राजनीति और धर्म के अनैतिक गठबंधन पर चोट supreme court# religion # Caste # Election


वर्ष 2017 का शुभारम्भ उच्चतम न्यायालय की सात सदस्यीय संविधान पीठ के उस फैसले से हुआ है जिसने जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123 (3) पर बहुमत से दिये गये निर्णय में किसी भी  उम्मीदवार द्वारा अपने या अपने विरोधी उम्मीदवार के धर्म, जाति या भाषा की चर्चा और वोट मांगना अवैध करार दिया है। अगर कोई उम्मीदवार किसी धर्मगुरु को अपने पक्ष में धर्म, भाषा, जाति इत्यादि के आधार पर वोट मांगने के लिए सहमति देता है तो चुनाव आयोग उस पर कार्रवाई करते हुए  चुनाव को रद्द कर सकता है। 
निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश श्री टीएस ठाकुर ने स्पष्ट कहा है कि  ‘सरकार किसी भी धर्म के साथ विशेष व्यवहार नहीं कर सकती। न ही उसके साथ जुड़ सकती है। भगवान और मनुष्य के बीच संबंध व्यक्तिगत चुनाव है। धर्म के पालन की आजादी का राष्ट्र की धर्मनिरपेक्षता से कोई लेना-देना नहीं। न्यायमूर्ति ठाकुर के कार्यकाल के अंतिम लेकिन इस महत्वपूर्ण फैसले का आमतौर पर स्वागत किया जा रहा है। बेशक धमर्म और जाति भारतीय समाज की सच्चाई है लेकिन निहित स्वार्थी लोगों के कारण जाति, समुदाय तथा धर्म की राजनीति ने  हमारे देश और समाज को विभाजित कर बहुत अहित किया है। 1947 में देश को धर्म के आधार पर विभाजित करने में सफल रही मानसिकता ने उसके बाद भी  तुष्टिकरण और वोट बैंक की राजनीति के माध्यम से राष्ट्रीय एकता अखण्डता को गहरी क्षति पहुंचाई है। दुर्भाग्य की बात यह है कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भी धार्मिक भेदभाव जारी रहा। यदि चुनाव आयोग उच्चतम न्यायालय के इस ताजा निर्णय का पूरी जिम्मेवारी और निष्पक्षता से पालन करते हुए यह सुनिश्चित करें कि जो भी नेता अथवा दल इस आदेश या इसके किसी भाग का पालन नहीं करते, उनकी चुनावी मान्यता को अविलम्ब रद्द कर उन्हें इस दौड़ से बाहर कर  दिया जाना चाहिए। आसन्न विधानसभा चुनाव एक प्रकार से चुनाव आयोग भी बहुत बड़ी अग्नि परीक्षा है कि वह इस फैसले को किस रूप में पालन अथवा नजरअंदाज करता है। उसे यह भी ज्ञात है कि मुंबई नगर पालिका चुनाव प्रचार में गत दिवस एआईएमआईएम अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने कहा था कि यदि उनकी पार्टी एआईएमआईएम के 20-25 पार्षद चुनें तो 7,770 करोड़ रुपए मुस्लिम बहुल वार्डों पर खर्च किए जाएंगे। चुनाव आयोग को इस अथवा ऐसे मामले में स्वतः संज्ञान लेकर यह सिद्ध करना होगा कि उच्चतम न्यायालय के फैसले प्रति वह गंभीर है। यदि वह इसे लागू करा पाने से सफल हुआ तो यह न केवल सच्चा लोकतंत्र स्थापित करने में सफल होगा बल्कि राष्ट्र निर्माण की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा। 
इसमें कोई दो राय नहीं कि दिखावे के लिए सभी राजनैतिक दल जाति, धर्म, समुदाय आदि को अपनी राजनीति से दूर रहने के दावे करते हैं परंतु व्यवहारिक सत्य यह है कि लगभग सभी दल चुनाव से पूव्र ही हर निर्वाचन क्षेत्र के जाति और सामुदायिक समीकरण को ध्यान में रखते हुए ही टिकट  वितरण व रणनीति बनाते हैं। सिद्धांत और व्यवहार के इस अंतर पर उनका कहना है चूंकि दूसरे ऐसा करते हैं अतः वे भी विवश हैं और जीत के लिए जमीनी समीकरणों की उपेक्षा नहीं कर सकते। 
कानूनी विशेषज्ञों का मत है कि देश की सबसे बड़ी अदालत के  ताजा फैसले के बाद अब कोई पार्टी के लिए अपने घोषणापत्र अथवा भाषणों में मंदिर, मस्जिद बनवाने अथवा स्वयं को किसी समुदाय का एकमात्र हितैषी बता कर वोट मांगते हुए स्वयं को बचा  नहीं सकेगी। यह तो अनुभव बतायेगा कि ‘असंभव को संभव बनाने वाली राजनीति’ कौन सी चाला चलकर किस प्रकार रास्ता बनाती है। वैसे वर्तमान में चुनाव आयोग  चुनावी घोषणा पत्र की व्यवहारिकता और औचित्य- अनौचित्य पर विचार नहीं करता। ऐसे में उसे एक ऐसी व्यवस्था बनानी पड़ेगी जिससे सभी पार्टियों के घोषणा पत्र की जांच किया जा सके। यदि ऐसा होता है तो उसे केवल धर्म-जाति ही नहीं बल्कि हर वायदे को पूरा करने का रोडमैप भी उससे पूछना चाहिए जिससे अनर्गल वायदे करके जनता को बेफकूफ बनाने की प्रवृति को रोका जा सके। 
