एक आवाज शोर के खिलाफ Sound Pollution
एक संत अपने शिष्यों के साथ नदी तट पर नहाने पहुंचे तो क्या देखा कि एक ही परिवार के कुछ लोग अचानक आपस में बात करते हुए एक दूसरे जोर-जोर से चिल्लाने लगे। गुरुजी ने अपने अपने शिष्यों से पूछा, ‘ क्रोध में लोग एक दूसरे पर चिल्लाते क्यों हैं?’ अधिकांश शिष्य सोचते ही रहे, लेकिन एक शिष्य ने उत्तर दिया, ‘क्योंकि मनुष्य क्रोध में शांति खो देता हैं।’
‘पर जब दूसरा व्यक्ति हमारे सामने ही खड़ा है तो भला उस पर जोर-जोर से चिल्लाने की क्या ज़रुरत है। जो कहना है उसे आप धीमी आवाज़ में भी तो कह सकते हैं।’ गुरुजी ने पुनः प्रश्न किया।
कुछ शिष्यों ने उत्तर देने का प्रयास जरुर किया परंतु वे संतोषजनक उत्तर न दे सके। अंततः गुरुवर ने समझाया, ‘देखो, बच्चों! जब दो लोग आपस में नाराज होते हैं तो उनके दिल एक दूसरे से बहुत दूर हो जाते हैं. और इस अवस्था में वे एक दूसरे को बिना चिल्लाये नहीं सुन सकते। वे जितना अधिक क्रोधित होंगे उनके बीच की दूरी उतनी ही अधिक होती जाएगी और उन्हें और ज्यादा जोर से चिल्लाना पड़ेता है।
आपने देखा होगा जब दो लोग प्रेम में वार्तालाप कर रहे होते हैं तब वे चिल्लाते नहीं बल्कि धीरे-धीरे बात करते हैं, क्योंकि उनके दिल करीब होते हैं। उनके बीच की दूरी नाममात्र की रह जाती है। ... और जब वे एक दूसरे को बहुत अधिक चाहने लगते हैं तो क्या होता है ? तब वे बोलते भी नहीं, वे सिर्फ एक दूसरे की तरफ देखते हैं और सामने वाले की बात समझ जाते हैं।
विद्वान गुरु अपने शिष्यों को समझा रहे थे कि जब किसी से बात करो तो ये ध्यान रखो कि तुम्हारे ह्रदय आपस में दूर न होने पाएं, तुम ऐसे शब्द मत बोलो जिससे तुम्हारे बीच की दूरी बढे नहीं तो एक समय ऐसा आएगा कि ये दूरी इतनी अधिक बढ़ जाएगी कि तुम्हे लौटने का रास्ता भी नहीं मिलेगा. इसलिए चर्चा करो, बात करो लेकिन चिल्लाओ मत।’ उस संत ने शोर जैसी महत्वपूर्ण समस्या के कारण कितनी सहजता से बता दिए। स्पष्ट है कि दिल की बात के लिए शक्ति की समझदारी की जरूरत होती है। जोर से बोलना किसी व्यक्ति की क्षमता का प्रतीक हो सकता है लेकिन प्यार से बोलने के लिए योग्यता के अतिरिक्त हृदय की निर्मलता भी चाहिए। फिर ईश्वर तो हमारे अव्यक्त को भी जानता है तो उसे जोर-जोर से बताने का अर्थ है कि हमारे दिलों का फासला बढ़ रहा है। शायद इसीलिए कबीर ने भी कहा था-:..क्या बहरा हुआ खुदाय!’
