नदी नहीं राष्ट्रीय नाला कहिए जनाब! -डा. विनोद बब्बर

पिछले दिनों एक मामले की सुनवाई करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय की एक खण्डपीठ ने यमुना नदी की दुर्दशा पर टिप्पणी करते हुए उसे नदी की बजाय ‘राष्ट्रीय नाले’ की संज्ञा दी। न्यायमूर्ति बीडी अहमद और न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मुदल की खंडपीठ के अनुसार, ‘यमुना में बह रहा जहरीला पानी पेड-पौधों तक के लिए भी खतरनाक है। ऐसे में सोचा जा सकता है कि कोई इंसान यहां कैसे रह सकता है। यह स्थिति तब है जब वर्षों पूर्व उच्चतम न्यायालय सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट और इंसेप्टर आदि का आदेश दे चुका है लेकिन कुछ भी नहीं किया गया।’
वास्तव में देश भर में नदियों की दशा शोचनीय है। वर्तमान सरकार ने गंगा की स्वच्छता के लिए एक विशेष मंत्रालय का गठन किया है। वाराणसी में गंगा को जापान की तर्ज पर साफ करने की बहुत चर्चा है ऐसे में यह चिंतन आवश्यक है कि किसी भी अभियान को आरंभ करने से पहले उसकी निगरानी की समुचित व्यवस्था की जाए। वैज्ञानिकों के साथ-साथ पर्यावरणविदों और स्थानीय जन जागरीण तथा भागीदारी होना आवश्यक है। देश की राजधानी दिल्ली में सैंकड़ों करोड़ रुपए यमुना सफाई अभियान पर बहाने के बाद भी स्थिति सुधरने की बजाय लगातार बिगड़ रही है उसे देखते हुए माननीय न्यायाधीशों की उपरोक्त टिप्पणी पूरी तरह सही है। यदि यह हमारे संवेदनाओं को झकझोड़ने में सफल हो सकी तो नाला बनी नदियों की फिर से जीवनदायिनी नदी का दर्जा मिल सकेगा और यदि हमने इसे अन्य समाचारों की तरह सुनकर भुला दिया तो निश्चित रूप से इस शर्मनाक स्थिति से उबरने का प्रश्न ही पैदा नहीं होगा।
सच ही तो है हमारे धार्मिक ग्रंथों में महत्वपूर्ण स्थान पाने वाली यमुना कभी दिल्ली का पर्याय रही है। लेकिन आज उसके दिल्ली मार्ग के किसी भी स्थान पर निर्मल जल की उपलब्धता के बारे में कल्पना भी नहीं की जा सकती। भारत की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में से एक यमुना नदी टिहरी -गढ़वाल जिले के यमुनोत्री से आरंभ होकर प्रयाग में संगम स्थल पर पतितपावनी गंगा में अपने आस्तित्व को विलीन करती है। अगर केवल दिल्ली की ही बात करे तो वज़ीराबाद बैराज से  दिल्ली मंे प्रवेश करने वाली यमुना उसपार एकदम साफ लेकिन इसपार चहूं ओर काला, बदबूदार जहरीला पानी ही नज़र आता है। दिल्ली में 22 किलोमीटर के सफर में ही 18 नाले मिलते हैं। इनमें से भी तीन नाले नजफगढ़, शाहदरा और पूरक नाला यमुना को सबसे ज्यादा गन्दा करते है। केवल नजफगढ़ नाला ही 38 नालांे का समूह होने के कारण दो-तिहाई प्रदूषण का कारण है। औद्योगिक प्रदूषण, बिना उपचार के कारखानों से निकले दूषित पानी का सीधे नदी में गिराया जाना, यमुना किनारे बसी आबादी मल-मूत्र और गंदगी इसे नदी से नाला बनाती है तो दूसरी ओर हमारे धार्मिक विश्वास भी यदा -कदा इसके स्वरूप को बिगाड़ने में अपनी