अंधविश्वास का व्यापार


अंधविश्वास का व्यापार विश्वास मानवता का आधार है। विश्वास ने ही परिवार, समाज और फिर राष्ट्रों की नींव रखी। मानव जीवन को सुखद- सुरक्षित बनाने की दिशा में अपनी यात्रा आरंभ करने वाला विश्वास ही था। सच कहें तो आदिमानव से आज के हाईटैक मनुष्य तक की यात्रा विश्वास का विस्तार है। दूसरी ओर विश्वास का पने मार्ग से भटक कर अंध मार्ग पर अग्रसर होना अंधविश्वास है। आश्चर्य है कि अज्ञानता से अत्पन्न अंधविश्वास तथाकथित आधुनिक और पढ़े-लिखे लोगों तक भी फल-फूल रहा है तभी तो आज भी जिंदा हैं जनता की धार्मिक भावनाओं का दोहन करते हजारों दूरदर्शनी बाबा, टोना, टोटका, बलि और न जाने क्या-क्या। आदि मानव अनेक क्रियाओं और घटनाओं के कारणों को नहीं जानता था, इसलिए वह इनके पीछे कोई अदृश्य शक्ति का अनुमान लगाता था। उसके लिए वर्षा, बिजली, रोग, भूकंप, वज्रपात, विपत्ति आदि अज्ञात तथा अज्ञेय देव, भूत, प्रेत और पिशाचों के प्रकोप के परिणाम थे। समय बदला, मानवीय गतिविधियों का विस्तार हुआ तो अंधविश्वास भी अपने पांव फैलते गये। इसे केवल भारत तक ही सीमित नहीं किया जा सकता क्योंकि अंधविश्वास सार्वदेशिक और सार्वकालिक हैं। डायन के विषय में इंग्लैंड और यूरोप में 17वीं शताब्दी से कानून बने हुए हैं। जादू, टोना, शकुन, मुहूर्त, मणि, ताबीज आदि अंधविश्वास की संतति हैं। बेशक इन सबके पीछे कुछ धार्मिक भाव हैं, परंतु इन्हें तर्कशून्य विश्वास ही कहा जा सकता है। कृषि रक्षा, दुर्गरक्षा, रोग निवारण, संततिलाभ, शत्रु विनाश, आयु वृद्धि, सत्ताप्राप्ति आदि के हेतु अनुष्ठान, जादू-टोना, मुहूर्त और मणि का प्रयोग आज भी किसी न किसी रूप में आज भी प्रचलित है। पिछले दिनों हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार ने आरोप लगाया है कि कुछ नेता चुनावी बेला के दिनों में तांत्रिकों और चमत्कारी बाबाओं के पास जाकर विशेष पूजा अर्चना करते हैं। कुछ नेता तो तंत्र-मंत्र के लिए रात में श्मशानघाटों में भी पूजा-अर्चना भी करवा रहे हैं। ऐसे में जनता में अंधविश्वास बढ़ रहा है। शांता कुमार के अनुसार कई वर्षांे से इस देश को कुछ भ्रष्ट अधिकारी और नेता लूट रहे हैं। भारत के कई लाख करोड़ रुपए विदेशी बैंकों में जमा हैं। नेताओं की देखा-देखी में लोग सब कुछ प्राप्त करने की चाहत में बाबाओं के चमत्कारों में फंसते जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि राजनीति में भी महत्वाकांक्षा पागलपन के स्तर पर पहुँच गई है। शांता कुमार गलत नहीं हैं क्योंकि अनेक टीवी चैनल चमत्कार, ताबीज और पता नहीं क्या कुछ दिखा रह हैं। अजीबोगरीब उपायों के बूते लोगों की समस्याएं हल करने का दावा करने वाले निर्मल बाबा खुद मुसीबत में हैं। बेशुमार दौलत होने का खुलासा होने के बाद देशभर में उनके खिलाफ गुस्सा दिखने लगा है। देश में निर्मल बाबा की तरह कई छोटे-बड़े चमत्कारी बाबा पैदा हो गए हैं। इससे भारतीय मानसिकता दूषित हो रही है। धर्म का अवमूल्यन हो रहा है और दुखी और भोले-भाले लोग प्रति दिन लुटते जा रहे हैं। अब समय आ गया है कि सरकार को इस दिशा में कोई सार्थक कदम उठाकर धर्म व चमत्कार के नाम पर प्रतिदिन बढ़ता पाखंड समाप्त करना होगा। यदि आवश्यक हो तो उपयुक्त कानून बनाया जाना चाहिए। ऐसे पाखंड से इकट्ठा किया गया धन जब्त करके देश के विकास में लगाया जाना चाहिए। आज देश का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहाँ ओझा-गुनी और तांत्रिक भूत-प्रेत भगाने के नाम पर अपना रोजगार चला