पानी के बाद बोतलबंद हवा की तैयारी

प्राचीन भारतीय वाङ्मय- वैदिक -साहित्य ,पुराणों, धर्मशास्त्रों, रामायण, महाभारत, संस्कृत-साहित्य के अन्यान्य ग्रन्थों, पालि-प्राकृत साहित्य आदि में पुरातन भारत की अरण्य -संस्कृति के मनोहर स्वरूप का साक्षात्कार होता है। वेदों में पर्यावरण को अनेक तरह से बताया गया है, जैसे- जल, वायु, ध्वनि, वर्षा, खाद्य, मिट्टी, वनस्पति, वनसंपदा, पशु-पक्षी आदि। जीवित प्राणी के लिए वायु अत्यंत आवश्यक है। प्राणी जगत के लिए संपूर्ण पृथ्वी के चारों ओर वायु का सागर फैला हुआ है। कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में अनेक रमणीय उद्यानों का संकेत मिलता है। ‘अग्निपुराण’ में कहा गया है कि जो मनुष्य एक भी वृक्ष की स्थापना करता है, वह तीस हज़ार इन्द्रों के काल तक स्वर्ग में बसता है। जितने ही वृक्षों का रोपण करता है, अपने पहले और पीछे की उतनी ही पीढ़ियों को वह तार देता है । ‘मत्स्यपुराण’ में वृक्ष-महिमा के प्रसंग में यहाँ तक कहा गया है कि दस कुओं के समान एक बावड़ी, दस बावड़ियों के समान एक तालाब, दस तालाबों के समान एक पुत्र का महत्त्व है, जबकि दस पुत्रों के समान महत्त्व एक वृक्ष का अकेले है। गौतम बुद्ध के ज्ञान का साक्षी बोधिवृक्ष रहा है तो विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘गीता’ में श्री कृष्ण अपना विराट स्वरूप का दर्शन कराते हुए कहते हैं, ‘अश्वत्थः सर्ववृक्षाणाम्’ अर्थात् हे अर्जुन! मैं वृक्षों में पीपल हूँ।
दूसरी ओर भोगवादी संस्कृति में पर्यावरण के नाम पर केवल घड़ियाली आंसू बहाए जाते हैं। योजनाएं बनती हैं, पर योजना को बनाने वाले विकसित देश ही अपने स्वार्थ के कारण इसे क्रियान्वित नहीं होने देते। इस संदर्भ में ‘सहस्राब्दी परिस्थितिकीय आकलन’ की रिपोर्ट चौंकाने वाली है। 15 देशों के 1360 पर्यावरण वैज्ञानिकों द्वारा तैयार किए गए ढाई हजार दस्तावेजों के अनुसार प्रकृति कभी भी किसी भी रूप में अपना रौद्र रूप प्रकट कर सकती है। तब महाविनाश के अतिरिक्त कुछ शेष नहीं बचेगा। सभी को सावधान करते हुए इस दस्तावेज में कहा गया है कि आने वाली पीढ़ियांे को अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि हमने विकास के नाम पर धरती के हर तरफ विनाश ही विनाश किया है। नदी-नाले, पहाड़-पर्वत, जंगल- झुरमुट, सागर-महासागर, रेगिस्तान और यहां तक कि वीरान ध्रुव प्रदेश को भी हमने नहीं छोड़ा है। जीवन को संचालित करने वाले लगभग दो-तिहाई प्राकृतिक घटक धरती पर छिन्न-भिन्न हो चुके हैं। प्रकृति का कण-कण जल, वायु और जीवन के लिए जरूरी पोषक तत्व प्रदान करने वाला पारिस्थितिकी तंत्र बेहाल और बर्बादी के कगार पर खड़ा हुआ है। धरती की कुल 24 पारिस्थितिकी प्रणालियों में से 15 पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुकी हैं। इससे पर्यावरण में बेहद असंतुलन आ चुका है। और यही कारण है कि बरसात के मौसम में बारिश नहीं होती है, गरमी में बरफ पड़ती है, ठंड में लू चलती हैं। प्रकृति और पर्यावरण की आंख मिचौनी का यह दृश्य निरंतर भयावह हो रहा है।
बेशक प्रदूषण वैश्विक समस्या है। लेकिन हम दूसरो के भरोसे हाथ पर हाथ रखे बैठे नहीं रह सकते। बढ़ती हुई जनसंख्या की जरूरतें पूरी करनें के लिए तथा मौज मस्ती के लिए मानव ने विकास के नाम पर पर्यावरण का जितना शोषण एवं विनाश किया, उतना संभव है मानव की विकास यात्रा में पहली बार हुआ है। कभी पर्यावरण हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग हुआ करता था। कभी वातावरण की सुरम्यता हमारे एवं जीवों तथा वृक्ष-वनस्पतियों के बीच संवेदना के गहरे रिश्तों से जुड़ती थी। प्रकृति को हम माता के रूप में सम्मान देते थे, तभी उसके आंगन में हम प्यार एवं प्राण दोनों पाते थे। मेघ अपने मर्यादित क्रम में बरसते थे। नदी की धारा में, हवाओं की सरसराहट में, पक्षियों के कलरव में हम विशेष आनंद अनुभव करते थे। आज हमारी भोगवादी संकीर्ण मानसिकता ने हमारे एवं प्रकृति के बीच सभी सूत्रों को विच्छिन्न कर दिया है। अतः जहाँे अमृत बरसता था, वहाँ आज