चरित्र और व्यवहार शून्य कैसा लोकतंत्र?

‘जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा’ चुनी हुई प्रणाली को लोकतंत्र कहा जाता है। दूसरे अर्थों में लोकतंत्र बहुमत का शासन है क्योंकि विचार भिन्नता, असहमति के दौर में सर्वसम्मति की कामना असंभव है। अपने राजनैतिक दलों के व्यवहार को देखकर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या भारत में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली है? लोकतंत्र, अपने प्रतिनिधियों के चेहरे, चरित्र और व्यवहार पर कुछ कहने से पहले कुछ ताजा घटनाओं की चर्चा करना प्रासंगिक होगा। देश के  चर्चित विश्वविद्यालय जेएनयू  में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर लगातार अपनी आवाज बुलंद करने वालो ने गत दिवस शैक्षिक परिषद की बैठक में अपने ही कुलपति को न केवल धमकाया बल्कि उनका कालर पकड़कर उसके साथ धक्का मुक्की भी की। इधर उत्तराखंड में सवोच्च न्यायालय के आदेश पर हुए शक्ति परीक्षण में  माननीय हरीश रावत जी बहुमत साबित करने में सफल रहे। उसके तत्काल बाद उनके नेता ने ट्वीट कर कहा, ‘वे जितना अधिक बुरा कर सकते थे, उन्होंने किया और हमने अपना सर्वश्रेष्ठ किया। उत्तराखंड में लोकतंत्र की जीत हुई है।’
यह सही है उन्हें अपने दल की सरकार बच जाने पर खुशी मनाने का अधिकार है लेकिन उन्हें यह  नहीं भूलना चाहिए कि माननीय हरीश रावत जी स्वीकार कर चुके हैं कि विधायकों की खरीद फरोख्त से संबंधित स्टिंग में आवाज उनकी ही है। यदि यह ‘सर्वश्रेष्ठ’  करना है जो लोकतंत्र क्या है? उसकी आपेक्षाएं क्या हैं? क्या प्रतिनिधि का चेहरा ही नहीं उसका चरित्र और व्यवहार भी लोकतंत्र की कसौटी पर परखा जाना चाहिए या नहीं?  
आखिर इस बात का औचित्य तो सिद्ध करना पड़ेगा कि यदि कोई ‘भारत के हजार टुकड़े’ करने की बात कहता है तो यह उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। लेकिन  उसी विश्वविद्यालय के कुलपति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो क्या उसे अपने ही विश्वविद्यालय परिसर में अपने ही विश्वविद्यालय की शैक्षिक परिषद की बैठक में भाग लेने की स्वतंत्रता भी बाधित करना आखिर लोकतंत्र की गरिमा को किस तरह कायम करता है इसपर तथाकथित बुद्धिजीवियों का मौन टूटना चाहिए।
बेशक यह सही है कि दुनिया की कोई भी प्रणाली पूर्णतः दोष रहित नहीं हो सकती। लेकिन वर्तमान में लोकतंत्र का अधिकतम दोष रहित प्रणाली मानते हुए विश्व के अािकतम लोगों ने अपनाया है। यंू लोकतंत्र की सबकी अपनी- अपनी परिभाषाएं और आपेक्षाएं हो सकती हैं लेकिन भारतीय मनीषा लोकतंत्र समस्त जनता के नैतिक समर्थन तथा अनुकूल आचरण की अपेक्षा रखता है। महाभारत के शांति पर्व में एक सभा का उल्लेख मिलता है जिसमें आम जनता के लोग होते थे, इसे जन सदन भी कहा जाता था।  इसी प्रकार कुबेर द्वारा युधिष्ठिर को संबोधित कथनानुसार - 
युधिष्ठिर, घृतिर्दाक्ष्यं देशकाल पराक्रमः। लोकतंत्र विधाना नामेष पंचविधो विधि।। 
(महाभारत 3.162.1) युधिष्ठिर, धैर्य, दक्षता, देश, काल और पराक्रम, ये पाँच राज्य कार्य की सिद्धि हेतु हैं।
आधुनिक संसदीय लोकतंत्र में चर्चा और बहुमत द्वारा निर्णय की परम्परा  है। आज हमारे अपने देश की संसद से विधानसभाओं में चर्चा का स्तर क्या है इसपर कुछ कहना व्यर्थ हैं लेकिन बहुमत जुटाने के लिए किये जा रहे नैतिक, अनैतिक प्रयासों की जानकारी भी सभी को है। संसद के दो सदन है। एक में सरकार का बहुमत है तो दूसरे में विपक्ष का। केवल विरोध के नाम पर  ऐसे में लगातार गतिरोध बने रहना किस तरह लोकतंत्र और लोकहित में है इसपर सर्वत्र मौन है। यह कहा जा सकता है कि गतिरोध की यह परम्परा  ‘हमने’ नहीं ‘उन्होंने’ आरम्भ की थी जो आज इसका दुष्परिणाम भोग रहे हैं। लेकिन सत्य यह है कि दुष्परिणाम न तो ‘उन्होंने’ भोगे और न ही ‘इन्होंने’। असली भुगतभोगी तो लोक और लोकतंत्र है। 
चेहरे का चाल से और व्यवहार का चरित्र से गहरा संबंध है। राजनीति में चालें चली जाती है। चालेे काटी जाती हैं। आक्रमण, प्रतिआक्रमण, रक्षण, संरक्षण, आक्रोश से चुप्पी साधने तक शतरंज की चालों के अतिरिक्त आखिर क्या है? लेकिन एक ही पक्ष का दो अलग-अलग स्थानों पर परस्पर विरोधी व्यवहार उसके चरित्र का परिचायक है। आखिर लोकतंत्र के ये कथित रक्षक लोकतंत्र की असली स्वामी जनता को मूर्ख क्यों समझते हैं? 