रहे हों। समाज में फैले अंधविश्वास की पैठ और गहरी होती जा रही है। भोले-भाले ग्रामीणों को जब किसी प्रकार की बीमारी होती है तो इन्ही लोगों के पास अपना इलाज कराने के लिए जाते हैं। वे डॉक्टर को फीस देने के बजाय ओझा और तांत्रिक को मांस, शराब, पैसा और कपड़ा देना ज्यादा ठीक समझते करते हैं। देश के अनेक स्थानों पर तो विशाल मेले लगाकर भूत-प्रेत भगाने का स्वांग रचा जाता है। महिलाओं का यौन शोषण किया जाता है। धर्म-भीरू लोगों से खूब धन ऐंठा जाता हैं। ऐसे में समाज से अंधविश्वास को समाप्त कर पाना आसान नहीं जहाँ कभी पपीतें में गणेशजी की आकृति को चमत्कार कहकर तो कभी चार हाथोंवाले बच्चे के जन्म पर भक्तांे द्वारा चढावें से ही लखपति होने के अनेक उदाहरण सामने आते हैं। जहाँ तक पुरानी परम्पराओं को अंधविश्वास कह कर तिरस्कृत करने का प्रश्न है, यह दुनिया विविधताओं से भरी है। यहां फूल हैं तो कांटे भी, प्रेम है तो घृणा भी, मिठास है तो कडुवाहट भी, गर्मी है तो सर्दी भी, आग है तो पानी भी। कभी कभी कोशिश का और उल्टा परिणाम निकलता है। हम फूलों के सुगंध का मजा लेते हैं तो कांटे को भी बाड़ लगाने में इस्तेमाल करते हैं। फल के मिठास का आनंद लेते है तो कडुवाहट को औषधि के रूप में उपयोग करते है। हमारे ऋषि मुनिं जानते थे कि अंधविश्वास को दूर करना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है इसलिए उन्होंनेे इसी अंधविश्वास को एक नये ढंग प्रस्तुत किया। स्वर्ग और नरक के नाम पर जनता को अच्छे कामों की ओर प्रवृत्त करने की कोशिश की। चेचक के होने पर रोगी के लिए जो आवश्यवक सावधानी बरतनी थी , उसे धर्म का नाम देकर करवाया। भले ही हम इस कोण से न सोंच पाएं , पर किसी मरीज के मनोवैज्ञानिक चिकित्सा के लिए जड़ी बूटियों की धूनी, नीम के पत्तों से झाडे की वैज्ञानिक पद्धति का सहारा लिया था। बरसात के तुरंत बाद साफ सफाई के लिए कई त्यौहारों की परंपरा शुरू की गई। उनके द्वारा सभ्य जीवन जीने के लिए आवश्यक सभी जरूरतों की पूर्ति के लिए सामाजिक नियम बनाए गए। बरगद, पीपल, जैसे महत्वपपूर्ण पेडों की सुरक्षा के लिए इन्हें धर्म से जोड दिया गया। सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण जैसे सुंदर प्राकृतिक नजारे को दिखाने के लिए उन्हें गांव के किनारे नदियों या तालाबों में ले जाया जाता रहा। ग्रहण के तुरंत बाद उतनी एकत्रित भीडों तक के अंधविश्वास का उन्होंने भरपूर उपयोग किया। उनके द्वारा नदियों, तालाबों की गहराइयों में जाकर एक एक मुट्ठी मिटृटी निकलवाकर नदियों तालाबों की गहराई को बढाया जाता रहा। यदि धर्म के नाम पर स्वार्थ से दूर होकर सर्वजनहिताय जनता के अंधविश्वास का कोई उपयोग ही किया गया, तो उसें गलत नहीं कहा जा सकता परंतु आज अंधविश्वास का उपयोग स्वार्थ के लिए किया जा रहा है। अंधविश्वास के नाम पर छत्तीसगढ महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, मध्य-प्रदेश, असम, गुजरात, झारखंड, बिहार आदि राज्यों में डायन घोषित कर महिला को मार डालना आम बात हो गई है। ऐसे अंधविश्वास अवैज्ञानिक ही नहीं अवैधानिक, असामाजिक, अमानवीय अपराधों के कारण भी हैं। इनकी आड़ में अपराध हो रहे हैं। अतः इन परिस्थितियों के निपटने और अंधविश्वास के समूल निवारण हेतु सचेत एवं तत्पर कानूनी कार्यवाही के साथ-साथ एक सामाजिक अभियान भी आवश्यक है क्योंकि अंधविश्वास सामाजिक कैंसर है। तंत्र-मंत्र की आड़ में आपराधिक षडयंत्र में जुड़ा नेटवर्क बहुत सक्रिय है।