व्यक्ति, अभिव्यक्ति और राष्ट्र

क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता राष्ट्र की अस्मिता से बढ़कर हैं? इस प्रश्न का उत्तर तलाशने से पहले यह फैसला करना जरूरी है कि क्या व्यक्ति, समाज और राष्ट्र से बड़ा है? बहुत संभव है कि कुछ लोग तर्क प्रस्तुत करें कि व्यक्ति से ही तो समाज, राष्ट्र और विश्व बनता है अतः इस प्राथमिक इकाई को आखिर क्यों कमतर माना जाए। यह भी असंभव नहीं है कि ऐसे लोग माता और पिता से अधिक महत्व सन्तान को दें क्योंकि सन्तान के कारण ही तो उन्हें माता-पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। टहनी को तने से अधिक महत्वपूर्ण बताया लाए क्योंकि टहनियों ही हर तने को विस्तार और विशालता प्रदान करती हैं।ं शिष्य को गुरु से अधिक महत्वपूर्ण बताया जाए क्योंकि अनेक बार शिष्य कई बार ऐसे सवाल भी पूछता है जो गुरु को नये चिंतन के लिए बाध्य करते हैं।  ये तमाम तर्क अपनी जगह सही हो सकते हैं। इन्हें कुतर्को में रखे बिना बहुत सम्मान से इन तर्को को प्रस्तुत करने वालों से यह जानने की इच्छा है कि बेशक शिष्य के अटपटे सवाल गुरु को नये चिन्तन की ओर ले जाते ह। लेकिव वे प्रश्न मर्यादित
होने चाहिए या नहीं? यदि नहीं तो इस तर्क के अनुसार आखिर एक उदंड शिष्य को किसी साधारण शिष्य से अधिक महत्वपूर्ण क्यों नहीं होना चाहिए?
निश्चित रूप से नींव के पत्थरों का महत्व हैं लेकिन नींव, और दीवारों में लगे पत्थरों के प्रतिनिधि के रूप में पहचान  ध्वज से होती है। धरती पुत्र किसान, मजदूर, देश की सीमाओं की रक्षा के लिए अपने प्राण तक अर्पित करने को तत्पर जवान राष्ट्र की बहुमूल्य सम्पत्ति हैं। लेकिन वे चुपचाप अपने कर्तव्य पालन में लगे रहते हैं। शायद ही कभी किसी ने इन्हें गला फाड़ते देखा हो। विपरीत परिस्थितियों में भी वे अपने कर्तव्य को धर्म समझकर इतनी गंभीरता से लगे रहते हैं कि अक्सर वे अपने अधिकारों के प्रति भी मौन रहते हैं। शायद ही किसी ने अधिकार के लिए किसानों और जवानों को हड़ताल करते अर्थात् अपना कर्तव्य त्यागते देखा-सुना हो। क्या उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है?
दुनिया में असफल साबित हो चुकी विचारधारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को राष्ट्र की अस्मिता से बड़ा बताती है तो समझा जा सकता है कि वे धरती पुत्र नहीं है। वे तृणमूल अर्थात् जमीन से जुड़े हुए लोग नहीं है। उनका इस इस धरा के सांस्कृतिक मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं है। जिन्हें  जननी, जन्मभूमि से प्यार न हो। जो जन्मभूमि के हजार टुकड़े होने की कामना करते हों, उनसे देशधर्म की आशा व्यर्थ है। जिसने अपनी मां को दिल से निकाल दिया उसके साथ सारे रिश्ते खत्म!मुझे याद है बचपन में जब मैं पहली बार चिड़ियाघर गया तो वहां नोर्थ पोल का सफेद भालू, आस्ट्रेलिया के कंगारू, अफ्रीका का शेर, रीवा का सफेद शेर जैसे नामों के बोर्ड देखकर आश्चर्य हुआ। उससे पहले मेरे लिए शेर मतलब शेर था। भालू भालू था। हाथी, गैंडा, जिराफ, बंदर, लंगूर अलग-अलग गुण, रंग, रूप वाले जीव थे। मेरे एक दोस्त के घर में अजीब कुत्ता था जिसे वह जर्मन का बताता था। तब मेरी समझ में नहीं आता था कि इनके साथ देशों का नाम क्यों है। संयोग से जब पहली बार विदेश जाने का अवसरं मिला तो पासपोर्ट, वीसा की औपचारिकता देखकर सोचा- इन सबका क्या अर्थ हैं। हम एक सप्ताह के लिए आये हैं। लौट जाएगें। लेकिन युवा होने पर समझ में आया कि जब पशुओं की पहचान उनकी जन्मभूमि से होती है तो हम मनुष्य इतने अभागे, इतने कृतघन क्यों हो जाए कि स्वयं की पहचान अपने राष्ट्र से मानने से इंकार करें।
