राहुल ने नहीं, जनाक्रोश ने फड़वाया अध्यादेश-- डा. विनोद बब्बर
अब जब दागी नेताओं को बचाने के विवादास्पद अध्यादेश को वापस लेने तथा इससे संबंधित विधेयक को वापस लेने का निर्णय आ चुका है कुछ लोग यह हवा बनाने में लगे हैं कि प्रधानमंत्री पद के कांग्रेसी उम्मीदवार राहुल गांधी ने राजनीति के अपराधीकरण और भ्रष्टाचार के विरूद्ध कड़ा स्टैंड लेकर अपनी ही सरकार को दागियों को बचाने वाला अध्यादेश वापस लेने के लिए विवश कर दिया तो कुछ का मत है कि सारा मामला पहले से तय फिल्मी कहानी का अंग है। जब प्रधानमंत्री अमेरिका में से तब अपनी ही दल के प्रवक्ता की प्रेस वार्ता में अचानक पहुचकर राहुल गाधी ने उस अध्यादेश को बकवास बताते हुए फाड़कर फेंकने की बात कही और वहां से रवाना हो गए। मीडिया में उनके इस वक्तव्य की व्यापक पड़ताल होना स्वाभाविक है।
हर पड़ताल कुछ सवाल खड़े करती है इसलिए सबसे पहले तो यह जानना दिलचस्प होगा कि राष्ट्रपति ने उस अध्यादेश को स्वीकार ही नहीं किया था बल्कि संबद्ध मंत्रियों को बुलाकर अनेक स्पष्टीकरण देने को कहा था। ऐसे में जब यह सुनिश्चित था कि माननीय राष्ट्रपति जी इस अध्यादेश को अस्वीकार कर सकते हैं तो सत्तारूढ़ दल में खलबली मचना स्वाभाविक था। क्या तब इज्जत बचाने और राहुल को हीरो बनाने के लिए अध्यादेश को ‘फाड़कर फेंकने’ वाला एपिसोड़ तैयार किया गया।? यदि नहीं तो प्रधानमंत्री की अथॉरिटी को तहस नहस करने राहुल तब कहां थे जब मंत्रीमंडल और कांग्रेस ने इस संबंध में कानून बनाने की तैयारी की थी औश्र लोकसभा से उसे पास भी करवा लिया था। क्या यह सच नहीं कि राज्यसभा में भी इस विधेयक को पास करवाने की हर संभव कोशिश की गई लेकिन सफलता न मिलने पर अध्यादेश जारी किया गया। क्या यह सत्य नहीं है कि विपक्ष के भारी विरोध और उसे भी बढ़कर जन भावनाओं के प्रकटीकरण ने सरकार को कदम पीछे खिंचने के लिए विवश कर दिया।
इस अध्याय को बंद करने के लिए बुलाई गई मंत्रीमंडल की बैठक में शरद पवार, फारूक्ष अब्दुल्ला सहित कुछ मंत्रियों ने अध्यादेश पर वापसी के तरीके की तीखी आलोचना की। संभवतयः उनका इशारा कैबिनेट के फैसले पर राहुल द्वारा उसे बकवास बताने की ओर था। उनके अनुसार इस ‘कदम’ ने न सिर्फ प्रधानमंत्री, बल्कि पूरी कैबिनेट की सर्वाेच्चता पर सवालिया निशान लगा दिया है। हालांकि ‘पूरी कैबिनेट की सर्वाेच्चता पर सवालिया निशान’ की बात करने वाले किसी भी मंत्री ने विरोध को अंजाम तक पहुंचाने अर्थात् मंत्री पद छोड़ने का साहस नहीं दिखाया पर एक बार फिर यूपीए सरकार का चरित्र सबके सामने आ गया। पहले अध्यादेश जारी करने के लिए जद्दो जेहद और फिर राहुल की खुलेआम विरोधी टिप्पणी के बाद अध्यादेश को जनविरोधी बताना जिस दोहरे आचरण का प्रतीक है उसपर स्पष्टीकरण आवश्यक है। वैसे एक प्रवक्ता ने फजीहत के बाद तर्क प्रस्तुत किया है, ‘पारदर्शिता से फैसला लेने वाली सरकार के लिए जनता की भावनाओं को समझते हुए अपने फैसले पर पुनर्विचार करना आवश्यक होता है, वहीं हमने किया भी है।’ इस फैसले के बाद संसद और विधानसभा में दागियों के बचने की राह अब पूरी तरह बंद हो गई है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला ही अब लागू रहेगा और ऐसे में दो साल या इससे अधिक की सजा पाने वाले सांसदों और विधायकों की सदस्यता तो जाएगी और उनके राजनीतिक भविष्य पर लगभग पूर्ण विराम लग जाएगा।
