प्लास्टिक की थैलियों पर प्रतिबंध की अव्यावहारिकता-- डा विनोद बब्बर


गत दिवस पर्यावरण विभाग द्वारा जारी एक आदेश के अनुसार दिल्ली में 22 दिसंबर के बाद प्लास्टिक की थैलियां बनाने, बेचने और अपने पास रखने पर पूरी तरह पाबंदी होगी। इसके मुताबिक, पत्रिकाओं, आमंत्रण पत्र और ग्रीटिंग कार्ड्स की पैकिंग में भी प्लास्टिक थैली अथवा कवर के इस्तेमाल पर भी पाबंदी होगी। इस आदेश के अनुसार न केवल सभी फैक्ट्रियों एवं निर्माण इकाइयां बंद करने को कहा गया है बल्कि प्लास्टिक की थैलियां बेचने के काम में लगे कारोबारियों को अपना कारोबार बंद करने का निर्देश दे दिया गया है। निर्देश का उल्लंघन करने वाले को पांच साल की जेल या एक लाख रुपए का जुर्माना होगा। इस दायरे में दुकानदार, वेंडर, थोक विक्रेता, खुदरा कारोबारी और हॉकर भी होंगे। ज्ञातव्य है कि दिल्ली सरकार ने 11 सितंबर को शहर में प्लास्टिक बैग का इस्तेमाल रोकने का फैसला किया था जिसे व्यवहारिक रूप प्रदान करते हुए सभी को दो महीने की मोहलत देते हुए यह अधिसूचना जारी की गयी है। वास्तव में देश के बिगड़ते पर्यावरण से चिंतित कुछ संगठनों की मांग तथा उच्च न्यायालय के आदेश के बाद दिल्ली सरकार ने जनवरी 2009 में राजधानी के तमाम बाजारों होटलों, शॉपिंग मॉल, अस्पतालों आदि में प्लास्टिक बैग के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाई थी लेकिन इसका खास असर नहीं पड़ा था। अब पर्यावरण संरक्षण कानून 1986 के प्रावधानों के तहत प्लास्टिक बैग के इस्तेमाल पर रोक लगाया गया है। विशेषज्ञों के अनुसार दिल्ली में लगभग 400 फैक्ट्रियों में प्लास्टिक की थैलियां बनती हैं। ऊपरी तौर पर यह फैसला पर्यावरण संरक्षण के लिए लिया गया प्रतीत होता है लेकिन इसे व्यावहारिकता की कसौटी पर कसने पर स्पष्ट होता है कि यह महज एक खाना-पूर्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। पिछले दिनों गुटखे पर प्रतिबंध की दशा यह है कि आज पूरी दिल्ली में बिना तम्बाकू का पान मसाला और अलग से तम्बाकू-जर्दा धड़ल्ले से बिक रहे हैं। बहुत संभव है कि बिना कोई विकल्प प्रस्तुत किये जारी किया गया यह आदेश भी केवल फाइलों की शोभा बनकर रह जाए या फिर कुछ अफसरों के लिए भयादोहन कर वसूली का एक और माध्यम बन भ्रष्टाचार के विस्तार में सहायक बने। वैसे उत्पादन, वितरण औरं उपयोग में लाने वाले लोग फिलहाल असमंजस्य में हैं। प्लास्टिक की थैलियांें पर प्रतिबंध लगाने के लिए अक्सर तर्क दिये जाते हैं कि- इनसे नालियाँ/ सीवर जाम हो जाते हैं, ये पर्यावरण के लिए हानिकारक हैं, इनमें खाद्य पदार्थ डालने से कैंसर हो सकता है, पशुओं द्वारा निगल लिये जाने पर उनकी जान को खतरा है, ये पुनःचक्रण योग्य नहीं हैं, आदि-आदि। इस प्रतिबंध के लिए दिल्ली सरकार ने उच्च न्यायालय के एक फैसले को आधार बनाया है। वास्तव में, वर्ष 2004 में एक याचिका दायर किये जाने पर सेवानिवृत्त जज श्री आर.