लोकतंत्र में विरोध की सीमाएं Loktantr me virodh ki seemaye ---डा. विनोद बब्बर Dr. Vinod Babbar


सारी दुनिया भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बताती है तो गर्व से हमारा सिर तन जाता हैं कि हमने दुनिया को एक श्रेष्ठ शासन प्रणाली दी। आधुनिक समाज में लोकतंत्र की परिभाषा बेशक ‘जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन’ हो लेकिन आज कुछ दिनों पूर्व मलयेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने कहा था, ‘भारत चीन की बराबरी कर सकता है लेकिन यहाँ जरूरत से ज्यादा लोकतंत्र है।’ उनके बयान का समर्थन करते हुए केंद्रीय मंत्री फारूक अब्दुल्ला भी कह चुके हैं, ‘अब देश में अनियंत्रित लोकतंत्र को अपनाने का समय आ गया है।’ केंद्रीय जांच ब्यूरो और राज्यों के इस सप्ताह भ्रष्टाचार निरोधी ब्यूरो के 19वें सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री जी ने इस बात पर निराशा प्रकट की है कि भ्रष्टाचार के मसले पर विपक्ष नकारात्मक प्रचार कर रहा है। नकारात्मकता के बेतुके माहौल से सिर्फ राष्ट्र की छवि को ही नुकसान होगा और सरकार का मनोबल प्रभावित होता है। 1990 के दशक में नियंत्रण एवं लाइसेंस -परमिट राज के साथ आर्थिक सुधार की प्रक्रिया शुरू की गई थी, जिसके बाद भ्रष्टाचार के मामले कम हुए थे। इसी कार्यक्रम में उन्होंने यह भी कहा कि तेज आर्थिक विकास ने भ्रष्टाचार के नए अवसर पैदा किए। इसके जवाब में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने निशाना साधते हुए कहा कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने दुनिया को लोकतंत्र की प्रसिद्ध परिभाषा ‘जनता की, जनता के द्वारा और जनता के लिए दी, लेकिन हमारे प्रधानमंत्रीजी ने मल्टी ब्रांड खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की अनुमति देकर ‘विदेशियों की, विदेशियों के द्वारा और विदेशियों के लिए’ की नई परिभाषा दी है। यह पहला अवसर नहीं है जब विपक्ष के आंदोलन पर इस तरह के सवाल उठाये गये हो। इससे पूर्व भी कहा जाता रहा है कि संसद में हंगामा, कामकाज ठप्प से धरना, प्रदर्शन, बंद से देश का भला होने वाला नहीं है। यदि इन बातों को गंभीरता से लें तो कोई भी विवेकश्ाील व्यक्ति पूछेगा कि तब लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका क्या होनी चाहिए? क्या विपक्ष को केवल चुनावों के समय ही अपनी गतिविधियां चलानी चाहिए? यह सत्य है कि बंद के आयोजन से देश की प्रगति बाधित होती है। पिछले कुछ अनुभव तो बताते हैं कि अब सरकारों पर इस प्रकार के आंदोलनों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता और वे अपने गलत फैसलों पर भी फिर से विचार तक नहीं करती। परंतु महंगाई, भ्रष्टाचार, करटेल में विदेशी पूंजी निवेश जैसे मुद्दों पर खामोश भी तो नहीं जा सकता। ऐसे में यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि लोकतंत्र में जनविरोधी फैसलों के विरोध