रंगे सियारों से सावधान -- डा. विनोद बब्बर


आदिमानव से आज के हाईटैक मनुष्य तक की यात्रा विश्वास से विज्ञान, श्रद्धा से समर्पण और अपनी अनन्त इच्छाओं की पूर्ति से उत्पन्न तनाव से शांति की खोज का  विस्तार है। इस प्रक्रिया में अध्यात्म को आधुनिकता और चमत्कार को विज्ञान से जोड़ने में विफलता का परिणाम होता है- मानवता के पथ से विचलन जो अंधविश्वास को धर्म घोषित करता हीै। आश्चर्य है कि अज्ञानता से उत्पन्न अंधविश्वास तथाकथित आधुनिक और पढ़े-लिखे लोगों में भी फल-फूल रहा है तभी तो आज भी जिंदा हैं जनता की धार्मिक भावनाओं का दोहन करते हजारों बाबा, टोना, टोटका, बलि और न जाने क्या-क्या। 
पिछले दिनो एक कथित ‘संत’ रामपाल की असलियत सामने आने के बाद आज हमारेे समस्त ज्ञान पर अंगुली उठाई जा रही है। प्रश्न अपनी जगह सही है कि क्या ऐसे ढोंगी बाबाओं का मायाजाल इतना सघन कैसे हुआ कि लाखो लोग उनके चंगुल में फंसते रहे। इनकी किलेबंदी, निजीसेना और विशाल तामझाम, अरखें, खरबों की सम्पत्ति, देया-विदेश में सैंकड़ों आश्रम वाले ये ‘व्यापारी’ स्वयं को योगी घोषित करते हैं परंतु ‘भोग’ का हर साधन रखते है। इनके भक्तों को वोट बैंक समझकर नेताओं का मौन तो समझ में आता है परंतु सुरक्षा एजेन्सियां अनभिज्ञ कैसे रही? 
यह सही है कि सब कुछ कानून ही नहीं करेगा, हमें भी तो कुछ करना चाहिए। आखिर विज्ञान के युग में भी हम पाषाण युग की सोच लेकर कैसे आगे बढ़ सकते हैं?  टीवी के विभिन्न चैनलों पर सक्रिय हरी चटनी खिलाने से तरह-तरह के दावे करने वाले व्यावसायिक बाबाओं को खुला छोड़ना युवा पीढ़ी को अपने धर्म से विमुख करने का षड़यंत्र प्रतीत होता है। वैसे यह भी सत्य है कि जब-जब अति हुई और शिकंजा कसने का प्रयास किया गया, हर बार कुछ अंधभक्त भक्त सामने आ जाते हैं जो बाद श्रद्धा के नाम पर स्वयं को ठगा हुआ और अपराधी महसूस करते रहे। ये स्वार्थी ‘व्यापारी’ भारतीय संस्कृति को बदनाम कर रहे है जिसके अनुसार  संत को त्याग की प्रतिमूर्ति माना जाता है। कहा भी गया है- ‘संतन के मन रहत है, सबके हित की बात’ 
श्रद्धा और विश्वास एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसी की मजबूत नींव पर दुनिया का हर संबंध, वह पारिवारिक हो या व्यवसायिक, धार्मिक हो या सामाजिक टिका हुआ है। जबकि अंधविश्वास आत्महन्ता है। जिन्हें अपने पुरुषार्थ पर विश्वास नहीं होता वे किसी चमत्कार की तलाश में राह भटक कर शातिर लोगों का आसान शिकार बन जाते हैं। कवच और ताबीज़, आत्माएं, काला जादू और झाड़-फूंक का प्रचलन सदियों से रहा है। दुर्भाग्य की बात है कि आज यह सब पिछड़े समाजों तक सीमित नहीं रहा।   अनपढ़, पिछड़े लोगों की इस भूल को फिर भी समझा जा  सकता है लेकिन स्वयं को शिक्षित, साधन-सम्पन्न, चतुर घोषित करने वालों की बुद्धि पर पर्दा पड़ना विश्वास और श्रद्धा की परिभाषा बदलते हुए हमारे विवेक पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। आज के वैज्ञानिक युग में अंधविश्वासों से जुड़ी तमाम खबरें हमारी खोखली आधुनिकता की पोल खोलती नजर आती हैं। कथित आधुनिक और शिक्षित बड़े -बड़े लोग भी अंधविश्वासों की गिरफ्त से मुक्त होने में बेबस दिखाई देते हैं। 