सी.चोपड़ा के नेतृत्व में विशेषज्ञों की एक समिति बनाई गई थी। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया है कि प्लास्टिक बैग उपयोगी एवं प्रदूषण-रहित है। उन्होंने इन थैलियों की मोटाई 20 माइक्रोन से बढ़ाकर 40 माइक्रोन करने की अनुशंसा की। माननीय उच्च न्यायालय ने 7 अगस्त 2008 को समिति की अनुशंसा को स्वीकार करते हुए मोटाई 20 माइक्रोन से 40 माइक्रोन करने का आदेश पारित किया, तो 21 नवम्बर 2008 को दिल्ली मंत्रीमंडल ने भी न्यायालय के आदेश के अनुरूप मोटाई 20 से 40 माइक्रोन करने के निर्देश जारी कर दिए। परन्तु, बाद में इस आदेश को पलटते हुए प्लास्टिक की थैलियों पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया। प्रतिबंध के समर्थकों को शिकायत है कि मात्र अधिसूचना जारी करना ही पर्याप्त नहीं है। सख्त कार्यवाही भी होनी चाहिए जबकि व्यापारियों का मत है कि प्रतिबंध लगाने के लिए दिये गये समस्त तर्क व्यावहारिकता की कसौटी पर कहीं खरे नहीं उतरते। इस संबध में, वे गुवहाटी उच्च न्यायालय की टिप्पणी का हवाला देते हैं। जबकि आम आदमी मानता है कि यह सच है कि एक लम्बे समय से समूचे देश में पोलिथिन बैगों का प्रयोग किया जा रहा है। इससे जनता के स्वास्थ्य और स्वास्थ्य विज्ञान के लिए शायद उतना बड़ा खतरा नहीं होता जितना प्रचारित किया जा रहा है। पर्यावरण की क्षति पर सर्वसम्मत मत है कि कागज के लिफाफे प्रयोग होने से भीे स्थिति बदलाव नहीं होगा क्योंकि कागज का उत्पादन बढ़ाने के लिए अधिक वृक्षों का कटना तय है। यदि दोनों पक्षों (प्रतिबंध के समर्थक और विरोधी) से हट कर निष्पक्ष दृष्टि से समस्या का अध्ययन किया जाए, तो हमें स्वीकार करना होगा कि आज की जीवन-शैली में प्लास्टिक और प्लास्टिक बैग्स की महत्वपूर्ण भूमिका है। अचानक इनके बिना जीवन की कल्पना कुछ कठिन दिखाई देती है। जहाँ तक खा़द्य पदार्थों पर दुष्प्रभाव का प्रश्न है, अच्छी क्वालिटी की सामग्री लगाकर खतरे कोे कम किया जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बिना किसी वैकल्पिक व्यवस्था के यह कार्य किया गया। क्या बाजार से एक-ही झटके में सामान हटाकर व्यवस्था बरकरार रखी जा सकती है? क्या कागज के लिफाफे इनका स्थान ले सकते हैं? क्या कागज की माँग बढ़ जाने से पर्यावरण- संतुलन प्रभावित नहीं होगा, जैसे अनेक सवाल उभर कर सामने आते हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा पैंकिंग के नाम पर प्रयोग में लायी जा रही रंग-बिरंगी पैकिंग पर सरकार की दृष्टि का वक्र न होना अनेक संदेह उत्पन्न करता है। यदि प्लास्टिक की थैलियां पर्यावरण के लिए सचमुच कोई समस्या उत्पन्न कर भी रही हैं तो जनता को जागरूक करने तथा इसके इस्तेमाल को धीरे-धीरे हतोत्साहित किया जाना चाहिए। नालियां और सीवर जाम करने या पशुओं द्वारा निगल कर बीमार हो जाने पर हमारा मत है कि यह समस्या थैलियों से नहीं, उनके गलत इस्तेमाल से होती है। लोगों को इसके लिए जागरूक किया जाना चाहिए। यदि गलत इस्तेमाल के लिए किसी दूसरे को प्रतिबंधित किया जाएगा, तो मनुष्य द्वारा तकनीक के गलत इस्तेमाल पर क्या मनुष्य पर ही प्रतिबंध लगा दिया जाए?’ सरकार को गुणवत्ता पर जोर देना चाहिए, न कि पूर्ण प्रतिबंध पर। बिना तैयारी के ऐसे फैसले लेने का अर्थ है, आप वास्तव में ही पर्यावरण-संरक्षण के प्रति गंभीर नहीं हैं वरना पैकिंग प्लास्टिक बैग्स को छोड़ने का क्या औचित्य है? आज थैलियां ही नहीं होटल और रेस्टोरंट्स में खाने की पैंकिंग के एक बार इस्तेमाल कर फेंक दिए जाने वाले डिब्बे भी तो प्लास्टिक के हैं। शादी-पार्टी से भंडारे तक डोने, चम्मच भी प्लास्टिक के इस्तेमाल होने का प्रचलन पूरे जोरों पर है। इनकी अनदेखी किये बिना पर्यावरण की चिंता का अधूरा माना जाएगा। यह तो ठीक वैसे हुआ कि गुड़ खाएं लेकिन गुलगुले से परहेज बतायें। वैसे आज स्थिति यह बन चुकी है कि लोग घर से थैला लेकर नहीं जाते। ऐसे फल-सब्जी हो या दाल-चावल, थैलियों के बिना खरीदेगा ही कौन? यह भी कि ग्राहक घर से एक थैला ला सकता है। पर हर चीज़ के लिए अलग-अलग कितने थैले लेकर चलेगा?’ बेशक पहले प्लास्टिक थैलियों के बिना काम चलता था लेकिन तब और आज के जीवन में जमीन- आसमान का फर्क है। तब इंसान की जरूरतें सीमित थीं। बहुत कम वस्तुओं से काम चल जाता था पर आज एक चीज के बिना भी आप जी नहीं सकते। सरकार को इस गंभीर विषय को इतने हल्के ढंग से नहीं लेना चाहिए। बड़े फैसले इतने छोटेे ढंग से लेने का स्पष्ट अर्थ है कि दाल में ज़रूर कुछ काला है। आज, प्लास्टिक-बैग्स पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का अर्थ है- व्यापार तथा जनजीवन को ठप्प करना। इस संबंध में क्रमिक सुधार किये जाने चाहिएं। प्लास्टिक की थैलियों से सीवर जाम होना प्रमाणित करता है कि हमारी सोच सामुदायिक नहीं रही। हम मौका-बेमौका पश्चिम की निंदा करते रहते हैं लेकिन क्या हमें उनसे सामान्य लोक- व्यवहार की शिक्षा नहीं लेनी चाहिए? आखिर थैली अथवा अन्य सामान नालियों/सीवर तथा सड़क पर डालना कैसी सभ्यता है? यह भी सच है कि पशुओं द्वारा थैलियों निगलना एक बड़ी समस्या है। इसका दोष भी थैलियों से अधिक थैलियों में खाद्य वस्तुएं डालकर फंेकने वालों का है या फिर उनका है जो एक तरफ तो गऊ को माता बताते हैं तो दूसरी ओर उसे आवारा घूमने के लिए छोड़ देते हैं। यदि सामुदायिक व्यवहार व शिष्टाचार ठीक न होने पर जुर्माना किया जाए, तो शेष समस्यायें भी हल हो सकती हैं। लेकिन, प्लास्टिक की थैलियों पर चलताऊ ढंग से प्रतिबंध लगाना व्यावहारिक नहीं है।
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