शोर अदृश्य होते हुए भी एक बहुत बड़ी समस्या बन चुका है। ध्वनि प्रदूषण ने गंभीर समस्या का रूप धारण कर लिया है। शहर में दिन-ब-दिन बढ़ती वाहनों की संख्या के कारण यह स्थिति और ज्यादा भयानक होती जा रही है, लेकिन इसके बावजूद भी हम इस समस्या के प्रति मुखर नहीं हैं तो आखिर क्यों? हर छोटी-बड़ी सड़क पर वाहनों की लगातार बढ़ोतरी, प्रेशर हार्न का इस्तेमाल, मंदिरों में दिन भर लाउड स्पीकर का चलना, कारखानों में मशीनों का शोर, मैरिज पैलेसों में देर रात तक डीजे बजाना आम बात है।
पिछले दिनों राष्ट्र-किंकर कार्यालय के सामने हुए एक विशाल धार्मिक समारोह के मधुर भजन और गीत थोड़ी-ही देर में कान फोड़ू शोर में बदल गये। उस पर भी, एक बहुत बड़ा जनरेटर रातभर अपनीं कर्कश आवाज में ’सोना मना है!’ का उदघोष करता रहा। रात-भर चले इस कोहराम के कारण स्वाभाविक है कि आसपास के लोगों को नींद न आने के कारण अगले दिन सिरदर्द और बेचैनी बनी रही।
यह केवल एकमात्र घटना नहीं है। महानगरों में दिन-प्रतिदिन बढ़ते शोर में लगभग सभी परेशान हैं। वाहनों का शोर, होर्न की चिल्लपौं, बिजली के गुल होते ही सैंकड़ों-हजारों जेनरेटरों का कर्कश नाद क्या कोई सामान्य बात है? धार्मिक स्थलों के अतिरिक्त किसी भी उत्सव, चुनावी सभाओं, जलसे-जलूसों में बजाते लाउड-स्पीकरों के शोर के विरूद्ध आवाज उठाने वाले की संख्या बढ़ती जा रही है।
हमारे एक मित्र ने अपना अनुभव कुछ यूं बताया, ‘वर्षोंें पहले जब चौड़ी गली का मकान खरीदा, तो सभी ने हमारी दूरदर्शिता का लोहा माना। आखिर, हर दुःख-सुख में घर के सामने चौड़ा स्थान चाहिए। चौड़ी गली में वाहन खड़े करने की असुविधा भी नहीं। पर कुछ ही दिनों में हमें अपनी दूरदर्शिता एक समस्या दिखाई देने लगी क्योंकि दिन -रात वाहनों के शोर ने हमारा जीना हराम कर दिया था। खुला स्थान देखकर दूसरे लोग भी हमारे घर के ठीक सामने टेंट लगवाकर अपने कार्यक्रम करते। दूसरों की खुशियां हमारे लिए दुःख का कारण बनने लगीं क्योंकि हर रोज़ तेज़ आवाज में डीजे का संगीत, ढोल-बैंड, आतिशबाजी के बाद भी नाचने-गाने की आवाजें हमारीे रातों की नींद उड़ाने लगीं। कुछ कहने पर ‘एक ही रात की तो बात है’, ’क्या आप इतना भी एडजेस्ट नहीं कर सकते तो फिर कैसे सोशल वर्कर हो’ जैसे जुमले सुनने को मिलते। पर उन्हें कौन समझाए कि उनके लिए तो एक रात की बात है, जबकि भुगतने वाले के लिए तो हर रात की बात है। आखिर, वह कैसे जिये, कैसे अपने आपको शांत रखे?
