प्रेम रहित जीवन का अर्थ (अध्यात्म) Life and Love


प्रेम रहित जीवन का अर्थ
प्रेम इस संसार का मूल है। सभी प्रेम चाहते हैं पर यह जानते तक नहीं कि प्रेम आखिर है क्या? इसीलिए तो जितनी परिभाषाएं प्रेम की है उतने तो तत्व विज्ञान में नहीं होंगे। किसी के लिए प्रेम समर्पण है तो कोई पाने को प्रेम कहता है। कोई खोने को प्रेम का नाम दे रहा है तो कोई लुटाने को। वैसे प्रे लूटने वाले भी कम नहीं है। हर बंबईयां फिल्म में प्रेम की परिणित शादी होती है लेकिन हीर रांझा, शीरी फरयाद, लैला मजनू, ससि पुन्नु आदि, आदि की प्रेम कहानी सब जानते और मानते हैं पर इनमें से किसी का भी प्रेम स्थाई मिलन तक  नहीं पहुंचा। वैसे प्रेम के अनेक रूप है। हर जीव का प्रथम प्रेम अपनी माँ से होता है। फिर बहन, भाभी, भतीजी, भानजी। जिस संबंध को प्रेम का एकमात्र पर्याय मान लिया गया है उसका नम्बर तो बहुत बाद में आता है। वैसे उस तथाकथित प्रेम को पाने से निभाने तक जितने विवाद हैं उतने शायद ही किसी अन्य रिश्तें में है। अब प्रश्न यह हे कि क्या प्रेम ‘रिश्ता’ है? यदि हाँ तो जरूरी नहीं कि रिश्तों में केवल प्रेम ही हो। रिश्तों में तो नफरत भी होती है। सबसे नफरत के रिश्ते प्रेम के रिश्ते से ज्यादा टिकाऊ होते हैं। इस स्वार्थी संसार में प्रेम कब चूक जाये कहना मुश्किल है। पर नफरत का घड़ा बहुत बड़ा है, खाली होना असंभव नहीं तो कठिन जरूर है। अब जीवन है तो प्रेम भी होगा और नफरत भी। तृष्णा भी और वासना भी। दिव्य प्रेम की बहुत सी कहानियां सामने आती रहती है लेकिन क्या दिव्य प्रेम वाले ये बतायेगे कि विपरीत लिंग के बीच जो आकर्षण है वह दिव्यता कब और कैसे प्राप्त कर सकता है। प्रेम के विभिन्न रूपों की चर्चा दैहिक प्रेम को सबसे निकृष्ट करार दिया जाता है। ऐसे में यह स्वाभाविक प्रश्न है कि क्या प्रेम और काम एक साथ नहीं रह सकते? इन दोनो को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया गया है। इसका मतलब यह हुआ कि जिससे प्रेम करो उससे दैहिक संबंध नहीं होने चाहिए और जिससे दैहिक संबंध हो उससे प्रेम नहीं करो। यानि प्रेम में संबंध वर्जित। ऐसा करते ही फॉर्मूले के अनुसार तुम पतित हो गए। ‘काम’ में अंधे होकर तुमने एक प्रेम की हत्या कर दी। अतः तुम पापी हो गए। अगर इस फार्मुले को माने को दुनिया का कोई भी वैवाहिक जोडा प्रेम कर ही नहीं सकता। क्या यही कारण नहीं कि इधर प्रेम रहित विवाहित जोड़ों की बाढ सी आ गई है। जहां देखों- साथ तो रहते हैं पर प्रेम नहीं। प्रेम का मुखोटा लगाये बस ढ़ो रहे हैं संबंधों को। ऐसे प्रेम रहित लोगों की संतान से फिर आप प्रेम की आपेक्षा आप क्यों करते हैं। क्या बिना प्रेम के ही सांसारिक चक्करों के उलझे बच्चे आ गए? ध्यान देना अगर आप मानते हो तो पति-पत्नी में प्रेम हो ही नहीं सकता तो क्या विवाहित लोग व्यभिचारी हैं? क्या पत्नी गुलाम है या पति? नहीं प्रेम की यह परिभाषा स्वीकार्य नहीं हो सकती। कुछ अपवाद छोड़ दे तो भारतीय दम्पत्ति प्रेम और समर्पण के प्रतीक है। सात जन्म न सही, इस जन्म के हर दुख-सुख यहां तक कि एक के देहावसान के बाद भी उसकी याद से जुड़े रहने को आप प्रेम रहित कैसे कह सकते हैं? वैसे प्रेम के अनेक रूप है।
 एक मित्र ने कहा, ‘कोई भी किसी से प्रेम तभी करता है, जब कोई एक भाव प्रभावित हो।  वह रूप हो, गुण हो, व्यवहार हो, वाणी हो, या सेवाभाव हो। लेकिन मैं किसी से प्रभावित नहीं होता इसलिए  मैंने कभी किसी से प्रेम नहीं किया।’

 उनसे विनम्र असहमति रखते हु, मैंने उत्तर दिया, ‘प्रेम रहित होना लगभग असंभव है। आपको अपने कर्तव्य, अपने सिद्धान्त, मानवता से नहीं तो अपने मिथ्याभिमान से प्रेम अवश्य होगा। कोई भी लक्ष्य हासिल करना तभी संभव जब हम सबसे पहले अपने लक्ष्य में प्रेम करना सीखेंगे। अगर आप ईश्वर को  पाना चाहते हो तो भी
प्रेम प्रथम शर्त है। गुरु गोविन्द सिंह जी कहते हैं- ‘साच कहु सुन लीजो सदा जिन प्रेम कियो तिन ही प्रभु पायो!’
-विनोद बब्बर 09868211911, 7892170421  rashtrakinkar@gmail.com



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