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लोन, ऋण, कर्ज

यह तो आप जानते ही है कि यहां ऐसे लोगों की कमी नहीं है पूछना जिनका व्यवसाय है। अपनी मस्ती में जब आप आफिस से घर या घर से ससुराल जा रहे हो तो अचानक सड़क के किनारे हाथ देकर आपसे अनेक प्रश्न पूछे जाते हैं। पूछना उनका काम है तो पसीना पोंछना आपकी मजबूरी। वे सड़क के किनारे ही नहीं, बंद कमरे में भी पूछ सकते हैं। पूछने से उनकी रोजी रोटी चलती है। यदि आप पर अन्नाई धुन सवार है तो आप यह जरूर कहोंगे कि काम के बदले उन्हें वेतन मिलता है। वह वेतन हाजिरी लगाने मात्र से ही आनलाइन उनके बैंक एकाउण्ट में आ जाता है। लेकिन व्यवहारिकता यह है कि मात्र वेतन के लिए वे ‘तन’ कर खड़े नहीं रह सकते। इस प्रजाति के लोग बहुत तेजी से कम हो रहे हैं। जो खड़े हैं वे जानते हैं कि पूछने से कुछ न कुछ मिलता है। किसी को ज्ञान मिलता है तो किसी को मान मिलता है। आपके प्रश्न पूछने की योग्यता, प्रतिभा, क्षमता प्रशंसनीय मानी जाती है लेकिन प्रश्न पूछने का अधिकार विशेष सम्मान दिलवाता है। इस अधिकार से प्रभावित होकर कोई प्रेमपूर्वक आपको कुछ भेंट पूजा अर्पित करना चाहता है तो आप जैसा उदार मना भला उनकी भावनाओं का निरादर कैसे कर सकते हैं?
पूछते-पूछते कुछ लोगों का अनुभव इतना बढ़़ जाता है कि वे देखते ही जान लेते हैं कि सामने वाला पूछने पर ‘पोंछने’ लगेगा या पोंछने लायक हालात बना देगा। जहां तहां पूछने वालों से भले लोग बचने के उपाय सोचने लगते हैं। लेकिन कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जिनसे पूछने वाले भी बचना चाहते हैं। पर हमारी मजबूरी है, उन्होंने पूछा है इसलिए जवाब देने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं हैं क्योंकि प्रतिप्रश्न कर उलझाना फिलहाल हमने नहीं सीखा है। उलझाने की कला में माहिर लोग टीवी चैनलों को भरपूर टीआरपी और दर्शकों को पर्याप्त सिरदर्द उपलब्ध कराते हैं।
हां तो उन्होंने पूछा है कि ‘लोन, ऋण, कर्ज में क्या अंतर होता है?’
प्रश्न अंतरतम तक पहुंच कर अंतर तलाशने की कोशिश कर रहा था लेकिन हम यही तय नहीं कर पा रहे थे कि प्रश्न भाषा विज्ञान से संबंधित है या व्यवहारिक ज्ञान से? राजनीति का है या भूगोल का? अर्थशास्त्र के किस अध्याय में किसने क्या परिभाषा दी है, पहले यह टटोले या अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू के किसी विशेषज्ञ से चर्चा कर समाधान निकाले? सिर धुनने के अलावा हम कर ही क्या सकते थे इसलिए मन ही मन अपने प्रभु को स्मरण किया। ‘यदा यदा......!’ का वादा निभाने के लिए हमेशा की तरह इस संकट में भी घसीटाराम जी एक बार फिर हाजिर थे।
उनके आसन ग्रहण करते ही हमने अपनी समस्या उनके सामने रखी यानी जो हमसे पूछा गया था हमने उनसे पूछ लिया, ‘बंदापरवर, मेरे हजूर, मेरे आका, मेरे माई-बाप! आप चक्राव्यूहों को तोड़ने से मोड़ने तक की कला में परांगत हैं। कृपा पूर्वक मेरी समस्या का समाधान करते हुए बताये कि लोन, ़ऋण, कर्ज में क्या अंतर होता है? मैं सदैव आपका ऋणी रहूंगा।’
प्रश्न सुनते ही घसीटाराम जी ने आसमान की तरफ अपने दोनो हाथ उठाते हुए कहा, ‘हे खुदा, तूने कैसा नालायक चेला दिया है मुझे जो इतनी छोटी सी बात भी नहीं समझता। इससे अच्छा होता मैं बिन चेले का गुरु होकर इस संसार से कूच करता।’
आंखे बंद लेकिन कान खुले रखे मैं घसीटाराम जी के सम्मुख अपराधी भाव से खड़ा था। कुछ देर मौन रहकर उन्होंने अपना व्याख्यान शुरु किया, ‘वत्स! ऐसे नासमझो की कमी नहीं जो इस प्रश्न को अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू की समस्या बताकर अपना पल्ला झाड़ेंगे लेकिन तुम जान लो कि बात इससे बहुत बड़ी और बहुत दूर की है। लोन में मनुहार का भाव है, ‘लो न!’ यह सौभाग्य हर आदमी को प्राप्त नहीं होता। जिसे लोन मिलता है उसकी लोनलिनैस दूर हो जाती है। वह माल्या-माल होकर परमधाम मेरा मतलब यूरोप को प्राप्त होता है। लोन के साथ कागजी शर्ते बहुत होती है लेकिन कागजी बादाम खाने वाले इन कागजी शर्तो को घोट कर पीने और पिलाने में माहिर होते हैं। पर तू लोन के बारे में क्यों जानना चाहता है? क्या किसी फाइनैंस कम्पनी का रॉंग नम्बर लग गया है या किसी भाषायी समरूपता ने तुझे भ्रमित कर दिया है। मेरे नालायक शिष्य तेरे जैसे लोगों को तो ऋण भी नहीं मिल सकता।’
‘ऋण?? क्या लोन और ऋण में अंतर होता है?’
