हे राम, रावण ही रावण! He Ram, Ravan hi Ravan! Vinod Babbar


विजयादशमी के बारे में हमारे पूर्वजों ने सिखाया है कि इसी दिन मर्यादा पुरूषोतम भगवान राम ने दुराचारी रावण का वध किया था। तभी से यह दिन लोकपर्व बन गया। जन -जन की आकांक्षाओं का प्रतीक पर्व, जो असत्य पर सत्य की विजय का उद्घोष करता है। विजयादशमी निकट आती है तो देश भर में रामलीलाओं की सिलसिला शुरु हो जाता है लेकिन इस बार परिदृश्य बदला हुआ है। चहूं ओर रावणलीला का नजारा है। इस बार अधर्म के प्रतीक रावण और उसके साथियों के पुतलो की बजाय राजनीति के पुतले चहचहा रहे हैं। ऐसे में जब हमारी सम्पूर्ण राष्ट्रीयता, सभ्यता, संस्कृति और उसकी प्रतिष्ठा दाँव पर है, एक ओर स्वयं राम के होने पर ही प्रश्नचिन्ह लगाया जा रहा हो दिया तो दूसरी राम का नाम लेकर आगे बढ़ने वालों का दामन भी मैला दिखाई दे रहा है। आज जब राम की धरती भ्रष्टाचार के कीचड़ से सनी हो, केन्द्रीय दामाद से केन्द्रीय मंत्रियों तक के लिए मुंह छिपाने की जगह ढ़ूंढ़ी जा रही हो,चहूं ओर अंधेरा नहीं तो कोहरा अवश्य है। ऐसे में यह रामभक्त देश आखिर जाए तो जाए कहाँ?क्या कोहरे और अंधेरे के बीच कोई पर्व मनाया जा सकता है? जब हम चिंतन करते हैं तो प्रकृति के इस नियम का स्मरण होता है कि जब -जब मौसम बदलता है तो धुंध, कोहरा भी हो सकता है। ऐसे में मन के किसी कोने में यह आशा बंधती है कि यह युग परिवर्तन की बेला है। भारत फिर से विश्वगुरु के पद पर प्रतिष्ठित होगा। पर आशाओं के भरोसे हाथ पर हाथ रखे बैठा भी तो नहीं रहा जा सकता। आखिर हम खामोश क्यों रहे? क्यों न पूछे कि श्रीराम पर प्रश्नचिन्ह लगाने वालों ने अथवा उनके पूर्वजों ने कभी रावण के आस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह क्यों नहीं लगाया? कभी कुम्भकरण, मेघनाथ, ताड़का को क्यों नहीं नकारा? ऐसे प्रश्नों से बचने से काम चलने वाला नहीं है क्योंकि हमारी खामोशी से मर्ज बढ़ेगा ही। हम अपने चारों ओर नजर दौड़ाएं तो अनेक रावण दिखाई देते हैं। बेशक इन रावणों के नाम कुछ और हो, स्वरूप बदला हुआ हो अथवा चेहरा भी भयानक न हो पर यह तय है कि इन रावणों के सामने वह ‘बेचारा रावण भी कुछ नहीं है। वह तो मात्र ‘दशानन’ था पर आज के रावण ‘सहस्त्रानन’ हो तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हमने ज्यों ही आज के रावणों की सूची बनाने का काम शुरू किया, बात इतनी दूर तक पहुंच गई कि यदि सब नाम छापे जाए तो शायद यह धरा भी छोटी पड़ जाए इसलिए इस सूची को छोटा, बहुत छोटा करने का प्रयास किया तो यह तथ्य सामने आया कि हमारे चारो ओर रावण के भी बाप पड़े है। अस्पृश्यता, मानव-मानव में भेद, बढ़ता आर्थिक शोषण, नारी भू्रण हत्या, महिला शोषण, दहेज, निठारी की दुष्ट मानसिकता, देशद्रोही घुसपैठ, आतंकवाद, बेलगाम जनसंख्या, उन्मादी फतवे, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, तुष्टिकरण, अशिक्षा, कुपोषण, अश्लीलता, नशे का फैलता जाल, बढ़ती असहिष्णुता, वैचारिक प्रदूषण, बुजुर्गों की दुर्दशा, बाल मजदूरी, अपसंस्कृति फैलाते टीवी चैनल, अपहरण उद्योग, लोकहित की उपेक्षा, भय-भूख-बेरोजगारी, पर्यावरण का अतिवादी दोहन, महंगाई, गरीब से दूर होता विलम्बित न्याय.....। इन रावणों से हम में से कोई परिचित न हों, ऐसा नहीं हो सकता पर कभी-कभी ऐसा लगता है कि शायद इन रावणों के वध के लिए हम सभी पूरे मन से तैयार नहीं है। इन में से अनेक तो हमारे नेताओं की नाजायज संतानें हैं। इनके आस्तित्व में ही हमारे बाहुबली नेताओं के प्राण बसते हैं, उनके इन अमृत पुत्रों का अंत सरल नहीं है क्योंकि आज सत्य और ईमानदारी की राह पर चलने वाला सीधा सरल व्यक्ति पथ पर तो अपने छल-बल की शक्ति से समाज पर हावी हुए लोग रथ पर सवार है। ठीक वही दृश्य है जो राम-रावण युद्ध का था- ‘रावण रथी, विरथी