भ्रष्टाचारी मूंछ (व्यंग्य) BHrastachar v/s Munchhe
घसीटाराम जी आज बहुत उबल रहे थे। आते ही बोले, ‘क्या जमाना आ गया है। कभी मूंछ की पूंछ होती थी, अब मूंछ बदनाम है। आज कालेज के प्रथम दिन ही पोता मूंछ साफ करवाये घर लौटा तो मैंने उससे पूछा, ‘बरखुरदार, पढ़ने गये था या मूंछ मुंडवाने?’
पोते ने सिर झुका कर जवाब दिया, ‘अब मूंछ मुडवाने का अर्थ वो नहीं रहा जो आपकी कहावतों में था। बदलते दौर में खुद को एडजस्ट करने के लिए कहावतों को एडजस्ट करना जरूरी नहीं रहा मेरे प्यारे ग्रांड पा।’
यूं तो वे मूंछ निकलते ही पोते को जवान घोषित कर चुके थे लेकिन आज पहली बार पोते का मुंह खुला देख कर घसीटाराम जी दहाड़ें, ‘एडजस्ट मूंछें ही करेगी या पढ़ाई में भी कोई एडजस्टमेंट होगा?’
‘समय के साथ सबको एडजस्ट करना पड़ता है। जवानी के आते ही बचपन की आदते अपने आप छूट जाती है तो बुढ़ापे में जवानी वाली चुस्ती-फुर्ती नहीं रहती। स्कूल में यूनिफार्म जरूरी होती है लेकिन कालेज में आते ही यूनि गायब हो जाता है परंतु फार्म फार्मैलिटी बनकर चिपक जाता है। ऐसे में मूंछ और पढ़ाई एक साथ नहीं चल सकती। बड़ी पढ़ाई की कढ़ाई में छोटी छोटी मूंछ झांेकना आज एक जरूरी कर्मकांड बन चुका है। समझा करो ग्रान्ड पा।’
‘वाह बरीखुरदार वाह! हम कालेज नहीं गए तो इसका मतलब यह भी नहीं कि हम मूंछ के स्वभाव के बारे में नहीं जानते है। जरा हमें भी बताओं कि तुम्हारी ओजस्वी पढ़ाई में तेजस्वी मूंछ आखिर किस तरह से बाधक होती है?’
‘ओह दादाजी, आप भी बस समझते कहां है? जमाना बदल चुका है। जब नाक महत्वपूर्ण होती थी तब उसे मूंछ से अंडर लाइन किया जाता था। अब साख नाक से नहीं, जेब में रखे ई-वालेट से होती है। सिनेमा की टिकट लेनी हो या पिज्जा बर्गर चाउमीन क्रेडिट और डेबिट कार्ड दोस्तों के बीच शान बढ़ाते है। इसीलिए नाक को अंडर लाइन करना स्वयं को अंडर एस्टिमेट कराना होता है।’
पोते से मात खाकर आये घसीटाराम आज भुनभुनाते हुए अपने जमाने को याद कर रहे थे, ‘वो भी क्या जमाना था। दुनिया की सारी भागदौड़, कशमकश सिर्फ और सिर्फ इसलिए कि किसी भी तरह से हमारी ‘मूंछ नीची न हो’। आज लड़के लडकियों के कपड़े एक जैसे, बाल एक जैसे। एक अंतर मूंछ का था उसे भी आपने साफ कर दिया। मूंछ विहीनों पर कटाक्ष करते हुए पुतलीबाई अपनी कव्वाली में कहा करती थी, ‘औरतों में मर्द की सूरत मिलती नहीं जनाब, पर मर्दो में मिलते हैं जनाने बेहिसाब!’