भूमिका निभाते हैं। प्रतिबंध होने के बावजूद अपने घर की पूजा सामग्री, फूल, राख और अस्थि विर्सजन तो जैसे हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। जगह-जगह बोर्ड लगे हैं। पुलों के आसपास ऊँची जाली है लेकिन हम नहीं मानेंगे की धुन पर उछले लोग चौबीसों घंटें ऐसा करते देखे जा सकते है। उसपर भी कुछ विशेष उत्सवों पर रसायनों से बनी हजारों मूर्तियों का विसर्जन प्रदूषण के स्तर को ऊँचाईयां प्रदान करता है। इसके तटवती क्षेत्रों के तालाब एवं नलकूप आदि जलस्त्रोतों के माध्यम से प्रदूषित जल सींचे गए अन्न, फल-फूल एवं सब्जियों में  पंहुचकर मानव शरीर में अनेक प्रकार के रोगों का कारण बन रहा है। 
आस्था को कायम रखते हुए समयानुकूल रास्ता ढूंढ़ने के प्रयास भी हमने आज तक आरंभ नहीं किए है। दुख तक होता है जब आस्था और उन्माद का अंतर मिट जाता है। शहर भर का ट्रैफिक जाम करने की कोशिश जब नदी के प्रवाह को भी बाधित करे तो लाखों लोागों के संकट खड़ा हो जाता है। क्या यह समय की मांग नहीं है कि हम विशाल के स्थान पर छोटी मूर्तियों का उपयोग करें।  नदी की बजाय किसी बंद तालाब या बड़ा सा गड्डा खोदकर ऐसा कर सकते हैं। जिसका पुन‘ उपयोग किया जा सकता हैं।
यहां प्रश्न किसी की भावनाओं को आहत करने का नहीं बल्कि हर उत्सव में निहित सर्वमंगल की व्यवहारिक रूप देने का है। भारत में प्रांत, परंपराओं और रीति-रिवाजों की भिन्नता के बावजूद लगभग हर स्थान पर  नदियों को पूजा जाता है। गंगा के बाद यमुना का अपना धार्मिक महत्व भी है। हमारी मान्यताओं के अनुसार,यमुना मृत्यु के देवता यमराज की बहन तथा सूर्यदेव की पुत्री है। आखिर नदियों का माँ कहने वाला हमारा समाज स्वयं को इन मातृरूपा नदियों की पवित्रता का हत्यारा कहलाना स्वीकार करेगा भी तो कैसे? आखिर हम इतने बावले क्यों हैं कि इतना भी समझने को तैयार नहीं कि मृत्यु के देवता यमराज अपनी बहन की हत्या के अपराधियों को हर्गिज  क्षमा करने वाले नहीं है। सर्वशक्तिमान सूर्यदेव के कोप से उनकी पुत्री को नदी से नाला बनाने वाले कदापि बच ही नहीं सकते। 
ऐसा नहीं है कि यमुना नदी की दशा सुधारने के लिए प्रयास नहीं किए गए। प्रयास तो हुए है। पर समस्या यह है कि नदी की दशा जस की तस है। 1993 में आरंभ किए यमुना एक्शन प्लान के लिए 700 करोड़ रुपए जापान से आए थे व भारतीय सरकार की अपनी राशि अलग थी। पर इसमें सबसे अधिक खर्च सार्वजनिक शौचालयों के निर्माण पर किया गया जबकि यमुना नदी की रक्षा में इससे कोई विशेष फर्क नहीं पड़ने वाला था और न ही पड़ा। 
राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान की वर्ष 2005 की रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया है, ‘ऊपर से ताज़ा पानी न मिलने के कारण नदी अपनी प्राकृतिक मौत मर चुकी है।’ किसी भी नदी साफ़ रहने के लिए उसका प्रवाहमान रहना जरूरी है। हर जगह बांध बनाने से कोई समाधान नही होगा। आखिर यमुना में प्रवाह तो है ही नहीं और उसपर भी हमने बिना ट्रिटमेंट किए मल-जल नदी में छोड़ देते है। ऐसे में नदी के साफ़ की कल्पना करना भी मूर्खता है। क्या यह सत्य नहीं कि दुनिया की हर नहीं वह कितनी भी प्रदूषित क्यों न हो, साल में एक बार बाढ़ के वक्त खुद को फिर से साफ़ कर ही लेती है। उसके बाद फिर से गंदगी का सीधा-सीधा अर्थ है हमारेी जीवन शैली में दोष है। हम उसे फिर से गंदा कर देते है। आश्चर्य है कि जिस बात को एक साधारण बुद्धि का व्यक्ति भी समझता है उसे हमारे कर्णधार क्यों नहीं समझ रहे कि  ‘हम नदी की सफाई का तमाशा करने की बजाय केवल उसे गंदा करना बंद करे।’ 
हमारे ग्रंथ बताते हैं कभी श्रीकृष्ण ने इसी यमुना से कलिया नाग को मुक्त कराया था। आज भी प्रदूषण का कालिया यमुना पर अपना साम्राज्य जमाए है। क्या इस कालिया से मुक्ति के लिए कोई जनभागीदारी का आंदोलन चलेगा या फिर हम श्रीकृष्ण के आगमन की प्रतीक्षा ही करते रहेगे? क्या हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी द्वारा आरंभ किया गया स्वच्छता अभियान यमुना के सम्मान को लौटा सकेगा? क्या माननीय न्यायालय द्वारा नदी को नाला कह देने मात्र से उनके कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है या दोषियों को कठोर सजा दिया जाना चाहिए? क्या जिम्मेवार पदों पर बैठे लोगों को उनकी इस अपराधपूर्ण असफलता के लिए यमुना में लगातार एक सप्ताह तक खड़े रहने का कोई आदेश भी पारित होगा? हम लंदन की टेम्स नदी की स्वच्छता की चर्चा तो खूब करते हैं। लेकिन यह भूल जाते हैं कि  टेम्स नदी भी कभी बहुत गंदी थी। उसकी सफाई सरकार ने नहीं बल्कि जनभावनाओं के उबार ने की है। आज भी उस नदी के आसपास रहने वाले लोग वर्श में एक दिन अपने सब काम छोड़कर टेम्स की सफाई में जुटते हैं। घरों सभी लोग दी। जबकि हम महीनों, वर्षों धरना देने की बात तो गर्व से करते हैं परंतु पश्चिम की गंदगी की नकल करने वाले कभी उनके इस श्रेयस्कर कार्य की नकल करने की सोचते तक नहीं तो स्पष्ट है कि सारा दोष केवल सरकारों पर नहीं थोपा जा सकता। टेम्स वाटर अथॉरिटी के मानदंड के अनुसार- जिस जल में मछली पैदा हो उसे ही प्रदुषणमुुक्त माना जाएगा। लेकिन यमुना के लिए यह मापदंड कब लागू होगा। बचपन में हम यहां स्नान किया करते थे लेकिन आज स्नान तो दूर, बदबूदार झागदार पानी को हाथ लगाते हुए मन क्षोभ से भर उठता है। नदियों के तटों को माफिया बद से बदतर बना रहे हैं।   वे समझ नहीं पा रहे हैं कि कराहती नदियां अपनी पीड़ा कहें तो किससे कहें? किसी कवि ने उनकी दर्दभरी दास्तान कही है- 
है अपना दर्द एक, एक ही कहानी,
सूखेंगी नदियां तो, रोयेगी, सदियां,
ऐसा न हो प्यासा, रह जाये पानी।
हमने जो बोया वो काटा है, तुमने,
मौसम को बेचा है बांटा है, तुमने,
पेड़ों की बांहों को काटा है, तुमने।
सूखे पर्वत की धो डालो, वीरानी,
सुनो नदी की दर्द,दर्दभरी कहानी।
(लेखक सम्पर्क- मो.- 09868211911)
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