किसी भी दल के योग्य, कुशल प्रवक्ता शब्द जाल तो बुन सकते हैं लेकिन जरूरी नहीं कि वह हर बार भ्रमजाल में जनता को उलझाने में सफल ही हो। जनता ने देखा कि किस तरह अमेरिका से लौटते हुए ा विमान में मीडिया से बात करते हुए प्रधानमंत्री जी ने कहा कि वह देखेंगे कि हवा का रुख किस तरफ है। बात पूरी तरह सही ही है क्योंकि लोकतंत्र जिस तरह से अपने नेता को शक्ति प्रदान कर उसे जननायक बनाता है वहीं खिड़ावतंत्र उन मुखौटों को बेनकाब करता है जो जनभावनाओं की हवा नहीं अपने आकाओं की नजरों के इशारे को ही आदेश मानते हैं। यह भी बार-बार सिद्ध हुआ कि जरूरी नहीं कि शासक जननायक भी हो। बिना किसी जनाधार के नौ वर्ष तक प्रधानमंत्री बने रहना उनकी योग्यता से अधिक उनके दल के असली मालिकों की भावनाओं को समझने की क्षमाता का प्रमाण है। खिड़ावतंत्र में आत्मसम्मान पद से बड़ा नहीं होता। है। यदि आत्मसम्मान का कुछ महत्व होता तो आज परिस्थितियां भिन्न होती। अपने दल के आदेश को मानकर अध्यादेश लाने और फिर वापस लेने वालों से यह प्रश्न पूछना इस देश की जनता का अधिकार है कि आखिर इस विषय पर उनकी अपनी राय क्या है? यदि वे अपनी आत्मा की आवाज को ही नहीं सुनते तो स्पष्ट है कि वे उस सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं जिसका केन्द्र बिन्दू वह नहीं कोई ओर है तथा वह एक नहीं बल्कि दो बॉसों की बात मानने को विवश है।
क्या यह उचित नहीं होगा कि हम इस बात विचार करे कि निज मान-अपमान से ऊपर उठ चुके स्थितप्रज्ञ प्रधानमंत्री जी इस देश के मान-सम्मान के प्रति कितने चिंिति है। उसी प्रकार से अजय माकन की प्रेस वार्ता में पहुंचे राहुल को भी इस बात का उत्तर देना चाहिए कि अपनी ही पार्टी के प्रवक्ता को सार्वजनिक रूप से यह कहना, ‘ये मुझे पार्टी की लाइन समझा रहे थे।’ आखिर किस तरह से उचित है। क्या पार्टी प्रवक्ता द्वारा अपने दल के नेताओं और कार्यकर्ताओं को पार्टी की लाइन समझाना अपराध है? अपने संसदीय दल के नेता के कार्य की सार्वजनिक रूप से आलोचना आखिर किस अनुशासन का अंग है? यदि वह उनकी नीतियों से से गंभीर रूप से असहमत हैं तो उन्हें हटाने की मांग क्यों नहीं? क्या गलत फैसलों का ठीकरा मनमोहन पर और अच्छे कामों का श्रेय स्वयं लेने की प्रवृति लोकतंत्र का अपमान नहीं है?
यही क्यों, घोटालों में फंसे मंत्रियों को बचाने से हटाने तक, अन्ना आंदोलन में ढुलमुल रवैये के बाद कानून बनाने का वायदा ो आज तक पूरा नहीं हुआ क्योंकि इसपर कोई भी गंभीर नहीं है। खाद्य सुरक्षा कानून आदि पर जिस तरह श्रेय माँ-बेटे ने बटोर्रा आैर हर गलती के लिए प्रधानमंत्री जी को लपेटा उससे निश्चित रूप से दुनिया में हमारे इस पद की प्रतिष्ठा प्रभावित हुई है। क्या यही कारण नहीं कि गत सप्ताह अमेरिकी राष्ट्रपति से भेंट सहित उनकी हर गतिविधि को अमेरिकी मीडिया ने नजरअंदाज किया।
हर रूकावट के समय इसे गठबंधन सरकार की मजबूरी बताने वालों को यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि वह ऐसे मामलों में अपने सहयोगी दलों की राय का कितना सम्मान करता है? वर्तमान मामले में भी एक नहीं बल्कि तीन सहयोगी दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, नेशनल कांफ्रेंस और समाजवादी पार्टी ने राहुल गांधी के तौर-तरीके पर सार्वजनिक रूप से असंतोष जाहिर किया है। एक सहयोगी ने तो ‘हम कांग्रेस के सहयोगी हैं, अनुयायी नहीं’ अपना आक्रोश व्यक्त किया है। संभवतयः मौका मिलते ही सहयोगी दल उन्हें इस बात का अहसास करवाने से नहीं चूकेगे कि कांग्रेस जनाधार के दौर को भूल जाए क्योंकि राहुल वोट दिलाने वाले नेता के रूप में स्वयं को सिद्ध नहीं कर सके है। अब जबकि चुनाव बहुत दूर नहीं है उन्हें आगे कर आदर्शो की बातें करना शायद ही फलदायी हो क्योंकि जो जनाक्रोश अध्यादेश को उलट सकता है वह सरकार को भी झटका देने से नहीं चूकेगा।
राहुल ने नहीं, जनाक्रोश ने फड़वाया अध्यादेश-- डा. विनोद बब्बर
Reviewed by rashtra kinkar
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