उस जममाने में पिता के जीवित रहते मूंछ मुंडवाना पाप समझा जाता था। लेकिन आज पिता के साथ साथ मूंछ के भी बुरे दिन आ गये हैं। बुरा हो इन फिल्मी सितारों का जो खुद को चिकने चुपड़े दिखाने के लिए दाढ़ी के साथ मूंछ के अस्तित्व पर संकट खड़ा कर रहे हैं। महादेवी वर्मा ‘मैं नीर भरी दुःख की बदली, कल उमड़ी थी मिट आज चली’ लिखकर अमर हो गई लेकिन वे कहां जानती थी कि यह भाव केवल स्त्री पर ही नहीं बल्कि हर स्त्रीलिंग यानी दाढ़ी पर भी लागू होगा।
वाह री मूंछ तेरी किस्मत भी अजीब है। अगर समय पर न आये तो लोग परेशान हो उठते है। कोई डाक्टर तो कोई वैद्य हकीम के पास जाता है तो कोई हाथी दांत रगड़ता है। कोई बिना मतलब सुबह शाम ब्लैड़ रगड़ने लगता है। दोस्तों के बीच हंसी न उड़े इसके लिए मन्नत मांगने से लाख उपाय करने तक जो भी संभव होता है, करते हैं। लेकिन जिसकी मूंछ समय पर आ जाती है वह उसे इस तरह छुपाने लगता है मानों मूंछ न हुई काला धन हो गया। जिसे छिपाना या ठिकाने लगाना जरूरी है।
भ्रष्ट्राचार का प्रतीक होकर आज मूंछ मुसीबत है। इसीलिए तो हर नेता और अफसर ईमानदार दिखने के लिए मूंछ मुंडवाकर अपनी मात्र सात पीढ़ियों का इंतजाम करता है तो स्विस बैंक में नामी- बेनामी खाता खोलने की जुगत भिड़ाता है। मोक्ष के लिए मूछ की कुर्बानी देना स्टेटस सिंबल बन गया है।
ओह वो भी क्या जमाना था जब मूंछ को शान या मर्दानगी की निशानी माना जाता था। लोग मूंछों का बहुत ध्यान रखते। मूंछो पर ताव देना शान थी। किसी की ‘मूंछ का बाल होना’ भी बड़ी बात थी। एक मित्र अपने सिर के बाल सफेद रखते लेकिन मूंछे काली करना नहीं भूलते थे। पूछने पर कहते, ‘मूंछे सिर के बालों में पन्द्रह बरस छोटी है इसलिए उनका सिर के बालों से जवान होना जरूरी है।’
मूंछ विमर्श के दौरान घसीटा राम जी लगातार अपनी मूंछों को ताव दे रहे थे इसलिए मैं बेचारा डर कर बार-बार उनके लिए चारे मेरा मतलब चाय बिस्कुट का प्रबंध करता रहा। आवेश में रहने वाले घसीटाराम जी अचानक मौन हो कर जब घंटों मूर्तिवत हो शून्य में ताकते रहे तो मुझे चिंता हुई कि कहीं ऐसा न हो कि गुरुवर मेरी मूंछ उखड़वाने का इंतजाम कर जाये। मैंने इससे उन्हें कभी तनाव नहीं देखा था इसलिए अपनी संभावित की दशा पर विचार करते हुए मैं भी तनाव आ गया।
इसी बीच अचानक उनकी तन्द्रा टूटी और वे चिल्लाये, ‘हमारा बेटा मूंछ बिना घोटाला नहीं कर सकता लेकिन बिना मूंछ करोड़ों कमा जरूर सकता है। लेकिन, लेकिन ये मोडिया बिना मूंछ बिना कमाये करोड़ों की सम्पति बनाने के फार्मूले को पेटेंट करवाने में सहयोग करने की बजाय हमरे लाल की कुर्सी सरकाने में लगा है।
‘अरे कोई है ऐसा जो फौरन इस नायाब फार्मूले को पेटेंट करवाने में हमारा समर्थन करेे। कहीं ऐसा न हो कि हमारी इस खोज का श्रेय कोई दूसरा ले उड़े!’- - विनोद बब्बर संपर्क- 09868211911, 7892170 421
rashtrakinkar@gmail.com
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भ्रष्टाचारी मूंछ (व्यंग्य) BHrastachar v/s Munchhe
Reviewed by rashtra kinkar
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