‘वत्स तेरी समझदानी इतनी बड़ी नहीं कि इस गूढ़ ज्ञान को आसानी से समझ सके। बच्चा ऋण में तृण की तरह हीनता का भाव जरूर होता है लेकिन इसमें महान ऋषि चारवाक का दर्शन है जिन्होंने ऋण लेकर घी पीने का सुझाव दिया था। इसलिए समझदार लोग ऋ़ण के लिए लाईन लगाते हैं। सेटिंग करते हैं। नकली असली कागजों से फाइल तैयार करवाते हैं। फाइल चार्ज चुकाते हैं। कमीशन पेशगी देकर भी चारवाक की आज्ञा का पालन करना चाहते हैं। कुछ लोगों को ऋण प्राप्त हो जाता है। वैसे ऋण भी कई प्रकार के होते हैं। पशुपालन के लिए प्राप्त ऋण को हजम करने के नुस्खे उसे दिलवाने वाले स्वयं बतायेंगे। भैंस बेचकर मौज लो और किसी मरी भैंस की पूंछ फाइल में लगाकर ऋण मुक्ति प्राप्त करो। राजनीति की कृपा से लगभग हर प्रकार के ऋण से मुक्ति के पर्व समय-समय पर मनाये जाते हैं। चुनाव से ठीक पहले ऋण मुक्तियज्ञ का शंखनाद होता है। विरोधी अधूरे यज्ञ का आरोप लगाते हुए अगले चुनाव के लिए शक्ति की कामना करते हैं। यह चक्र चलता रहता है। तृण की तरह ऋण हवा के हल्के से झोंके से मुड़ जाता है।’
‘ध्यान से सुनो, हमारे देश के बहुसंख्यक लोगों को न तो लोन मिलता है और न ही ऋण। यहां तो हम सब पर अनेक प्रकार के कर्ज लदे हैं। उन्हें चुकाना हम अपना फर्ज मानते हैं। लोन वाले सहारा होकर जेल में भी सुविधाएं प्राप्त करते हैं। अदालत तक को अपनी शर्तो पर चलना चाहते हैं क्योंकि उनके पास स्टेटस सिब्बल यानी बड़े वकील होते हैं। ऋण वाले जब गुमराह होकर उसे चुकाने जैसी मूर्खता को अपना फर्ज समझने लगते हैं तो समझो उनपर कर्ज का जिन्न हावी है। ये वे नासमझ हैं जो संसार की व्यवहारिकता को समझने में असफल रहते हैं और आत्महत्या को प्राप्त होते हैं। कर्ज और फर्ज के चक्रव्यूह में फंसे ऐसे लोग अपने परिजनों को तो दुखी करते ही हैं और तेरे जैसों को ऐसे प्रश्नजाल तथा मेरे जैसों को बौद्धिक विलास का अवसर उपलब्ध कराते हैं।
फिलहाल इतना ही। चल मेरे अर्जुन अब तू उठ खड़ा हो और मेरे लिए चाय नाश्ते का इंतजाम कर। जब तक तेरे प्रश्न बने और बचे रहेंगे बुद्धिजीवी होने का मेरा दंभ भी बचा रहेगा। मेरे रहते तू प्रश्नों से भयभीत मत हो। प्रश्न आत्मा की तरह शाश्वत है। समय काल परिस्थिति के अनुसार उत्तर शरीर की तरह बदलते रहते हैं। चल उठ मेरे अर्जुन और जल्द से जल्द कह, ‘चाय पकौडे तैयार हैं ‘लो न!’
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Reviewed by rashtra kinkar
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