धार्मिक आस्थाएं हमारी सांस्कृतिक धरोहर का प्रतिबिम्ब होती हैं लेकिन अंधविश्वास अतार्किक सोच का परिणाम है, जो किसी अनदेखे -अनजाने भय के साये में फलती-फूलती है। जो आम आदमी को शातिर लोगों के जाल में फंसाता है तो कभी-कभी जाने-अनजाने अपराधी भी बना देता है। कटु सत्य यह है कि अंधविश्वास एक ऐसी मानसिक व्याधि है जो दुनिया की किसी दवाई से दूर नहीं होती। अशिक्षित-अज्ञानी से शहरी ‘माडर्न लुक’ वाले ग्रहराशि के रत्न जड़ी  अंगुठियां पहनते है। एक  हाथ में दो-तीन नहीं, एक अंगुली में दो-तीन अंगुठियां पहनकर यह मानना है कि इससे बिना मेहनत के ही वे मालामाल हो जाएंगे। ये अंगुठियां पहनने वाले का भाग्य बदले, न बदले, पर पहनाने वालांे का भाग्य अवश्य बदल देती हैं। आखिर किस दिन हमें समझ में आएगा कि श्रद्धा अच्छी बात है, अश्रद्धा भी चलेगी लेकिन अंधश्रद्धा अंधेरे रास्ते पर, अंधेरे कुएं में छलांग लगाना है, जो हमारे समाज को धीरे-धीरे खोखला कर रही है। ऐसा भी नहीं है कि केवल हिन्दू ही अंधविश्वास के जाल में फंसते हो,  मुल्ला मौलवी भी यही सब करते हैं। कब्रो, मजारों पर झाड़-फूंक की आड़ में उनका धंधा खूब जमता है। आज तो लगभग हर पत्र-पत्रिका में  बंगाली बाबा, इस या उस बाबा के विज्ञापन देखे जा सकते हैं जो व्यवसाय में सफलता, वशीकरण, प्यार में असफलता, निराशा से मुक्ति के दावे करते है। हर नगर-कस्बे में जाल बिछाये बैठे ये बाबा, पीर, तांत्रिक महिलाओं को अपने जाल में फंसाने के लिए  संतान प्राप्ति, पति वशीकरण, धन प्राप्ति के झांसे देते हैं। अधिकांश अपनी जमा पूंजी भी लुटा बैठती हैं तो अनेक महिलाएं यौन शोषण तक की शिकार हो जाती हैं। 
आश्चर्य है कि कुछ लोग अपनी लच्छेदार बातों से दूसरों को इतना वशीभूत कर लेते हैं कि उनके नासमझ अनुयायी उन्हें ‘भगवान’ घोषित करने लगते हैं। उन्हें समझना चाहिए कि मानवीय जीवन की कसौटी भगवान नहीं, इन्सान बनना है। भारतीय जीवन दर्शन साक्षी है हमारे मनीषियों ने जिस जीवन पद्धति को मान्यता दी है उसमें किसी व्यक्ति विशेष के प्रति जरूरत से ज्यादा श्रद्धा अथवा उसे ‘भगवान’ मानने को स्थान नहीं  है। मनुष्य में देवत्व का विकास हो, यह आपेक्षा जरूर की जाती है लेकिन स्वयं को देव घोषित करना ईश्वर के प्रति अपराध और अस्वीकार्य है। यदि हम मूर्तिपूजक है तो उसका अभिप्राय यही है कि किसी महामानव के चरित्र को स्वयं में धारण करने के लिए उसके चित्र की पूजा और यदि हम यज्ञ पद्धति को मानते है तो भी हमें अग्नि से प्रेरणा लेका ऊँचा उठने और अद्वैत के उपासक है तो भी संसार के रचियता के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते है। , खालसा पंथ के अनुयायी को ‘गुरु मानियो ग्रन्थ’ के रूप में व्यक्ति पूजा की स्पष्ट मनाही है। कारण स्पष्ट है- मनुष्य में कभी किसी परिस्थिति विशेष में विकार पैदा हो सकता है अतः उसकी पूजा करने की बजाय ‘परब्रह्म’ की उपासना करनी चाहिए। वरना हम जब भी  विचलित होगे कोई बहरूपिया हमें छल लेगा। 