एक अन्य भुक्तभोगी ने शोर के संबंध में अपनी व्यथा कुछ यूं बतायी, ‘शोर तो चहूँ ओर है। तेज आवाज में चलते डीजे और टीवी ही शांति भंग करने के लिए काफी थे। पर कोढ़ में खाज तब हुई जब हमारे घर के ठीक सामने नाई की दुकान खुल गई जहाँ सवेरे-से ही तेज आवाज में टेप रिकार्डर बजने लगता। बार-बार अनुरोध करने पर भी जब कोई रास्ता नहीं निकला तो कटिंग सैलून वाले से सुबह और शाम में 7 से 9 बजे तक धीमी आवाज में टेपरिकार्डर बजाने का सौदा हुआ। उसकी इस कृपा के लिए मैं उसे 200 रू. महीना देता हूँ। आखिर शांति की यह कीमत ज्यादा नहीं है।’
यूँ तो ध्वनि प्रदूषण के विरूद्ध अनेक नियम-अधिनियम हैं, जिन पर हमारी अदालतें बार-बार कड़ी चेतावनी देती है। तेज आवाज़ वाले वाहनांे, जेनरेटर, मशीनें और डैक आदि जब्त करने का प्रावधान भी है। पर फिर भी, शोर से राहत आखिर क्यों नहीं मिलती, इसका कारण भी सभी को ज्ञात है कि यह सुविधा-शुल्क का ज़माना है और दूसरे लाख परेशानी के बावजूद, कोई पुलिस तक शिकायत करने की जहमत नहीं उठाना चाहता।
धार्मिक कार्यक्रमों में तेज आवाज में लाउड स्पीकर रखना कितना धार्मिक है, यह सवाल बार-बार उठता रहता है क्योंकि शोर से बच्चे, बीमार और बूढ़े ही नहीं, स्वस्थ व्यक्ति भी परेशान हो उठते हैं। उनमें चिड़चिड़ापन होने लगता है, तनाव में रक्तचाप बढ़ जाता है। आसपास के लोग परेशान। कहीं बच्चों की पढ़ाई, कहीं कोई बीमार, कहीं कोई थका-हारा सोना चाहता हो तो सो न पाए। दूसरे दिन उसे फिर काम पर जाना है। ऐसे में वह कैसे सो पाएगा और दूसरे दिन कैसे काम पर जा पाएगा? बच्चे कैसे कर पाएँगे अपना होमवर्क? और वह बीमार जो शोर से घबराता है, उसका क्या होगा? आखिर अपनी हैसियत दिखाने के लिए अनावश्यक उच्चशक्ति के डीजे बजाना धार्मिक पुण्य की बजाय दूसरों की बददुआएं बटोरना नहीं तो और क्या है। इसे पाप की श्रेणी से किस प्रकार अलग किया जा सकता है?
कान बहरे हो जाते हैं तथा अनेक प्रकार की स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं उत्पन्न होने लगती हैं। धार्मिक स्थलों से सुबह 4 बजे से बजते लाउडस्पीकरों पर अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी पाबंदी लगा दी है। कुछ लोग इस फैसले को गलत मानते हैं।
हमारे विभिन्न धर्म जब प्रचलन में आए या जब हमारी धार्मिक किताबें लिखी गईं, उस समय लाउडस्पीकर का आविष्कार नहीं हुआ था। इसलिए, किसी भी धर्म में यह नहीं कहा गया है कि आप अपनी भक्ति अथवा धार्मिक उपदेशों के लिए लाउडस्पीकर का प्रयोग करें।
इसके जवाब में कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि धार्मिक किताबों में चाहे लाउडस्पीकर के प्रयोग के बारे में न लिखा हो, लेकिन यह ज़रूर लिखा है कि ईश्वर का भजन या उसके उपदेश सबके लिए शुभ हैं, इसलिए उन्हें ज्यादा-से-ज्यादा लोगों तक पहुँचाने की कोशिश करनी चाहिए। आज भजन या ईश्वरीय उपदेश ज्यादा-से-ज्यादा लोगों तक पहुँचाने के लिए लाउडस्पीकर एक प्रभावी माध्यम है, इसलिए उसका उपयोग धार्मिक चिंतन के अनुरूप और जरूरी है। जैसे मस्जिद से अजान का उद्देश्य ही यह है कि लोगों की सूचित किया जाए कि नमाज पढ़ने का वक्त हो गया है। इसलिए, यदि इस काम के लिए लाउडस्पीकर का इस्तेमाल किया जाता है, तो वह धार्मिक निर्देशों के अनुरूप है।’ लेकिन, इन तर्कों को स्वीकार नहीं किया जा सकता हैं। लगभग सभी प्रमुख धर्मों में बताया गया है कि धार्मिक बातें किसी कुपात्र या अनिच्छुक व्यक्ति को नहीं बतानी चाहिए। जो इसमें विश्वास नहीं करते, उन्हें ये बातें सुनाने से धर्म का अनादर होता है।