आग बरस रही है, जो विकास का माध्यम था, आज विनाश का कारण बन रहा है। हर बच्चे को प्रथम दिन से ही इसके प्रति सजग करने से सार्वजनिक यातायात को बेहतर बनाने तथा जनसंख्या नियंत्रण केे बिना किसी भी तरह के फार्मूले आत्मप्रवंचना ही साबित होंगे। पर प्रश्न यह है कि क्या वोट बैंक और टकराव की राजनीति के इस दौर में यह संभव है? उत्तर सभी को मालूम है- नहीं, हर्गिज नहीं। सर्वसम्मति का तो दूर आमसहमति भी संभव नहीं है। कहने को सभी देशभक्त और जनता के हितचिंतक हैं लेकिन सबका विकास तो जब होगा तब होगा, फिलहाल प्रकृति प्रदत्त हवा-पानी भी जनता से छीना जा रहा है। सांस के रोगों के बाद केंसर बहुत तेजी से अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहा है। इस पर रोकथाम की चिंता भाषणों में जरूर दिखाई देती है परंतु जमीन पर कुछ दिखाई नहीं देता। नेता- अफसरशाह मस्त है या व्यस्त है परंतु आमजन परस्त है। विवश है। उसपर भी हमारी विवशता की कीमत पर व्यापार की तैयारी हो रही है और हम टुकर-टुकर देख रहे हैं या फिर अपने कर्णधारों की जय -जयकार कर रहे हैं। अपने नेताओं के जिन्दाबाद के नारों से आसमान गूंजा देने वालों के लिए जिन्दा रहना मुश्किल हो रहा है। पर्यावरण चिंतन हम सभी की आवाज है जो गैरजिम्मेवार और आत्मकेन्द्रित टकराववादी नेता तक भी पहुंचनी चाहिए।
पर्यावरण का असंतुलित होना बेशक संसार के आस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा है लेकिन कुछ लोगों के लिए यह लाभ कमाने का सुनहरा अवसर भी है। इसकी बानगी है कनाडा की कंपनी ‘वाइटैलिटी एयर बैंफ एंड लेक‘ जिसने हरे-भरे पर्वत़ों और वनों की शुद्ध वायु को बोतलबंद पानी की तरह बेचने का धंधा शुरू किया है। ‘बैंफ एयर‘ और ‘लेक लुईस‘ नाम से दो प्रकार की हवाबंद बोतलें बाजार में उपलब्ध हैं। बैंफ एयर की तीन लीटर की बोतल की कीमत 20 डॉलर और लेक लुईस बोतल में 7.7 लीटर हवा की कीमत 32 डॉलर है। आश्चर्य की बात है कि अधिकतम प्रदूषण के जिम्मेवार मुट्ठी भर लोग स्वयं को सुधारने की बजाय इसकी तरफ लपक रहे हैं। अमेरिका और मध्य पूर्व के कई देशों के बाद चीन में भी लोग उपहार के तौर पर बोतलबंद हवा उपहार देने का प्रचलन शुरु हो चुका हैं। ऐसे में बोतलबंद हवा का यह धंधा शीघ्र ही भारत में भी चल निकले तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार विश्व के 20 प्रदूषित शहरों में 18 एशिया में हैं। इनमें भी 13 भारत में हैं। भारत में वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण प्रतिदिन बढ़ते वाहन और अनुशासनहीन यातायात है। केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड द्वारा किये गये 121शहरों में वायु प्रदूषण जांच के अनुसार देवास,को झिकोड एवं तिरूपति को छोड़ शेष सभी शहरों में हवा में घुलता जहर खतरनाक स्तर को लांघ रहा है।
यह समझना जरूरी है कि जिस प्रकार बोतलबंद पानी बेचने वालों के ‘सद्प्रयासों’ से जलस्त्रोतों को प्रदूषण मुक्त बनाने की कोशिशें सफल नहीं पाती, बहुत संभव है कि पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त बनाने की संभावनाएं भी हवा के व्यापारी ‘हवा’ कर देे। पर्यावरण संरक्षण, स्वच्छता तथा सबके बीच सौमनस्य बनाए रखने के लिए सदा सचेष्ट रहना हम सब भारतीयों की नित्य-प्रार्थना है। शांति पाठ केवल अपने परिवेश की ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण धरा, आकाश, सहित अंतरिक्ष के प्रति भी अपनी प्रतिबद्धता का उद्घोष है। आओं हम सब इसे आत्मसात करे- ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिर्वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि। अर्थात् द्युलोक (आकाश), अन्तरिक्ष, पृथ्वी - सब में शान्ति विराजे। सभी देवता, यानी प्राकृतिक शक्तियाँ शान्तिमय हों। सबकी अलग-अलग शान्ति एक महाशान्ति की रचना करे, जिससे हमारे जीवन में शान्ति- समृद्धि बनी रहे। ---विनोद बब्बर 09458514685, 09868211 911

पानी के बाद बोतलबंद हवा की तैयारी
Reviewed by rashtra kinkar
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