न दैन्यं न पलायनम् भ्रष्टाचार से मुठभेड़ से पलायन क्यों?--- डा. विनोद बब्बर

केंद्रीय सतर्कता आयोग के स्वर्ण जयंती समारोह का शुभारंभ करते हुए राष्ट्रपति  प्रणब मुखर्जी ने भ्रष्टाचार पर प्रहार करते हुए कहा कि इसके कारण लेनदेन की लागत, लोक सेवाओं की क्षमता, निर्णय करने की प्रक्रिया में विकृति आई है और समाज का नैतिक ताना बाना कमजोर हुआ है। भ्रष्टाचार से असमानता और गरीबों तक लोक सेवाओं की पहुंच सीमित हुई है। इसी क्रम में भ्रष्टाचार के विषय में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पी सदाशिवम का मत है कि या तो लोगों ने देश को भ्रष्टाचार-मुक्त बनाने की उम्मीद छोड़ दी है या उन्होंने इसे जिंदगी की एक असलियत मानकर भ्रष्टाचार से समझौता कर लिया है। 
केवल इन्हीं दो महापुरुषों के वक्तव्य ही नहीं, सच तो यह है कि भ्रष्टाचार आज सर्वाधिक उपयोग में आने वाला शब्द है। देश के किसी भी मंच, किसी भी टीवी, किसी भी पत्र-पत्रिका को उठाकर देखे,  जो शब्द सबसे अधिक बोला अथवा लिखा, पढ़ा जाता है वह है ‘भ्रष्टाचार’। आश्चर्य है कि इतना अहम विषय जिस पर सब बोल रहे हैं, उसे मिटाने के लिएं, खुद से सरकार तक को कुर्बान करने का शोर है लेकिन वह न सिर्फ सलामत है बल्कि फलफूल रहा है तो जाहिर है कि मामला केवल शब्दों तक ही अटका है।
जहाँ तक भ्रष्टाचार के शब्दिक अर्थ का प्रश्न है- भ्रष्ट आचरण या पतित व्यवहार। नियमानुसार कार्य न करना, अति स्वार्थ में लिप्त होकर दूसरों के हितों की परवाह बिना किया गया कार्य भ्रष्टाचार है। इसके विभिन्न रूपों में रिश्वत, कमीशन लेना, काला बाजारी, मुनाफाखोरी, मिलावट, कर्तव्य से भागना, चोर-अपराधियों को सहयोग करना, अतिरिक्त गलत कार्य में रुचि लेना आदि माने जाते हैं। यह आम धारणा है कि सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार राजनैतिक क्षेत्र में हो रहा है। मंत्रियों को अमीर एवं धनी व्यक्तियों से धन लेकर अपराधियों को देना पड़ता है। ताकि वे चुनाव जीत जाएँ। फलस्वरूप चुनाव जीतने के बाद और व्यक्तियों की स्वार्थ पूर्ण शर्त पूरी हो जाती है। लेकिन शैक्षिक क्षेत्र से चिकित्सा तक शायद ही कोई क्षेत्र भ्रष्टाचार से बचा हो। 
भ्रष्टाचार वृद्धि के अनेक कारणों में समाज में धन का महत्व चरित्र से अधिक होना माना जाता हैे।  आज शुचिता और आदर्श  दरकने है तो स्पष्ट है कि यह सब एक दिन में नहीं हुआ। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जी ने ‘देश का पैसा देश में ही तो है’ कह कर भ्रष्टाचार को संरक्षण देने जो गलती की थी उसे बाद में उन्हीं की बेटी ने ‘भ्रष्टाचार वैश्विक समस्या है’ बताकर मजबूती प्रदान की। हद तो तब हो गई जब समाजवादी युवा तुर्क नेताजी कुर्सी पर बैठे तो उन्होंने बहुत बेबाकी के साथ घोषणा की, ‘भ्रष्टाचार देश के सामने कोई मुद्दा ही नहीं है।’ उनसे पहले बोफोर्स भ्रष्टाचार के सबूत जेब में लेकर घूमने वाले वीपी सिंह नौंटकी ही करते रहे। हद तो तक हुई जब पुरानी नीतियों को भ्रष्टाचार का मूल कारण बताते हुए आर्थिक उदारीकरण का रास्ता खोला गया जो भ्रष्टाचार को पहले ज्यादा तेजी से बढ़ाने का गेटवे साबित हुआ। मंत्री तक घोटालेबाज निकले, कुछ जेल भी गए लेकिन भ्रष्टाचार का बाल भी बांका नहीं हुआ। इसी बीच ‘भ्रष्टाचार’ शब्द ने व्यापक लोकप्रियता प्राप्त कर ली। हर जगह दिखावा लेकिन मामला जस का तस। यदि कोई कदम उठाया भी तो मजबूरी में अदालत के निर्देश पर या राजनैतिक लाभ-हानि के लिए। घोटालें सुर्खियां बटोरते रहे, जांच करने वाली देश की सबसे बड़ी संस्था को ‘तोता’ और ‘कठपुतली’ जैसे सम्मानों से नवाजा गया। पर राजनीति ने रास्ता नहीं बदला क्योंकि असली प्रश्न अपनी जगह बरकरार है कि क्या केवल आर्थिक लेनदेन में अनियमितता को ही भ्रष्टाचार कहा जाना चाहिए? क्या भ्रष्टाचार से लड़ने नहीं, लड़ते हुए दिखने को भ्रष्टाचार कहा जाए या नहीं? अपनी जिम्मेवारियों को पूरा करने की बजाय बंगाल की खाड़ी में गैस दोहन पर एफ.आई.आर. दर्ज करवाने का नाटक भ्रष्टाचार है या नहीं? पैसे लेकर संसद में प्रश्न पूछना भ्रष्टाचार है तो उनके चुनाव लड़ने पर अब तक प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया गया? टीवी इंटरव्यू में अपने दल के कुछ नेताओं को 84 के दंगों में शामिल बताना लेकिन उनके विरूद्ध किसी प्रकार की कार्यवाही न करना और फिर भी स्वयं को पाक साफ बताना भ्रष्टाचार के दायरे से कैसे बाहर है? सरकारी कर्मचारियों और सिपाहियों को नौकरी छोड़कर धरने में शामिल होने का आह्वान करने वाले ‘महापुरुष’ अपनी उच्चाधिकारी पत्नी को नौकरी छोड़कर धरने में शामिल होने को नहीे कहते उनका क्या यह आचरण शिष्ट है या भ्रष्ट फैसला होना ही चाहिए। क्या तेलंगाना बिल पेश किए जाने के दौरान लोकसभा में जो अप्रत्याशित घटना हुई है क्या वह भ्रष्टाचार का हिस्सा है या नहीं? आखिर कड़ी सुरक्षा के बीच  एक सांसद ने चाकू निकाल लिया तो एक अन्य सांसद ने मिर्च पाउडर स्प्रे कर कार्यवाही को रोकने का दुस्साहस आखिर कैसे किया? 
 एक ‘ईमानदार’ दल के स्वयं को ‘अराजक’ बताने वाले मुख्यमंत्री जी केन्द्र शासित प्रदेश होने के नाते संविधान की कुछ सीमाओं, व्यवस्थाओं से असंतुष्ट है तो उन नियमों, कानूनों में बदलाव के लिए उनका संघर्ष करना जायज हो सकता है लेकिन संविधान के पालन की शपथ लेकर संविधान की मर्यादा को तार-तार करने वाले के आचरण को भ्रष्ट नहीं तो और क्या कहा जाएगा? उसपर भी उनका मासूम तर्क है कि ‘जब 3-जी मामले में केन्द्रीय मंत्री राजा व अन्य संविधान का उल्लंघन कर रहे थे तो उन्हें किसी ने क्यों नहीं रोका? मुझे ही क्यों रोका जा रहा है?’ देश के उच्च अधिकारी रहे केजरीवाल साहिब निश्चित रूप से पढ़े लिखे हैं लेकिन समझदार कितने हैं वह इसी से समझा जा सकता है कि राजा एण्ड पार्टी पर मुकद्दमें, उनकी जेल यात्रा को वे संविधान के विरूद्ध काम करने की सजा नहीं मानते या फिर स्वयं के लिए भी उसी हस्र को प्राप्त होना चाहते हैं? चुनावी लाभ के लिए बंगाल जाकर वहाँ के एक बड़े नेता के साथ उसकी पार्टी द्वारा किये गये व्यवहार का ताना देने वाले का स्वयं अपने दल के भीष्मपिता को ‘धकियाना’ याद नहीं आया तो इसे भ्रष्टाचार की बजाय शिष्टाचार कहा भी जाए तो आखिर क्यों?