ं फँसने वाले को होश तब आता है जब ये अपना सब कुछ गवाँ बैठता हैं। अंधविश्वास की जड़े हमारे समाज में कितनी मजबूत है इस पर कभी साहित्यकार श्री हज़ारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा था कि भारत में सामाजिक क्रांति न होने के तीन प्रमुख कारण हैं। पहला अंधविश्वास, दूसरा, पुनर्जन्म की धारणा और तीसरा कर्मफल का सिद्धांत। हमारी समूची चेतना इन तीन सिद्धांतों से परिचालित रही है। अंधविश्वास के कारण ही रूढ़ियों ने जन्म लिया। साहित्य एवं कलारूपों में रूढ़ियाँ और सामाजिक जीवन में रूढ़ियाँ अंधविश्वास की ही देन हैं। इस बुराई के प्रचार-प्रसार में चमत्कारवर्णन और दंतकथाओं का सहारा लिया जाता है। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के शब्दों में, ‘मानव जीवन में जहाँ अभाव है, वहीं उपकरण जमा होते हैं। ... इस अभाव और उपकरण के पक्ष र्में ईष्या है, द्वेष है, वहाँ दीवार है, पहरेदार है, वहाँ व्यक्ति अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है और दूसरों पर आघात करना चाहता है।’ कौटिल्य (चाणक्य) का अंधविश्वास में विश्वास नहीं था किंतु उन्होंने राज्य के कौशल के तौर पर अर्थशास्त्र में अंधविश्वास की चर्चा की है। वे सुझाव देते हैं कि राज्य को अपनी आंतरिक और बाह्य स्थितियों को सुदृढ़ करने के लिए सामान्य लोगों की अंधमान्यताओं का लाभ उठाना चाहिए। कौटिल्य अर्थशास्त्र में अनेक ऐसे सुझाव देते हैं जो अंधविश्वासों पर आधारित हैं। संयोग से जिन उपायों को सुझाया गया है वे थोड़े फेरबदल के साथ अब भी लागू किए जाते हैं। अंधविश्वास का जबाव तर्क नहीं विज्ञान है। तके के कारण बौद्धिक अधकचरापन पैदा होता है। यह भी सत्य है कि वैसे तो विश्वास और अंधविश्वास को परिभाषित करना आसान नहीं है। परन्तु विश्वास शक्ति है तो अंधविश्वास पांव की बेड़ी। किसी विश्वास के सहारे कठिन से कठिन परिस्थिति से भी बाहर आया जा सकता है। परंतु अंधविश्वास आगे बढ़ने की गति को अवरूद्ध कर देता है। दुर्भाग्य की बात यह है कि हम इस बारीक भेद को समझ नहीं पाते हैं। योग, आध्यात्म और पूजा-पाठ को भी अंधविश्वास का नाम दे दिया जाता हैं। जब हमारे बुजुर्गाे ने कहा कि ग्रहण के समय बाहर मत निकलो, आपको नुकसान हो सकता है, यही बात जब वैज्ञानिकों ने कही तो हमने स्वयं को वैज्ञानिक सोच वाला घोषित करते हुए ग्रहण के समय बाहर न निकलने का तर्क देना शुरू कर दिया। इसी प्रकार से गर्भवती को ग्रहण के समय बाहर न निकलने का परामर्श भी दकियानूसी नहीं वैज्ञानिक सिद्ध हो चुका है। वैसे हर युग के अपने अंधविश्वास होते हैं। अंधविश्वास का भी फैशन होता है। पुराने अंधविश्वास से छूटते ही हम नए पकड़ लेते हैं। यह लोक धारणा रही है, जो आदमी तिलक लगाता है वह धार्मिक है। और जो नहीं लगाता था, वह अधार्मिक। यह पुराना अंधविश्वास है, आज का नया अंधविश्वास है जो आदमी टाई बाँधता है, वह आधुनिक और प्रतिष्ठित आदमी है। और नहीं बाँधता है तो समझते हैं पिछड़ा हुआ है। जो अपने धर्म और संस्कृति को दीन- हीन कहे वह आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष और जो अपने पूर्वजों के सर्वसिद्ध ज्ञान और अनुभव का आदर करे वह साम्प्रदायिक। ऐसे विश्वास भी अंधविश्वास से ज्यादा खतरनाक हैं। इन पर भी चिंतन की आवश्यकता है।
अंधविश्वास का व्यापार अंधविश्वास का व्यापार Reviewed by rashtra kinkar on 21:35 Rating: 5

1 comment

  1. बहुत ही सुंदर लिखा है आपने। इसे सभी को पढ़ना चाहिये।

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