वर्तमान में महाभारत की प्रासंगिकता Mahabharata and our time
महाभारत के विषय में कहा जाता है कि ‘जो यहाँ (महाभारत में) है वह आपको संसार में कहीं न कहीं अवश्य मिल जायेगा। और जो यहाँ नहीं है वो संसार में आपको अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा।’ लेकिन इसके बावजूद अनेक लोगों का मत है कि इतने वर्षों बाद महाभारत की प्रासंगिकता पर चर्चा करने की आखिर जरूरत ही क्या है? ऐसे लोग ठीक हैं या गलत इसकी चर्चा बाद में पहले यह देखे कि महाभारत कब हुआ था। इसको लेकर अनेक मत है। अनेक लोग इसे आज से 5500 वर्ष पूर्व की घटना बताते है। अब जो लोग पांच हजार साल पुराने ग्रन्थ की प्रासंगिकता को व्यर्थ बताते हैं उन्हें बताना पड़ता है कि सूर्य, पृथ्वी, चन्द्रमा तो लाखों वर्ष पुराने हैं। क्या आज इनकी प्रासंगिकता समाप्त हो गई है? नहीं, हर्गिज नहीं। तब महाभारत की वर्तमान में प्रासंगिकता की चर्चा भी महत्वपूर्ण है और सदा रहेगी।
महाभारत हमारा साहित्य (महाकाव्य) है, इतिहास है और हमारा अध्यात्म है। न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र है। जो अपने समय का शाश्वत सत्य भी हैं। एक ऐसे युद्ध की कथा और व्यथा है, जो हमें न केवल बाहरी बल्कि भीतरी शत्रुओं से सावधान करता है। भीतरी का अर्थ भी व्यापक है। घर, परिवार, कुटम्ब, समाज, देश ही नहीं, अपने मन-मस्तिष्क के भीतर चल रहे नकारात्मक विचार भी उसमें शामिल है। यथा अर्जुन का विषाद योग।
विश्वास न हो तो उठाकर देख लो, इसमें राग-द्वेष है, श्रृंगार है, रतिप्रसंग हैं, वात्सल्य है, द्वेष है, ईर्ष्या है, कामना है, तृष्णा है, क्रोध है, उत्साह है, भय, जुगुप्सा और शोक सब कुछ है। अर्थात् वे सारे भाव आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने सहस्रों वर्ष पूर्व थे। जिस प्रकार प्रकृति के नियम नहीं बदले, आधुनिक होकर भी मानवीय प्रवृत्तियां नहीं बदली उसी प्रकार महाभारत की प्रसंगिकता भी बरकरार है। परिस्थितियों और परिवेश में बहुत बदलाव के बावजूद महाभारत के अनेक प्रसंग वर्तमान में भी समान रूप से प्रासंगिक हैं।
महाभारत की प्रासंगिकता धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र के सुदर्शन व्यक्तित्व, गीताकार योगीराज भगवान कृष्ण उर्फ रणछोड जी से ही हैं। सर्वप्रथम उन्हें प्रणाम करते हुए उनके चरित्र और व्यवहार से कुछ सीखने का प्रयास करें। श्रीकृष्ण के लिए जनहित महत्वपूर्ण है। शिशुपाल के हमलो से जनता को बचाने के लिए वे ब्रज से द्वारका चले जाते है। अनावश्यक विवादों को टालना उनसे सीखा जा सकता है। आज भी ऐसा करके हम अपने समाज को विवादो से बचा सकते हैं।
महाभारत के बारे में सबसे बड़ी गलत धारणा यह है कि यह हिंसा का समर्थन करती है। वास्तविकता यह है कि महाभारत की हिंसा और अहिंसा, दोनों ही मानवता के लिए सदा ही प्रासंगिक रहेंगी। अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव चः स अर्थात् यदि अहिंसा परम् धर्म है, तो धर्म के लिए हिंसा भी उचित है। वर्तमान में दुनिया भर के कानून भी आत्मरक्षा में हिंसा को उचित मानते है। यदि महाभारत हिंसा है तो फिर समाज में शांति स्थापित करने के लिए आज की पुलिस क्या करती है? दुष्टों अपराधियों को दण्ड। यही बात श्रीकृष्ण कहते हैं- परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापना र्थाय सम्भवामि युगे युगे।
महाभारत इसलिए भी हुआ क्योंकि शांति के सभी प्रयास असफल रहे। यहां तक कि पांडव केवल 5 गांव लेकर समझौते के लिए तैयार थे। लेकिन कहा गया, ‘सुई के नोक के बराबर भी जगह नहीं देंगे।’ आज भी स्थिति कहां बदली है। कल तक सारा कश्मीर जिनका था आज उन्हीं कश्मीरी पंडितों के लिए एक बस्ती बसाने की बात आती है तो उसी तरह से नकारा जाता है- एक इंच भी जगह नहीं देंगे। किसे नहीं मालूम कि मुगलकाल से लेकर आजतक हजारों हिन्दू मंदिर तोड़े, गये। जिन्हें विश्वास नहीं वे दिल्ली में महरोली में कुतुबमीनर के पास बनी मस्जिद के बाहर लगा शिलालेख पढ़ लें जिसपर उसके हजारो हिंदू और जैन मंदिरों को तोड़कर उनकी सामग्री से बने होने की बात लिखी है। ऐसे एक नहीं हजारो अन्य प्रमाण भी है। लेकिन समय की सूई उल्टी नहीं घूम सकती। इसीलिए उनसे कहा गया, ‘ सब रखो- केवल तीन मथुरा, कांशी अयोध्या के मंदिर लौटा दो।’ लेकिन आज भी जवाब वहीं है।
महाभारत के शान्तिपर्व के राजधर्म की बहुत विस्तृत चर्चा है। लेकिन कैम्ब्रिज में पढ़े हमारे प्रथम प्रधानमंत्री जी महाभारत नहीं पढ़ा था। जो हमें चेताता है, ‘जब छल का धृतराष्ट्र बाहे फैलये तो आप भी पुतला आगे बढ़ाओं।’ हमारा नेता ‘हिन्दी चीनी भाई-भाई’ के छल को नहीं समझ सका और हजारो वर्ग किमी क्षेत्र गवां दिया। क्या आप अब भी कहोगे महाभारत की प्रासंगिकता की चर्चा की जरूरत नहीं है?