यदि केवल भ्रष्टाचार से मुठभेड़ करनी ही है तो हमें सबसे पहले राजनैतिक लाभ हानि का गणित भूलना होगा। चेहरा ही नहीं, चरित्र और चाल बदलने की दिशा में सोचना होगा। यह उचित नहीं कि भ्रष्टाचार को केवल आर्थिक मामलों तक ही सीमित किया जाए। यदि कोई आर्थिक भ्रष्टाचार को अन्य विकारों का कारक मानता है तो उसे समझना पड़ेगा कि इसके मूल में जो दो मुख्य कारक है, सबसे पहले उन्हीं पर प्रहार करना होगा। महंगे चुनाव और महंगी शिक्षा भ्रष्टाचार की जननी है। आज ईमानदार पार्टी के विधायक भी दुःखी हैं तो केवल इसीलिए कि वे जितना खर्च करके चुनाव मैदान से बाहर आए है उसका ‘रिटर्न’ कैसे हो? वे कुछ ‘कर’ नहीं पा रहे हैं क्योंकि दूसरा पक्ष  उनके लिए रास्ता बनाने को तैयार ही नहीं है आखिर सभी ‘बिन्नी’ नहीं हो सकते। आश्चर्य है कि ईमानदार शिरोमणि और उनके साथी चुनावी खर्च पर स्वयं ही घिरे हुए होने के बावजूद भ्रष्टाचार से जंग में सेनापति होने का दंभ भर रहे हैं।
आज शिक्षा के नाम पर ढ़ोंग हो रहा है। हर व्यक्ति नौकरी तो सरकारी पाना चाहता है, मंत्री, मुख्यमंत्री बनना चाहता है लेकिन अपने आश्रितों को महंगे स्कूल, कालेजों में भेजता है। मिस्टर क्लीन को क्यों दिखाई नहीं देता कि महंगी शिक्षा के लिए धन जुटाने के लिए लोगों को कितने पापड़ बेलने पड़ते है। सरकारी स्कूलों की दशा क्याा है, वहाँ शिक्षा का स्तर क्या है इसके जिम्मेवार वे लोग हैं जो  सांसद, विधायक, मंत्री, संत्री, तो रहना चाहते हैं पर अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में न भेजकर उनकी दशा बिगाड़ने के दोषी है। जो लोग कहीं भी शिक्षा पाने को अपना और अपने बच्चों का अधिकार मानते हैं तो क्या यह उनका कर्तव्य नहीं कि  जब उन्हें दूसरों को दी जाने वाली शिक्षा की क्वालिटी की परवाह ही नहीं है तो वे जल्द से जल्द ढ़ोंग करना बंद करते हुए राजनीति से किनारा करे। जरा सी समस्या होते ही देश के पंचसितारा अस्पतालों से विदेशों तक जाने वाले ‘जनसेवकों’ के लिए केवल और केवल सरकारी अस्पताल में इलाज करने की बायता होनी चाहिए। यदि ऐसा कर दिया जाए तो तय है कि सुविधा के लिए  सरकारी व्यवस्था में घुसने के इच्छुक लोग अपना दामन समेटने लगेंगे।
 कोई सभ्य समाज लगातार  दोगलेपन को साथ लेकर आगे नहीं बढ़ सकता। जब तक इस देश में एक भी आदमी भूखा है, दवा के बिना है, शिक्षा और उन्नति के अवसर से वंचित है तो  हर वह नेता भ्रष्टाचारी है जो सत्ता में रह चुका है। लोकपाल, जनलोकपाल, सीबीआई, आईबी, सर्तकता आयोग, न्यायालय तब तक भ्रष्टाचार को समाप्त नहीं कर सकती जब तक हम ऐसे दोगले नेताओं से स्वयं को मुक्त नहीं कर लेते। आज हम दोराहे पर खड़े हैं जहाँ हमें फैसला करना है कि क्या हम सचमुच भ्रष्टाचार से मुठभेड़ के लिए तैयार हैं या केवल अपनी ईमानदारी का ढोल पिटते हुए चमत्कार की तलाश में है।
न दैन्यं न पलायनम् भ्रष्टाचार से मुठभेड़ से पलायन क्यों?--- डा. विनोद बब्बर न दैन्यं न पलायनम् भ्रष्टाचार से मुठभेड़ से पलायन क्यों?--- डा. विनोद बब्बर Reviewed by rashtra kinkar on 00:54 Rating: 5

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