इतिहास के पन्ने उल्टे तो एक ‘सिंह’ स्विस बैंक का नम्बर जेब में रखे घुमता था। उसका दावा था कि सत्ता में आते ही ‘दलाल’ अंदर। लेकिन सत्ता आई और गई। कुछ नहीं हुआ। अब उन्ंही का नया संस्करण दिल्ली को मिला जो तत्कालीन मुख्यमंत्री के खिलाफ सैंकड़ो पेजी सबूत हर जगह दिखाता था लेकिन कुर्सी मिलते ही सबूतों का कहीं कोई अता पता नहीं। वे साहब अपने कामकाज की समीक्षा करने की बजाय डिग्रियों की जांच का दायित्व संभाले हुए हैं। अफसोस यह कि आज कोई भी दल इन मुखौटों से मुक्त नहीं है। वर्तमान सरकार में शामिल लोग ‘दामाद बाबू’ के कारनामों की कहानियां सुनाते सुनाते कुर्सी तो पा गये लेकिन यह भूल गए कि उन्होंने दोषियों को सींकचों के पीछे पहुंचाने के दावे भी किये थे। संसद में जोर-शोर से सवाल उठाये जाने के बाद अचानक लम्बी चुप्पी का यदि कोई अर्थ है तो यही कि लोकतंत्र की जय-जयकार के बीच सबकी अपनी-अपनी मजबूरियां है। सबके  धैर्य, दक्षता, देश, काल और पराक्रम की अपनी -अपनी परिभाषाएं हैं। विपक्ष के लिए बहुमत का कोई अर्थ नहीं। सत्ता के लिए नैतिकता व्यर्थ है। ‘धैर्य’ केवल सत्ता बचाने की मुखमुद्रा बनता जा रहा है। ‘दक्षता’ बहुमत बरकरार रखने अथवा बहुमत जुटाने का कर्मकांड है। जो इसमें सफल वह स्टिंग से न्याय तक हर जगह सफल। ‘देश’ की स्थिति केवल तभी ठीक जब ‘काल’ उनके अनुरूप हो। और रही बात ‘पराक्रम’ की तो चुनाावी सभाओं में तालियां बजवाने के लिए भावनाओं का ज्वार उत्पन्न करने से बड़ा पराक्रम हमारे भाषणवीर नेताओं के लिए और कौन सा हो सकता है।
अरे हां, सहिष्णुता, असहिष्णुता की चर्चा के बिना वर्तमान परिवेश की चर्चा अधूरी है। सूखे की चपेट में आये करोड़ों लोगों का महज एक बाल्टी पानी की तलाश में पूरा दिन लगा देना सहिष्णुता है या नहीं इसका फैसला वे लोग नहीं कर सकते जो न तो बहुमत की राय का सम्मान करने को लोकतंत्र मानते हैं और न ही लोकलाज और लोकराज के सूक्ष्म अंतर को समझना चाहते हैं। वास्तविकता यह है कि उनकी सहिष्णुता अपनेे वोट बैंक के हितों का एकमात्र संरक्षण होने के दिखावे के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। हां, कुछ लोगों के लिए अपने आकाओं को खुश करने के लिए कुछ ‘करना’ सहिष्णुता है। जबकि लोकतंत्र की सफलता में  चरित्र और व्यवहार में एकरूपता का न होना असहिष्णुता है। ऐसे लोग कहां समझते है कि चरित्र  वृक्ष है तो व्यवहार उसकी छाया। राजनीति छाया का दृश्य तो खूब बढ़ा- चढ़ाकर प्रस्तुत करती है लेकिन चरित्र रूपी वृक्ष को सींचना नहीं चाहती है। वरना चुनावी वादें तो इन्द्राजी के समय से ही ‘गरीबी हटाओं’ का शोर कर रहे है। आज ‘अच्छे दिनों’ को ‘जुमला- बताकर तन्ज कसने वाले इस बात पर मौन क्यों रह जाते हैं कि ‘गरीबी हटाओं’  क्या था? आखिर उसे जुमले की बजाय कौन सा नाम देना चाहोगे? 
हमारे समाज का सामान्य से सामान्य व्यक्ति वह चाहे निरक्षर हो या विद्वान इतना अवश्य जानता और मानता है कि विचार से कर्म,  कर्म से व्यवहार, व्यवहार से चरित्र का दर्शन होता है। लेकिन जब बात लोकतांत्रिंक मूल्यों की हो तो चरित्र गौण हो जाता है। केवल वाकपटुता और चिल्लाने की क्षमता के साथ-साथ अपनी ‘व्यवहार कुशलता’ महत्वपूर्ण हो जाती है। राजनैतिक ‘व्यवहार कुशलता’ का नैतिकता से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं होता। हां, नैतिकता के ढ़ोल पीटने की अनिवार्य जिम्मेवारी अंधभक्तों की होती है। अपनी बड़ी से बड़ी गलतियों को अनदेखा करते हुए दूसरे की छोटी से छोटी गलती को लोकतंत्र के लिए खतरा बताना। आखिर जेएनयू और उत्तराखंड के दोहरे आचरण तथा केरल में आमने सामने पर बंगाल में बगलगीर होने से दामाद बाबू पर चुप्पी क्या और क्यों है?
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विनोद बब्बर संपर्क- 
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