2010 में यूरोप के एक छोटे से मगर आपेक्षाकृत समृद्ध देश नार्वे में जाने का अवसर मिला। ओस्लों में भारतीय मूल के लोगों के एक समारोह में एक युवती ने ‘ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन तुझपे दिल कुर्बान, तू ही मेरी आरज़ू तू ही मेरी आबरू, तू ही मेरी जान!’’ गीत प्रस्तुत किया। इस गीत के अंतिम पंक्तियांे- ‘छोड़ कर तेरी ज़मीं को दूर आ पहुंचे हैं हम फिर भी ये ही तमन्ना तेरे ज़र्रों की कसम हम जहाँ पैदा हुए, उस जगह ही निकले दम!’ पर उस सभागार में उपस्थित लगभग हर प्रौढ़ को रुमाल से आंसू पोंछते हुए देखकर मैं स्वयं भावुक हो उठा। उस क्षण मैं ‘जननी जन्मभूमुश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ के व्यवहारिक अर्थ को समझ सका।
राष्ट्र की अवधारणा को अपमानित करने वाले मुट्ठी भर दिभ्रमित लोगों का समर्थन करने के लिए मचल रहे पप्पूओं, झप्पूओं का इस देश की सांस्कृतिक विरासत से कोई लेना-देना नहीं है। उन्हें वन्देमातरम् से भारत माता तक सब अस्वीकार्य है। ऐसे नासमझ समझना ही नहीं चाहते कि भारत-  भा का अर्थ है ज्ञान, रोशनी और रत का अर्थ है मगन रहना अर्थात ज्ञान की रोशनी में मग्न एक राष्ट्र। रही भारत को हम माँ क्यों कहते हैं, तो भारत नाम है इस राष्ट्र है और राष्ट्र बनता है भूमि से। हम भूमि को माँ का कहते हैं क्योंकि वह हमारा पालन पोषण करती है, हमें अपने आँचल में समेटे रहती है जन्म से लेकर मृत्यु तक। मृत्यु के बाद भी हमें नहीं त्यागती, बल्कि हमारे अवशेषों को भी अपने आगोश में समा लेती है हमेशा के लिए। इसलिए हमारे लिए भारत माता है। इसलिए हम वन्देमातरम् कहते हैं। सदियों से यह देश हमारा है। हमारे पूर्वज भी इस धरती पर जन्में, पले, बढ़ें और अंत में इसी माटी का हिस्सा बन गए। निज धर्म का पालन करते हुए उन्होंने बेशक अनेको कष्ट सहें। लेकिन अपनी जननी और जन्मभूमि का मस्तक झुकने नहीं दिया। वेद सूक्त ‘माता मन्त्रा भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’ उनकी प्रेरणा थी।
यदि हम मातृभूमि को अपना आराध्य समझ उसके प्रति समर्पित हों, तो न कट्टरपंथी कुछ कर पाएंगे और न राजनेता हमें आपस में लड़ा पाएंगे और न ही विदेशी शक्तियां। इतिहास गवाह है कि अशफाक, इब्राहिम गार्दी, अब्दुल हमीद जैसे असंख्य मुस्लिमों ने अपने मादर-ऐ-वतन हिन्दुस्तान के लिए कुर्बानियाँ दीं। वंदेमातरम् का उद्घोष करते हुए स्वतंत्रता की लड़ाई में अपना सर्वोच्च बलिदान देने को तत्पर रह हैं। लेकिन दुःख की बात यह है कि आज हम देश के लिए नहीं बल्कि धार्मिक उन्माद में अपनों को ही मारते-काटते दिख रहे हैं। जब धार्मिक उन्माद महत्वपूर्ण हो जाता है तो मातृभूमि का महत्वहीन हो जाना स्वाभाविक है।
जो उन्माद में नहीं, बल्कि विवेक से सोचते और व्यवहार करते हैं उनके लिए उनकी राष्ट्रीयता का विशेष महत्व है। आखिर यह अकारण नहीं हो सकता कि  इस देश का बच्चा-बच्चा गर्व से कहता हैं- मैं भारतीय हूं। भारत मेरी पहचान है। यह धरती मेरा भगवान है। हो सकता है कहीं यहां से बेहतर सुविधाएं हों लेकिन जितनी आजादी यहां है उतनी पागलखाने को छोड़ दुनिया में कहीं नहीं। सुविधाओं की चाह में स्थान तो बदले जा सकते हैं लेकिन अपने मां-बाप  और अपनी पहचान बदलने का प्रचलन कहीं नहीं है। इय पुण्य धरा की आजादी से भी जो आजादी चाहते हैं स्पष्ट है कि वे जेल या पागलखाने जाने के इच्छुक हैं। समाज और सरकार को इतना भी निष्ठुर नहीं होना चाहिए कि उन बेचारों की अंतिम इच्छा पूरी कर सके। - विनोद बब्बर        
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