की क्या कोई सीमा होनी चाहिए? बेशक लोकतंत्र पर लगाम कसने से शासकों के लिए फैसले लेना आसान हो जाएगा लेकिन क्या इससे विकास की राह में रुकावटें दूर हो जाएगी? शायद यह भ्रम है क्योंकि स्वतंत्रता एवं चयन के विकल्पों सहित विकास की परिभाषा सबसे अहम हैं। किसी भी स्वस्थ और सभ्य समाज की नीतियां बहस और आम सहमति से तैयार की जानी चाहिए। इस प्रक्रिया को अधिकतम दोषमुक्त बनाना चाहिए क्योंकि तभीे हर नागरिक के जीवन की गरिमा और विकास के टिकाऊपन को सुनिश्चित किया जा सकता है। इसके विपरीत जिसे अनियमित और अनियंत्रित लोकतंत्र कहा जा रहा है, उसे सही अर्थाेे में समझने की जरुरत है। यह उचित नहीं होगा कि देश की अर्थव्यवस्था सुधारने के नाम पर देश के सबसे निचले पायदान पर खड़े नागरिक का तो सर्वस्व ले लिया जाए लेकिन पूंजीपति को अधिकतम छूट दी जाए। जो लोग तानाशाह अथवा प्रतिबंधित लोकतंत्र को प्रगति के लिए अनिवार्य मानते हैं वे भूलते हैं कि लोकतंत्र और समृद्धि का रिश्ता बहुत जटिल है। आज भी बहुत से देश ऐसे हैं जहाँ तानाशाही के होते हुए भी भारी विपन्नता है। अतः यह समझना होगा कि लोकतंत्र से समृद्धि आती है या समृद्धि से लोकतंत्र आता है। यदि हम दुनिया के वर्तमान परिदृश्य पर नजर दौड़ाये तो स्पष्ट होता है कि लोकतंत्र और समृद्धि के आपसी रिश्ते बहुत जटिल हैं। पिछले कुछ वर्षों में इंटरनेट के आने से दुनिया भर में लोकतांत्रिकरण की प्रक्रिया बहुत तेज़ हो हुई है। अनेक देशों में जनक्रांतियां हुई हैं। इसी कारण संवेदनहीन सरकारें सेंसरशिप लागू करने की कोशिशें कर रही हैं। इंटरनेट एक दोधारी तलवार है। चीन में करोड़ों लोग इंटरनेट से जुड़े हुए हैं, क्योंकि इसके बिना अब व्यवसाय चलाना मुश्किल है। इंटरनेट से व्यवसाय ही नहीं, विचार भी फैलते हैं। स्वयं चीन के पूर्व राष्ट्रपति तंग श्याओ पिंग ने कभी कहा था, ‘खिड़कियाँ खोलने पर ताज़ा हवा तो आती है लेकिन मच्छर भी आते हैं।’ लोकतंत्र को सिर्फ़ समृद्धि के नज़रिए से नहीं देखा जाना चाहिए। उसके अनेक अन्य फ़ायदे भी है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण स्वयं भारत है। सारी दुनिया मानती है कि वह भारत का लोकतंत्र ही है जिसने इतनी बढ़ी जनसंख्या को उसकी विविधता के बावजूद एकसूत्र में जोड़े रखा है जबकि बहुत कम विविधता के बावजूद उसके पड़ोसी पाकिस्तान की दशा इससे ठीक उल्ट है। इसका एकमात्र कारण लोकतंत्र का अभाव ही माना जाता है। जहाँ तक लोकतंत्र का प्रश्न है प्राचीन काल से ही भारत में सुदृढ़ व्यवस्था विद्यमान थी। इसके साक्ष्य हमें प्राचीन साहित्य, सिक्कों और अभिलेखों से प्राप्त होते हैं। विदेशी यात्रियों एवं विद्वानों के वर्णन में भी इस बात की पुष्ठि करते हैं। प्राचीन गणतांत्रिक व्यवस्था में आजकल की तरह ही शासक एवं शासन के अन्य पदाधिकारियों के निर्वाचन की प्रक्रिया आज के दौर से थोड़ी भिन्न जरूर थी। ऋग्वेद तथा कौटिल्य साहित्य इसकी पुष्टि करते है। प्राचीन