माननीय न्यायालय का यह फैसला निश्चित रूप से सराहनीय है लेकिन यह तब तक अधूरा रहेगा जब तक धर्म ओर जाति के आधार पर बने अन्य नियम कानून यथावत जारी रहेंगे। क्योंकि यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब एक समान गलती पर सजा तथा अन्य व्यवहार में धर्म के आधार पर अंतर बरकरार है तो क्यों न सबसे पहले एक समान नागरिक संहिता को लागू किया जाये। क्या दोहरे कानून का जारी रहना समान रूप से विभाजक नहीं है? ताजा उदाहरण है कि गत सप्ताह गुजरात हाईकोर्ट ने 15 वर्ष की नाबालिग लड़की को भगाकर ले जाने तथा शादी करने केे मामले में आरोपी को सज़ा देने से इंकार करते हुए इस्लामिक कानून के तहत नाबालिग लड़की प्रौढ़ माना था। उच्चतम न्यायालय को इस बात का भी संज्ञान लेना चाहिए कि धर्म और जाति के आधार पर वोट नही मांगे जा सकते तो धर्म के नाम पर न्याय की परिभाषा क्यों बदल जाती है?
यह सत्य है कि विभिन्न  धर्मों में अनेक प्रकार की परम्पराएं और प्रथाऐं प्रचलित हैं, लेकिन जहां तक कानून का प्रश्न उसमें भिन्नता और तुष्टीकरण किसी भी सभ्य समाज में मान्य नहीं हो सकता। धर्म व्यक्तिगत मान्यता है जबकि राजनीति और कानून व्यक्तिगत हितों से ऊपर उठते हुए  सामुदायिक हित से जुड़े है। हमारे संविधान में स्पष्ट कहा गया है कि कानून जाति, धम्र, लिंग, वर्ग, वर्ण के आधार पर व्यक्ति-व्यक्ति में  भेद नहीं करता। विद्वानों के मतानुसार धर्म एक प्रकार सेे दीर्घकालीन राजनीति है तो  राजनीति अल्पकालीन धर्म है। यदि दोनो अपने अपने ढ़ंग से बुराई से लड़े तो समाज का हित और यदि लोकहित मंे संघर्ष का केवल दिखावा करें परंतु पर्दें के पीछे समर्थन करें तो लोकतंत्र के लिए खतरा है।
 आज की सच्चाई यह है कि  राजनीति को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने के नाम पर शक्ति पाने वाले  सिद्धांतों का केवल ढ़ोल पीटते हैं परंतु सत्ता पर काबिज होते ही उसी रंग में रंग कर संघर्ष  के नाम पर  एक-दूसरें को कोसने में तक सीमित हो जाते हैं। भ्रष्टाचार का दिखावटी विरोध करने वाले यह समझने को तैयार ही नहीं कि अवसरवादिता किसी भी प्रकार हो अर्थात् धर्म की हो या राजनीति की,  लोक व्यवहार की हो, समान रूप से गलत है। धर्म और राजनीति का अविवेकी मिलन सम्पूर्ण व्यवस्था  को भ्रष्ट करता है। अतः उच्चतम न्यायालय के वर्तमान निर्णय को  सरकार, संसद, चुनाव आयोग और  सभी राजनैतिक दल गंभीरता से लेते हुए धर्म और राजनीति को मर्यादा के मार्ग पर लाने का प्रयास करना चाहिए। वैसे यह तभी संभव हे जब जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग- अलग मापदंड अपनाने की प्रवृत्ति का त्याग किया जाये। राजनीति को भी तुच्छ लाभ के लिए राष्ट्रहित के कार्यों में विरोध के लिए विरोध की आत्मघाती प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना चाहिए।
आज विश्व के बहुत बड़े हिस्से विशेष रूप से भारतीय उपमहाद्वीप में धर्मयुद्ध(जेहाद) के नाम पर निर्दोषों के प्रति अमानुषिक हिंसा, मनमानी और आतंकवाद को उचित ठहराने की राजनीति चल रही है। केवल अपने धर्म (समुदाय) को सही और शेष को गलत बताते हुए खुलेआम धर्मान्तरण को बढ़ावा देना देश के बहुसंख्यक लोगों के लिए चिंता का विषय है। आखिर धर्म असहिष्णुता, आतंकवाद पर्यायवाची कैसे हो सकते है? धर्म यदि नैतिकता का पर्याय है तो राजनीति अवसरवादिता (अनैतिकता) का दूूसरा नाम है। धर्म का प्रथम कार्य  समाज को सदाचारी, स्नेही और संवेदनशील बनाना है अतः धर्म राजनीति को भी सदाचारी बनाते हुए उसे लोकहितकारी स्वरूप प्रदान करता। परंतु हो उलटा रहा है। छद्म राजनीति की संगत में धर्मों के बाहरी स्वरूप अर्थात् आचरण में विकृति आ रही है। भ्रष्ट राजनीतिज्ञों और धर्म के तथाकथित ठेकेदारों का गठजोड़ समाज का बहुत बड़ा अहित कर रहा है। इस नापाक गठबंधन को तोड़ना आज की सबसे बड़ी चुनौती है। इसलिए देश की सबसे बड़ी अदालत ने व्यवस्था को ऐतिहासिक अवसर प्रदान किया है।

 विनोद बब्बर संपर्क-   09868211911, 7892170421


राजनीति और धर्म के अनैतिक गठबंधन पर चोट supreme court# religion # Caste # Election राजनीति और धर्म के अनैतिक गठबंधन पर चोट supreme court#  religion # Caste # Election Reviewed by rashtra kinkar on 05:10 Rating: 5

No comments