आज धर्म का जैसा स्वरूप है उसपर भी हमें विचार करना चाहिए। मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, तथाकथित दूरदर्शनी संतों के आश्रम क्या उनकी बपौती हैं? क्या धर्म आम आदमी के जीवन को और बेहतर बनाने का नाम नहीं है? क्या हर पूजास्थल पर चढ़ावे के रूप में आने वाला धन जनता का नहीं है? यदि हाँ, तो उस धन से जनता की भलाई के लिए औषधालय, पुस्तकालय, विद्यालय नहीं खुलने चाहिए? वैसे अनेक हिन्दू धर्मस्थल इस दिशा में बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं। दिल्ली के अनेक आर्यसमाजों में धर्मार्थ सेवा केन्द्र चल रहे हैं तो कुछ सनातन धर्म मंदिर भी इस दिशा में अच्छा कार्य कर रहे हैं। जरूरत है शेष मंदिर, मस्जिदों को भी मानवता की सेवा को श्रेष्ठ धर्म कार्य मानते हुए कार्य आरंभ करना चाहिए। देश के सभी बाबाओं द्वारा एकत्र सम्पत्ति  ट्रस्ट के हवाले कर मानव सेवा कार्यों में लगाई जाना चाहिए। बाबा, कथा वाचक को अपनी अति आवश्यक जरूरतों के लिए ही नाम मात्र का धन लेने का अधिकार है। यदि वे इस धन से अय्याशी करते हैं तो वे अपराधी हैं। यह उल्लेखनीय है कि विश्वास का पर्याय है ट्रस्ट। ये बाबा जनता से प्राप्त निधि के स्वामी नहीं, ट्रस्टी हैं। यदि उनकी चादर दागदार होती है तो उसके दाग मुक्त होने तक उन्हें स्वयं को उस सम्मान और श्रद्धा से दूर कर लेना चाहिए। 
इसका अर्थ यह भी नहीं कि सभी संत बुरे है। अनेक संत बहुत अच्दा काम कर रहे है। हिमतनगर के एक संत दिनभर मेहनत करके ही भोजन ग्रहण करते है। वे अपनी मेहनत से प्राप्त सभी संसाधन समाज हित पर कुर्बान करते हैं। भाषा, साहित्य से बेटी बचाओ तक के लिए जनजागरण करने वाले उन संत द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लेने का अवसर मिला। लेकिन वहीं  एक पट्टाधारी ‘संत’ से उनकी गतिविधियों के बारे में जानकारी लेनी चाही। उन्होंने अपने पास सैंकड़ों एकड़ जमीन, दूर-दूर से आने वाले श्रद्धालुओं की जानकारी दी। इसपर जब उनसे स्थानीय लोगों से उनके संबंधों की बात की तो उन्होंने स्थानीय लोगों की आलोचना की।  इस पर मेरा प्रश्न था, ‘गाड़ियों के धुएं और धूल के अतिरिक्त आपके आश्रम से स्थानीय लोगों को और क्या प्राप्त होता है।’ यह सुनते ही वह भड़क उठे, ‘हम उन्हें कुछ क्यों दें? हम तो चाहते हैं उन्हें भूत लगे, बीमारी लगे!’ मैंने भी उसी तेवर में कहा, ‘हमारी मातृशक्ति जो अपने बच्चों का पेट काटकर, स्वयं कष्ट सहकर भी आपके चरणों में कुछ न कुछ रखती है क्या आप उनका अपमान नहीं कर रहे हैं? यदि आपकी सोच ऐसी है तो लानत है आपके ज्ञान और भक्ति पर! वे महामूर्ख है जो आपके प्रति श्रद्धा रखते हैं!’ इतना सुनकर वह तो खामोश रहे लेकिन उनका एक अंधसमर्थक गाली -गलौच पर उतर आया। सच है जब तर्क समाप्त हो जाता है तो स्वयं को साधु कहने वालों की शालीनता छूट जाती है। ताजा मामले में ‘असंत’ को कानून की लोकलाज और धर्म की मर्यादा की परवाह नहीं, कोर्ट के आदेशों को अपने पांव तले कुचलते हुए सरकार से मोर्चा लिया, देशद्रोही व्यवहार करते हुए सुरक्षाबलों पर आधुनिक हथियारों से हमला किया।  उसपर भी अपने स्वास्थ्य के बारे में झूठ बोला। पोल खुलने पर स्वयं को हर बात से अनजान होने का दिखावा करते ऐसे  बुद्धिशत्रु आसानी से नहीं सुधरते।
 विचारणीय प्रश्न यह भी है कि क्या वर्षों से कानून को ठेंगा दिखाते एक ‘इमाम’ को अनदेखा करने से इस प्रवृति का कोई संबंध हो सकता है? तो दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि यदि राजनीति में परिवारवाद जहर है तो क्या बाबाओं का परिवारवाद अमृत है? जिस ‘बाबा’ अथवा ‘शाही इमाम’ को  केवल निज पुत्र ही योग्यतम उत्तराधिकारी दिखाई देता हो तो क्या वह स्वयं ही अपने तमाम शिष्यों को नासमझ घोषित नहीं कर रहा है? स्वार्थी संत और साधारण इंसान की सोच यदि एक समान मोह-ममता के इर्द-गिर्द ही मंडराती रहेगी तो अध्यात्म का अर्थ क्या है? ऐसे में कौन बाबा? श्रद्धा क्यों-कैसी? कुछ दिन पूर्व एक बाबा ने 1000 टन सोना गड़े होने का सपना देखा तो पूरे सरकारी तंत्र ने उसका सहयोग कर दुनिया भर में हमारा मजाक उड़वाया। ऐसे ही ‘ढ़ोंगी’ लोगों और उनके मूर्ख चेलों के लिए किसी दार्शनिक ने ठीक ही कहा था- ‘जब भारतीय मनीषा कर्म फल सिद्धांत का उद्घोष करती है तो जीवनभर पाप कर एक बार गंगा में डुबकी लगा लेने से पाप मुक्त हो जाने की अवधारणा अधिकांश पापों और अपराधों का मूल माना जा सकता है।  ऐसे लोगों के कारण कारण नैतिक पतन हुआ या नैतिक पतन के कारण ऐसे लोग हुए केवल इसपर विचार करना सबसे बड़ा धर्म है।’ और अंत में जापान की चर्चा जहाँ बौद्ध मत को माना जाता है। वहाँ बच्चों को सिखाया जाता है कि बुद्ध माता-पिता, बहन-भाई, मित्र-सखा से पहले हैं। लेकिन वही बुद्ध अगर जापान पर हमला कर दें तो हम उनका सिर काट देंगे। अर्थात् राष्ट्रधर्म हर धर्म से बड़ा है। धन्य है ऐसी सोच! क्या उस छोटे से देश से हम कुछ सीख लेगे या सीख देने का कार्य केवल ‘बाबाओं’ के जिम्मे ही रहेगा? संपर्क-09868211911
रंगे सियारों से सावधान -- डा. विनोद बब्बर रंगे सियारों से सावधान -- डा. विनोद बब्बर Reviewed by rashtra kinkar on 06:20 Rating: 5

1 comment

  1. विचारणीय प्रश्न यह भी है कि क्या वर्षों से कानून को ठेंगा दिखाते एक ‘इमाम’ को अनदेखा करने से इस प्रवृति का कोई संबंध हो सकता है? ... अंधविश्वासों से ऊपर उठने में प्रेरणा प्रदान करने वाले उत्तम विचार के लिए गुरुवर को प्रणाम, साधुवाद !!

    ReplyDelete