समय में परिषदों का निर्माण किया जाता था। जो वर्तमान संसदीय प्रणाली से मिलता-जुलता रूप था। इनके अधिवेशन नियमित रूप से होते थे। किसी भी मुद्दे पर निर्णय होने से पूर्व सदस्यों के बीच में इस पर खुलकर चर्चा होती थी। सही-गलत के आकलन के लिए पक्ष-विपक्ष पर जोरदार बहस होती थी। उसके बाद ही सर्वसम्मति से निर्णय का प्रतिपादन किया जाता था। सबकी सहमति न होने पर बहुमत प्रक्रिया अपनायी जाती थी। कई जगह तो सर्वसम्मति होना अनिवार्य होता था। कभी-कभी यह सवाल भी मन में उठता है कि क्या हम सच्चा लोकतंत्र हैं? क्या आज हमारे यहाँ पूरी ईमानदारी से जन-प्रतिनिधियों का चुनाव होता हैं? कड़वे सच से हम मुंह नहीं मोड़ सकते। अरे, जब दलों में ही लोकतंत्र नहीं है तो उनकी कार्य प्रणाली जिसमें टिकट वितरण भी शामिल है, पूरी तरह न्याय संगत कैसे हो सकता है? विभिन्न राजनीतिक दल जिसे चुनते हैं, हम उन्हीं में से किसी एक को चुनने को बाध्य होते हैं। ऐसे में हम कैसे कह सकते हैं कि हमने अपने मनपसंद उम्मीदवार को चुना? आज अधिकांश दल व्यक्तिवादी और वंशवादी हैं। जब इन दलों में भीतरी लोकतंत्र ही नहीं है तो वे देश में सच्चा व मजबूत लोकतंत्र स्थापित करने की कोशिश क्या करेंगे? ऐसे में यह प्रश्न चिंतन की मांग करता है कि तानाशाही और लोकतंत्र के बीच की महीन लकीर को किस तरह से न केवल बचाया जाए बल्कि उसे लगातार मजबूत किया जाए। क्यों न सरकार के मनमाने फैसलों पर विरोध का कोई तरीका ऐसा निकला जाए जिससे कम से कम अव्यवस्था के साथ विरोध का लक्ष्य पूरा हो सके। वर्तमान दशा को देखकर कहा जा सकता है, ‘सरकारें मदमस्त हैं। उन्हें इस बात का बोध भी नहीं रहा कि यह उनका भी देश है फिर वे ही क्यों न अपने फैसले पर पुनर्विचार करंे? क्या हम विवादों की आग के बीच उसमे और पेट्रोल डाले या शांति और सद्भावना का जल उसपर डालकर उसे बुझाने के अपने कर्तव्य का पालन करें। आज जिस प्रकार की आर्थिक असुरक्षा महसूस की जा रही है, उसका एकमात्र कारण यह है कि जो लोग एक पीढ़ी पहले तक ग़रीबी में जी रहे थे और अब अपनी कड़ी मेहनत से सही राह पर आने के लिए हाथ-पांव मार रहे थे। उनकी पहली चिंता अपनी स्थिति में सुधार की है, शायद यही वजह है कि कई देशों में राजनीतिक अधिकारों के बदले समृद्धि पर अधिक ध्यान दे रहे हैं लेकिन यह अस्थायी स्थिति है जो समय के साथ बदलेगी। प्रश्न तो यह है कि हमारे प्रधानमंत्रीजी तथा विपक्ष के नेताओं की सोच भी बदलेगी या वे अपनी बारी आने पर वहीं सब करते हुए दूसरो को ऐसी अव्यवस्था के लिए जिम्मेवार ठहराते रहेंगे? क्या लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए हमारे वंशवादी नेता निहित स्वार्थ से ऊपर उठेगें? आखिर लोकतंत्र की सफलता नित्य नई परिभाषा घड़ने अथवा उसे सीमाओं में बांधने से नहीं बल्कि उसे केवल और केवल जनता की भलाई में समर्पित करने में हैं।
-डा. विनोद बब्बर
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