महाभारत में द्रोपदी का चीरहरण हुआ। लेकिन आज भी मेरे राष्ट्र की अस्मिता को तार-तार करने की कोशिश की जा रही है। कल द्रोपदी थी, आज भी बहने-बेटियों के साथ बाप-भाई की मौजूदगी में हाईवे पर गैंगरेप होते हैं तो कैसे कहे महाभारत प्रासंगिक नहीं है?
महाभारत में चक्राव्यूह में अभिमन्यू घिरा था। आज हर विवेकशील, हर देशभक्त, हर संस्कृतिप्रेमी सांस्कृतिक प्रदूषण के चक्राव्यूह में फंसा है।
महाभारत में द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वथामा को दूध मांगने पर आटा घोल कर दिया जाता था। लेकिन आज तो असली दूध के बदले आटे का घोल नहीं सन्थेटिक दूध पीना पड़ रहा है मेरे देश के बच्चों को।
महाभारत का भारतीय जन जीवन पर स्थायी प्रभाव है। तो भारत में उत्पन्न हुए धर्मों पर भी इसका प्रभाव देखा जा सकता है।
जैन और बौद्ध अहिंसा के पक्षधर है जिसकी मौलिक अवधारणा महाभारत में है। अहिंसा परमो धर्मा वाला श्लोक (वनपर्व 207/4 सहित) अनेक बार है।
सिक्ख धर्म की बात करें तो गीता के तीसरे अध्याय के 35वे श्लोक में कहा गया है-स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्माे भयावहः।। अर्थात् अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देनेवाला है। ठीक यही बात केवल अपने शब्दों में नहीं बल्कि अपने आचरण के माध्यम से शहीद शिरोमणि गुरु तेग बहादुर जी महाराज ने पूरे विश्व को सिखाई जब उन्होंने दिल्ली के चांदनी चौक में अपना शीश देना स्वीकार किया लेकिन अपना धर्म नहीं छोड़ा।
आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने नियोग की चर्चा की है। यह महाभारत में विद्यमान है। यथा अंबिका और अंबालिका (पाण्डु, धृतराष्ट्र, विदूर ही नहीं) कुुंती (पाण्डव) पुत्र भी। आज स्पर्म डोनर की कल्पना भी उसी का परिवर्तित रूप है।
‘गीता’ महाभारत का ही एक अंश है। गीता का अनुवाद विश्व की अधिकांश भाषाओं में हो चुका है। विश्व के अनेक विद्वानों ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए इसे श्रेष्ठ ग्रन्थ बताया है। यहां तक कि विज्ञान का एक नियम- ‘ऊर्जा न तो जन्म लेती है, न नष्ट होती है। एनर्जी कैन नेवर बी क्रिटेड नोर बी डिस्ट्रोड’ गीता के श्लोक ‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चौनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।। वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।’ का ही प्रतिरूप है।
महाभारत घृणा, वैर, प्रतिशोध को अस्वीकार करता है। युधिष्ठिर ने राजा बनने के बाद पिछली समस्त बातों को भुलाते हुए अपने ताऊ धृतराष्ट्र और ताई गांधारी को महलों में सुखपूर्वक रखा। जब वे स्वेच्छा से वानप्रस्थ पर गये तो माता कुंती भी उनके साथ गई। महाभारत संयुक्त परिवार का पोषक है।
महाभारत काल से आज तक बहुत कुछ समान है। यथा तब ंधृतराष्ट्र पुत्र के मोह में पापलिप्त थे तो हमारे आज के अनेक नेता भी भ्रष्ट हैं। धृतराष्ट्र अंधा थे हमारे आज के नेता भी अपने पुत्रों, प्रियजनों के मोह में अंधे है।
गुरु द्रोणाचार्य के आदेश पर पांडवों ने द्रुपद से युद्ध तो किया लेकिन उसकी सेना को नुकसान नही पहुंचाया। केवल द्रुपद को बंदी बनाकर गुरु को सौंप दिया। 1971 में हमने पाकिस्तान के 90हजार सैनिकों ने हमारी सेना के समक्ष आत्मसमर्पण किया लेकिन हमने उन्हें कोई क्षति पहुंचाये बिना रिहा कर दिया।
