मजाक बनता लोकतंत्र # What a Strange Democracy



चुनाव सुधारों बिन मजाक बनता लोकतंत्र
लोकतंत्र को सर्वाधिक स्वीकार्य शासन प्रणाली इसीलिए माना जाता है क्योंकि यह न्यूनतम दोष लेकिन अधिकतम गुणों से युक्त है। जनता द्वारा अपने योग्यतम प्रतिनिधियों को चुनने से ही लोकतंत्र का लोक कल्यााणकारी स्वरूप कायम रखा जा सकता है। लेकिन पिछले कुछ दशकों से जनप्रतिनिधि चुने जाने के लिए ‘योग्यतम’ तो दूर ‘योग्य’ जैसा भी कोई मापदंड नहीं रहा। बेशक हमारे संविधान निर्माताओं ने किसी भी स्तर पर चुनाव लड़ने के लिए किसी न्यूनतम शैक्षिक योग्यता का प्रावधान नहीं किया था। शायद उन्हें विश्वास था कि अनुभवी और जनसेवा के इच्छुक लोग ही राजनीति की ओर आयेंगे। लेकिन कालान्तर में राजनीति सर्वाधिक आकर्षण वाला ‘व्यवसाय’ बन गया। चुने जाने के कुछ ही दिनों में उसकी और उसके निकटजनों की तस्वीर और तकदीर दोनो ही बदले दिखाई देने लगते हैं। ऐसे में राजनीति को ‘व्यवसाय’ के अतिरिक्त कोई अन्य नाम देना उसके साथ अन्याय ही होगा। 
बदलते दौर में जहां लोगों में राजनीति का आकर्षण बढ़ा है वहीं वैचारिक प्रतिबद्धता का महत्व लगातार रसातल की ओर है। इसका एक प्रमाण यह है कि सारा जीवन वैचारिक प्रतिबद्धता और समर्पण भाव से दल की सेवा करने वाले कार्यकर्ताओं पर ‘आयातित’ लोगों को अधिमान देने का चलन हर तरफ प्रतिष्ठित है। पांच राज्यों के ताजा चुनावों को देखे तो ठीक चुनाव के अवसर पर टिकट न मिलने पर लगभग हर दल में विद्रोह। उसे छोड़ दूसरे में जाना और वहां टिकट पाने की बढ़ती प्रवृत्ति का जिम्मेवार  आखिर कौन है? क्या यह सही नहीं कि हमारे सभी दल आज तक भी टिकट वितरण की कोई लोकतांत्रिक पद्धति विकसित न कर पाना? यह  चुनाव आयोग की असफलता है या चुनाव सुधार में कोताही का दुष्परिणाम है? क्या इसे राजनीति के सर्वाधिक उपजाऊ होने ने समाजसेवी होने के मुखोटे खड़े करने, सिद्वांतविहीन राजनीति, मौकापरस्ती का उपउत्पाद माना जाये या जाति, सम्प्रदाय की राजनीति की विवशता माने? क्या मतदाता ऐसे लोगों को सबक नहीं सिखाना चाहते या वे भी मजबूर हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि बातें तो सभी बढ़-चढ़ कर करते हैं पर चुनाव सुधार नियमो को कोई भी दल/सरकार लागू नहीं करना चाहती हो?
चुनाव के बाद इस या उस दल की हार की समीक्षा होगी लेकिन लोकतंत्र के लगातार गिरते ग्राफ की चर्चा भी होनी चाहिए। क्या यह उचित नहीं होगा कि दल का सदस्य बनने से पहले टिकट पर प्रतिबंध लगाते हुए चुनाव से कम से कम छ महीने पहले दल बदल करने पर ही उम्मीदवार  बनाने और गठबंधन का नियम बना दिया जाये? इसी प्रकार हवा-हवाई वादे करने को आखिर कैसे स्वस्थ लोकतंत्र माना जायें।  क्या चुनावी घोषणापत्र और वादों को कानूनी रूप देते हुए उन्हें पूरा करने का रोडमैप भी बताना अनिवार्य नहीं किया जाना चाहिए?
आज लगभग हर दल केन्द्रीकरण की ओर है। तो कुछ दल परिवारवाद के बंदी है। किसी भी  पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र नहीं है। लोकतंत्र का अर्थ केवल पदाधिकारियों के चुनाव की औपचारिकता नहीं बल्कि उम्मीदवारों के चयन में भी होना चाहिए। इसमें हर स्तर के प्राथमिक/ सक्रिय सदस्यों की सहभागिता होनी चाहिए। एक से अधिक क्षेत्रों से चुनाव लड़ने पर रोक होनी चाहिए। 
वर्तमान कानून के अनुसार सजायाफ्ता चुनाव नहीं लड़ सकता लेकिन आरोपी पर कोई प्रतिबंध नहीं है। किसी भी मुकद्दमें का निपटारा दशकों में होने के कारण वह तब तक न केवल चुनाव लड़ सकता है बल्कि सत्ता सुख का उपभोग कर सकता है। दोषी साबित होने के बाद भी वह लालू जी की तरह सत्ता पर अपनी पकड़ बनाये रख सकता है। क्या यह उचित नहीं होगा कि दोषियों को सार्वजनिक जीवन से भी दूर रखा जाये। उसके लिए किसी दल की सदस्यता, चुनाव प्रचार भी प्रतिबंधित हो? इसके अतिरिक्त ठीक चुनाव के अवसर पर दल का गठन, पंजीकरण कराने वालों को हतोत्साहित करने के लिए एक निश्चित अवधि तक चुनाव में भाग लेने पर रोक हो। 