रघुवीरा’। आज देश के हालात बदलने के पुरजोर दावों के बीच आर्थिक असमानता का घना कोहरा छाना हमारे दावों के खोखलेपन का संकेत है। एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि भारत में व्यक्तिगत आयकर देने वालों की संख्या बढ़ रही है तो दूसरा समाचार यह भी कि एक ऐसा वाहन चोर पकड़ा गया जो चोरी की आय से आयकर भी अदा करता था। ऐसे विरोधाभासों से जाहिर है कि उन्नति के हमारे दावे कहीं भटके हुए हैं। गगनचुम्बी अटालिकायें, राष्ट्रीय राजमार्गों, मोबाइल क्रांति विकास की कसौटी है तो पेयजल, रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है। खाली पेट टाई लगाने को विकास नहीं कहा जा सकता है। कर्ज में दबे किसानों द्वारा आत्महत्या करने के समाचार छिपाये नहीं छिपते, गांवों से पलायन जारी है, लगभग हर रेलगाड़ी उन लोगों से भरी दिखाई देती है जो रोजी-रोटी की तलाश में पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, मुम्बई, गुजरात ही नहीं कश्मीर की ओर कूच करने को विवश हैं। पिछले दिनों अमेरिका में बसे मित्र आए तो उन्होंने दोनो देशों की परिस्थितियों के अंतर को रेखांकित करते हुए जनसंख्या तथा भ्रष्टाचार के बेकाबू होने कोे भारत के विकास में बाधक बताया। उनका कहना था- जो लोग विदेशों में जाकर हर नियम का ईमानदारी से पालन करते हैं, वे भारत लौटते ही ‘जुगाड़’ में लग जाते हैं। यदि यहां जनता की भलाई की योजनाओं को ईमानदारी से लागू किया गया होता तो कोई भ्रष्टाचार, भय, भूख, रोग, अशिक्षा, असमानता, बेकारी जैसे अनेक रावणों के जिन्दा रहने का यदि कोई कारण है तो शायद जनता में जागरूकता और प्रतिकार के लिए दृढ ़इच्छा शक्ति का अभाव है। असत्य की शक्ति चाहे कितनी भी बढ़ जाए, बेशक आसमान को अव्यवस्था के काले बादल ढक ले, काली रात चाहे कितनी भी लम्बी हो पर सूर्य हर बादल, हर अंधेरे को चीर कर अवश्य निकलता है। आखिरी जीत तो नैतिकता की होती है, सच्चाई, ईमानदारी की होती है। विजयादशमी के अवसर पर शस्त्रपूजन की परम्परा भी है। हम शस्त्रपूजन कर शक्ति का आह्वान करते हैं। अभी हमने दुर्गापूजा का पर्व भी मनाया है, दुर्गा जो शक्ति की प्रतीक है, असुरी शक्तियों के विनाश का जयघोष है। क्या हमने उसको पूजा केा केवल कर्मकांड मान कर ही निपटाया है या फिर उनसे ‘विनाशाय च दुष्कृताम’ का संकल्प भी लिया है? आज के लोकतांत्रिक युग में हम सभी के पास ब्रहमास्त्र है, ऐसा ब्रह्मास्त्र जो एक ही बार में अधिकांश राक्षशों का वध कर सकता है पर दुख की बात तो यह है कि हम इस ब्रहमास्त्र की महत्ता को नहीं समझते। इसका उपयोग करते समय हम देखते हैं उसकी पार्टी, उसकी जाति, उसकी ताकत, उसकी जेब, उसका धर्म, पर नहीं देखते उसकी योग्यता, उसका चरित्र तो फिर रावण विरथी कैसे होगा? कैसे राम रथी होंगे? जरा सोचिये आज और अभी सोचिये! कहीं ऐसा न हो कि आप सोचते ही रहें और ये रक्तबीज की तरह बढ़ते हुए कर दे आपका जीना हराम। रावणों की चर्चा के बीच एक चर्चा आज के राम की भी करना सामयिक होगा। आज जब सब धन की अंधी दौड़ में पागल हैं, बड़ी-बड़ी बातें करने वाले भी छोटे-छोटे सिक्कों के लिए रपट जाते हैं पहलवान सुशील कुमार ने एक शराब बनाने वाली कम्पनी के विज्ञापन के पचास लाख के ऑफर को ठोकर मार दी। कोटिश शुभकामनाएं इस मर्यादा पुरुषोत्तम पहलवान को! ऐसे में जरूरत है कैफी आजमी की इन पंक्तियाँ को अपने दिल में बसााने की ताकि जब कोई हमारे आज का इतिहास लिखे तो बहुत शान के साथ लिखे रावण विरथी, रथी रघुवीरा- ‘खींच दो अपने खूं से जमी पर लकीर इस तरफ आने पाए न रावण कोई तोड़ दो हाथ गर हाथ उठने लगे छुने पाए न सीता का दामन कोई अब तुम्ही राम! तुम्ही अब लखन साथियो! अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो!’ ---डा विनोद बब्बर
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