानी से भी वंचित है।
स्पष्ट है कि वास्तविक विकास के लिए केवल सरकारे बदलना ही पर्याप्त नहीं है। इसके लिए व्यवस्था को भी संसाधनों के प्रति संवेदनशील होना पड़ेगा तभी विकास का वास्तविक लाभ देश के आम आदमी तक पहुंच सकेगा। जिस समाज में गरीबों की बहुत बड़ी संख्या मौजूद हो वहां किसी भी योजना बनाने और उसके क्रियान्वयन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण का होना आवश्यक है। नये नगर बसाने का काम पूरी तरह निजी बिल्डरों के हवाले न करते हुए पर्यावरण संरक्षण को कड़ाई से लागू करने पर बल दिया जाये। अब समय आ गया है जब संसाधनो के दुरपयोग व दुष्परिणामं की जिम्मेवारी तय की जाए। क्या यह उचित नहीं होगा कि सभी मंत्रालयों का दायित्व उस क्षेत्र के विशेषज्ञ को सौंपा जाए। वर्तमान सरकार से देश को बहुत सी आशाएं हैं। एक झटके में देश की मुद्रा बदलने वालों को व्यवस्था बदलने की चुनौती स्वीकारनी चाहिए अन्यथा बहुमूल्य संसाधन बर्बाद होते रहेंगे और हम विकास के दावों (झूठे) के बावजूद किसी गड्ढ़े अथवा भीड़  के जाम में फंसे रहेगे। 
-- विनोद बब्बर संपर्क-   09868211911, 7892170421 rashtrakinkar@gmail.com

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