कुरान शरीफ में लिखा है कि ‘लकुम दीनोकुम, वलीया दीन!’ तुम्हारा धर्म तुम्हारे लिए और हमारा धर्म हमारे लिए। यानी यदि कोई शख्स दूसरे धर्म में यकीन करता है, तो उसे जबरन अपने धर्म के बारे में न बताएं। लेकिन, जब हम लाउडस्पीकर पर अजान देते हैं या तरावी पढ़ते हैं तो क्या दूसरे धर्मावलंबियों को जबरन अपनी बातें नहीं सुनाते? इसी तरह श्रीमद्भागवत गीता के 18वें अध्याय के 67-68 वें श्लोक में कहा गया हैः- इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन। न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योभ्यासूयति।। अर्थात् गीता के इस रहस्य को ऐसे आदमी के सामने नहीं रखना चाहिए जिसके पास इसे सुनने का धैर्य नहीं है या जो किसी विशेष स्वार्थ के लिए इसके प्रति श्रद्धा प्रकट कर रहा है या जो इसे सुनने को तैयार नहीं है। लेकिन किसी उत्सव में जब धार्मिक बातें सुनाने के लिए हम लाउडस्पीकर का इस्तेमाल करते हैं, तो क्या वे बातें ऐसे लोगों के कानों में नहीं पड़तीं जो हिन्दू धर्म के लिए आयोजनों में विश्वास नहीं करते या जो इनमें शोर या अन्य कारणों से कोई न कोई दोष देखते हैं। इसके अगले श्लोक में कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! जो मुझमें सचमुच आस्था रखते हैं, वे मेरे इन उपदेशों को मेरे भक्तों में ही बाँटते हैं।
ऐसी ही बाते ईसाई मत के सेंट ल्यूक ने अपने उपदेशों में कही हैं। अपने गॉस्पेल में एक जगह उन्होंने लिखा है कि ‘यदि तुम अपने धर्म का प्रचार करते हुए किसी ऐसे गाँव में पहुँच जाओ, जहाँ के लोग तुम्हारा विरोध कर रहे हों या जो तुम्हें नापसंद करते हों, तो अपने जूते वहीं झाड़ो और आगे बढ़ जाओ।’
शोर अर्थात् पसंद न की जाने वाली ध्वनि को ध्वनि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को हानि पहुंचा सकती है। ध्वनिक प्रदूषण चिड़चिड़ापन एवं आक्रामकता के अतिरिक्त उच्च रक्तचाप, तनाव , कर्णक्ष्वेड, श्रवण शक्ति का ह्रास, नींद में गड़बड़ी, और अन्य हानिकारक प्रभाव पैदा कर सकता है। इसके अलावा, तनाव और उच्च रक्तचाप, स्मृति खोना, गंभीर अवसाद, हृदय संबंधी रोगों का कारण बन सकता है।
अंत में विदेश अनुभव की चर्चा करना सामयिक होगा। यूरोप प्रवास के दौरान तीन सौ किमी की रफ्तार से चलने वाली ट्रेन में उनके गु्रप के लोग आपस में जोर-जोर से बातें कर रहे थे जबकि अन्य लोग शांत थे। वहाँ के लोग तेज आवाज में बोलनो-सुनना पसंद नहीं करता। यहाँ तक कि हाई स्पीड ट्रेन के चलने और पटरियों की धडधड भी नहीं थी। चहूं ओर इतनी शांति थी कि कुछ भी पता नहीं चले रहा था, सिवाय उस मंडली की बातचीत के। कुछ देर बाद एक बुजुर्ग महिला अपनी सीट से उठकर, अपने सामने बैठे उस टीम की एक सदस्य से बेहद गुस्से में बोली, ‘आप इतनी जोर से क्यों चीख रहे हैं। आपकी तेज आवाज ने मेरे कानों में दर्द कर दिया है। मेरी तबीयत खराब हो रही है। क्या आपको पब्लिक प्लेस में बोलना नहीं आता है?’ वह व्यक्ति शर्म से पानी- पानी हो रहा था लेकिन असली सवाल यह है कि हम कब सुधरेगें?