मतदाता जागरूकता अभियान की सार्थकता तभी है जब मतदान अनिवार्य हो। बिना किसी उचित कारण के मतदान न करने पर  संकेतिक ही सही जुर्माने का प्रावधान होना ही चाहिए। पासपोर्ट, ड्राईविंग लाइसेंस, राशन कार्ड, कालेज में प्रवेश आदि हेतु मतदान प्रमाण पत्र अनिवार्य किया जाना चाहिए। विशेष रूप से बड़े उद्योगपति, धनकुबेर, बड़े अफसर जो मतदान के लिए लाइन में नहीं लगना चाहते, उनका पासपोर्ट और ड्राईविंग लाइसेंस रद्द  किया जाना चाहिये।
यह अजीब है कि संसद और विधानसभा के चुनाव केन्द्रीय चुनाव आयोग कराता हैं परंतु नगर पालिका छावनी बोर्ड,, पंचायत आदि स्थानीय निकायों के चुनावों के लिए अलग राज्य चुनाव आयोग है। दोनो अपने  अपने स्तर पर मतदाता सूचियों बनाते या बनवाते हैं। दोनो के पास कामचलाऊ स्टाफ है। चुनाव कराने के लिए उन्हें विभिन्न विभागों से कर्मचारी, अधिकारी लेने पड़ते है। क्या यह सब काम एक ही निकाय नहीं कर सकता? यदि  जन्म-मरण पंजीकरण, पहचान पत्र आदि की जिम्मेवारी भी उन्हें दे दी जाये तो किसी भी परिवर्तन के साथ ही मतदाता सूची में भी  आवश्यक परिवर्तन संशोधन भी सहज हो जायेगा।
बेशक वर्ष 2017-18 के बजट में प्रावधान किया गया है कि राजनैतिक दल 2000 रुपए से अधिक नकद चंदा नहीं ले सकेंगे। लेकिन चंदा देने वालों के नाम सार्वजनिक करना भी आवश्यक बनाया जाना चाहिए। हालांकि  आज भी चुनाव खर्च की कानूनी सीमा और वास्तविक खर्च का अंतर यथावत बना हुआ है। ऐसे में काले धन के महत्व को नियंत्रित कर पाना आसान न होगा।
किसी भी लोकतंत्र की सार्थकता तभी है जब वहां के नागरिक स्वयं को तंत्र का अंग माने और तंत्र में ‘लोक’ के प्रति संवेदनशीलता हो। कालेधन पर नियंत्रण पाने के लिए नोटबंदी करने वाली सरकार को लोकतंत्र की सफलता के लिए सर्वप्रथम चुनाव सुधारों पर ध्यान देना चाहिए। वास्तव में कालेधन के जनक और खपत का सबसे बड़ा स्रोत राजनीति और चुनावी व्यवस्था है।
 यदि चुनाव सुधार, मनमाने हवाई वादों की प्रवृत्ति को कसा नहीं गया तो खजाने को लुटाने और लूटने का भयावह दौर आ सकता है। कल कोई शातिरं ऐसे वादे कर सत्ता हथिया सकता हैै- ‘जीतने पर हर मतदाता को 5 एकड़ का फार्म हाउस जिसमें स्विमिंग पूल भी हो दिया जायेगा। दो मनपंसद कारंे, आजीवन पैट्रोल फ्री,, हर मतदाता को बीस हजार रुपय वार्षिक भत्ता। 5 करोड़ तक वार्षिक आय पर आयकर नहीं। देश भर में कहीं भी पांच लाख वार्षिक तक स्वास्थ्य- यातायात सुविधाएं फ्री। बच्चों को अमेरिका का वीजा, वर्ष में एक बार विदेश यात्रा फ्री। और हाँ, अगर आप दो-तिहाई बहुमत सुनिश्चित करें तो एक वादा यह भी, ‘100 साल से पहले मरने पर रोक! यमराज को पृथ्वी पर आने से पहले हमारी सरकार से अनुमति लेनी होगी।’ इन वादों में जो चाहे जोड़ सकते हैं। इतना कुछ देने का वादा है तो क्या आप कुछ चंदे वंदे का जुगाड़ नहीं करोंगे? क्या आप नहीं चाहते कि स्वर्ग सी सुविधाएं इसी धरती पर मिले। ...और यह वचन भी कि अगर  वादे पूरे नहीं कर सके तो अगली बार  वोट मांगने नहीं आयेगे। लेकिन इसी बीच वे अपने लिए तो उपरोक्त सब कुछ जुटा चुके होंगे।
-- विनोद बब्बर संपर्क-   09868211911, 7892170421 


मजाक बनता लोकतंत्र # What a Strange Democracy मजाक बनता लोकतंत्र # What a Strange Democracy Reviewed by rashtra kinkar on 05:01 Rating: 5

No comments