तब शकुनि जैसे लोग थे जो पांडवों के विरूद्ध दुर्योधन को भड़काते थे तो आज भी ट्रैनिंग कैम्प लगाकर युवकांे को देशद्रोह के लिए भड़काने वाले शकुनि के ही वंशज पाकिस्तान में जीवित है।
इन्द्रप्रस्थ बसाने के लिए खांडवप्रस्थ साफ किया गया। तब तक्षक को इन्द्र ने मदद की। लेकिन वहीं तक्षक बाद में पांडव पौत्र परीक्षित का काल बना। यह सत्य है कि अर्जुन, अभिमन्यु, परीक्षित ने उसे नहीं छेड़ा परंतु परीक्षित पुत्र जनमेजय ने उनका समूल नष्ट किया था। आज नेतृत्व की चौथी पीढ़ी है यानि वहीं परिदृश्य है।
गीता के 18वें अध्याय श्लोक 66 में श्रीकृष्ण उद्घोष करते है- ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।’ आज की जरूरत भी यही है सब धर्मो में राष्ट्र धर्म सर्वोपरि है। भारत है तो हम है। भारतीयता है। अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक नहीं केवल भारतीय। सब भारतीय। न बड़ा, न छोटा। सबका प्रथम कर्तव्य भारत की प्रतिष्ठा को बढ़ाना।
महाभारत में शल्य अपना लेकिन भटका हुआ था। आज भी अनेक अपने ही भारतीयता के विरोध में मुखर हैं। ईश्वर से प्रार्थना कि उन भटके हुओं को सद्बुद्धि दे ताकि वे भी भटकने के बावजूद शल्य की तरह मुख्यधारा का वातावरण बनाने में अपनी ऊर्जा लगायें।
महाभारत का योद्धा, नायक, महानायक श्रीकृष्ण के अतिरिक्त अर्जुन ही था लेकिन जब राजा बनने का सवाल आया तो वह स्वयं नहीं बल्कि युधिष्ठिर को राजपाट सौंपा। कारण वे सबसे बड़े ही नहीं सबसे सौम्य, विनम्र भी थे। इस देश में कभी चाणक्य ने नंदवंश को समाप्त कर स्वयं नहीं चन्द्रगुप्त मौर्य को राज सौपा था। वर्तमान में भी 2 सीटों वाली पार्टी को बहुमत के करीब लाने वाले ने इसी ‘अटल’ परम्परा का पालन करते हुए सत्ता सर्वस्वीकार्य को सौंपी।
महाभारत महानायक श्रीकृष्ण ने कंस का वध किया। लेकिन उसका राजपाट अपने पिता या भाई को नहीं उसी के परिजनों को सौंपा। यह श्रीराम की उसी परम्परा का विस्तार था जहां रावण का राजपाट उसी के भाई विभीषण को सौंपा। सामर्थ्य होते हुए भी सत्ता का मोह न रखने का गुण आज भी कुछ संगठनों और लोगों में मुंबई से नागपुर तक देखा गया है। नाम सब जानते ही है।
हाँ, यह यह याद रखा जरूरी है कि महाभारत के शांतिपर्व में पितामह भीष्म युधिष्ठिर को कहते हैं, ‘कोई भी मूल्य चुकाकर शांति मिले तो युद्ध से बचना चाहिए। लेकिन यदि राष्ट्र की अस्मिता का प्रश्न हो तो हजार युद्ध भी स्वीकार करने चाहिए। यहां यह भी विशेष उल्लेखनीय है कि पितामह भीष्म अनुशासन पर्व में कहते हैं, ‘भूमि के समान कोई दान नहीं, माता के समान कोई गुरू नहीं, सत्य के समान कोई धर्म नहीं और दान के समान कोई पुण्य नहीं है।‘
संक्षेप में कहे तो महाभारत हमें समर्थ और शक्तिशाली बन कर धर्मपूर्वक जीवन जीने की कला सिखाता है। ( ‘आज समाज और महाभारत’ विषय पर आयोजित सेमिनार में डा. विनोद बब्बर के व्याख्यान के कुछ अंश)
वर्तमान में महाभारत की प्रासंगिकता Mahabharata and our time
Reviewed by rashtra kinkar
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