गाँव, गरीब, किसान, जमीन अधिग्रहण
इन दिनों गाँव, गरीब, किसान, जमीन अधिग्रहण और उसके प्रभावों पर बहुत चर्चा हो रही है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस देश में अन्नदाता की स्थिति बहुत खराब है। देश का बच्चा-बच्चा जानता है (पर नेता नहीं जानते) कि 5 हेक्टेयर वाले किसान से एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी का जीवन-स्तर बेहतर होता है। आज तक की सभी सरकारों ने विदेशी कम्पनियों के लिए लाल कालीन बिछाये। उन्हें न्यूनतम मुनाफे की गारंटी दी। पर देश की रीढ़ किसानों के लिए क्या किया? न्यूनतम खरीद मूल्य तो तय कर दिया जाता है। पर लेवी केन्द्रों पर फसल खरीदने में सौ बहाने बनाकर लौटा दिया जाता है ताकि बाहर सक्रिय दलाल उनसे औने-पौने दामों में अनाज खरीदकर उसी केन्द्र पर दे सकें और अफसर-दलाल फल-फूल सकें। यह सरकार किसानों की कितनी हमदर्द है, इसका एक उदाहरण विदेशों से घटिया अनाज को चार गुणा अधिक कीमत पर आयात करना है जो स्वयं सरकार के हर परीक्षण में फेल हुए हैं। आज देश की विकास दर बढ़ाने के लिए एसी कमरों में पसीना बहाने वालें नहीं जानना चाहते कि किसान की स्थिति लगातार रसातल में जा रही है। मंहंगाई न बढ़ जाए, इसलिए किसान को अधिक दाम न देने वाले विदेशियों से महंगा खरीद कर सबसिडी देते हैं परंतु अपने भूूमि पुत्रों की चिंता नहीं करते। जब इस देश के सभी स्कूल, कालेज, यहाँ तक कि उच्च शिक्षा संस्थान जैसे आई.आई.टी.,मेडिकल कालेजों, इंजीनियरिंग कालेजों को सरकारी सहायता दी जाती है तो किसान को सहायता देने से गुरेज क्यों? डाक्टर, वकील, इंजीनियर सरकारी सबसिडी से पढ़ लिख कर विदेश की सेवा करते हुए धन कमा सकता है, तो इस देश की सेवा करने वाले किसान को ज्यादा मूल्य देकर उसे बाद में सबसिडी देकर बेचने में कैसा विरोध? यदि सरकार सचमुच देश का भला करना चाहती है, तो देश की रीढ़ किसान की रक्षा किये बिना कुछ भी संभव नहीं है। किसान भूखा रहकर भी स्वाभिमान नहीं छोड़ता। बैंकों का कर्ज लेकर डकारने वाले नेता उद्योगपति ही होते हैं। इसलिए प्राइवेट फाइनेंसर नेताओं को ऋण नहीं देते। बेशक लाखांे स्वाभिमानी किसान आत्महत्या कर चुके हों। पर कर्ज़ से डूबे किसी नेता द्वारा आत्महत्या का अब तक कोई समाचार नहीं है।
दरअसल कुर्सी में ही दोष है। जो कल तक किसान की बात करते थे वे आज सत्ता के आकर पिछली सरकार के पदचिन्हों पर चल रहे हैं और कल के कुर्सी वाले आज विपक्षी बनकर विरोध का कर्मकांड निभा रहे है। जहां तक रहा अर्थशास्त्रियों का सवाल-- उनका जमीनी सच्चाई से कोई संबंध नहीं होता। वे आंकड़ों के खेल में माहिर होते है। अपनी खाल बचाने के लिए ये लोग कभी इसको तो कभी उसको बलि का बकरा बनाने से नहीं चूकते। सरकार को भूमि अधिग्रहण के संबंध में विवेक से काम लेना चाहिए। खेती की जमीन की बजाय पहले बंजर जमीन का उपयोग करना चाहिए। पूंजी निवेश के लिए काउंटर गारंटी की पेशकश करने वाले किसान को काउंटर गांरटी कब देंगे? पक्ष- विपक्ष का नाटक जारी है पर अंदर से सब एक है। बेटी बचाओं का नारा लगाने वाले जब करोड़ों के खर्च वाली शादी पार्टी में जाते हैं तो समझा जा सकता है वे ढ़ोंगी है। वास्तव में ऐसे लोग ही बेटियों के हत्यारे हैं। किसान के दुश्मन है। औपचारिकताओं के नाम पर झुंझुना पकडाते हैं। इस देश का भला भगवान भी नहीं कर सकते क्योंकि उसे भी हमने पत्थर बना दिया है। --विनोद बब्बर 9868211911
दरअसल कुर्सी में ही दोष है। जो कल तक किसान की बात करते थे वे आज सत्ता के आकर पिछली सरकार के पदचिन्हों पर चल रहे हैं और कल के कुर्सी वाले आज विपक्षी बनकर विरोध का कर्मकांड निभा रहे है। जहां तक रहा अर्थशास्त्रियों का सवाल-- उनका जमीनी सच्चाई से कोई संबंध नहीं होता। वे आंकड़ों के खेल में माहिर होते है। अपनी खाल बचाने के लिए ये लोग कभी इसको तो कभी उसको बलि का बकरा बनाने से नहीं चूकते। सरकार को भूमि अधिग्रहण के संबंध में विवेक से काम लेना चाहिए। खेती की जमीन की बजाय पहले बंजर जमीन का उपयोग करना चाहिए। पूंजी निवेश के लिए काउंटर गारंटी की पेशकश करने वाले किसान को काउंटर गांरटी कब देंगे? पक्ष- विपक्ष का नाटक जारी है पर अंदर से सब एक है। बेटी बचाओं का नारा लगाने वाले जब करोड़ों के खर्च वाली शादी पार्टी में जाते हैं तो समझा जा सकता है वे ढ़ोंगी है। वास्तव में ऐसे लोग ही बेटियों के हत्यारे हैं। किसान के दुश्मन है। औपचारिकताओं के नाम पर झुंझुना पकडाते हैं। इस देश का भला भगवान भी नहीं कर सकते क्योंकि उसे भी हमने पत्थर बना दिया है। --विनोद बब्बर 9868211911
गाँव, गरीब, किसान, जमीन अधिग्रहण
Reviewed by rashtra kinkar
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03:19
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किसानों की दयनीय स्थिति में सुधार पर यह सरकार भी हमेशा की तरह मौन...
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