‘पर जब दूसरा व्यक्ति हमारे सामने ही खड़ा है तो भला उस पर जोर-जोर से चिल्लाने की क्या ज़रुरत है। जो कहना है उसे आप धीमी आवाज़ में भी तो कह सकते हैं।’ गुरुजी ने पुनः प्रश्न किया।
कुछ शिष्यों ने उत्तर देने का प्रयास जरुर किया परंतु वे संतोषजनक उत्तर न दे सके। अंततः गुरुवर ने समझाया, ‘देखो, बच्चों! जब दो लोग आपस में नाराज होते हैं तो उनके दिल एक दूसरे से बहुत दूर हो जाते हैं. और इस अवस्था में वे एक दूसरे को बिना चिल्लाये नहीं सुन सकते। वे जितना अधिक क्रोधित होंगे उनके बीच की दूरी उतनी ही अधिक होती जाएगी और उन्हें और ज्यादा जोर से चिल्लाना पड़ेता है।
आपने देखा होगा जब दो लोग प्रेम में वार्तालाप कर रहे होते हैं तब वे चिल्लाते नहीं बल्कि धीरे-धीरे बात करते हैं, क्योंकि उनके दिल करीब होते हैं। उनके बीच की दूरी नाममात्र की रह जाती है। ... और जब वे एक दूसरे को बहुत अधिक चाहने लगते हैं तो क्या होता है ? तब वे बोलते भी नहीं, वे सिर्फ एक दूसरे की तरफ देखते हैं और सामने वाले की बात समझ जाते हैं।
विद्वान गुरु अपने शिष्यों को समझा रहे थे कि जब किसी से बात करो तो ये ध्यान रखो कि तुम्हारे ह्रदय आपस में दूर न होने पाएं, तुम ऐसे शब्द मत बोलो जिससे तुम्हारे बीच की दूरी बढे नहीं तो एक समय ऐसा आएगा कि ये दूरी इतनी अधिक बढ़ जाएगी कि तुम्हे लौटने का रास्ता भी नहीं मिलेगा. इसलिए चर्चा करो, बात करो लेकिन चिल्लाओ मत।’ उस संत ने शोर जैसी महत्वपूर्ण समस्या के कारण कितनी सहजता से बता दिए। स्पष्ट है कि दिल की बात के लिए शक्ति की समझदारी की जरूरत होती है। जोर से बोलना किसी व्यक्ति की क्षमता का प्रतीक हो सकता है लेकिन प्यार से बोलने के लिए योग्यता के अतिरिक्त हृदय की निर्मलता भी चाहिए। फिर ईश्वर तो हमारे अव्यक्त को भी जानता है तो उसे जोर-जोर से बताने का अर्थ है कि हमारे दिलों का फासला बढ़ रहा है। शायद इसीलिए कबीर ने भी कहा था-:..क्या बहरा हुआ खुदाय!’
शोर अदृश्य होते हुए भी एक बहुत बड़ी समस्या बन चुका है। ध्वनि प्रदूषण ने गंभीर समस्या का रूप धारण कर लिया है। शहर में दिन-ब-दिन बढ़ती वाहनों की संख्या के कारण यह स्थिति और ज्यादा भयानक होती जा रही है, लेकिन इसके बावजूद भी हम इस समस्या के प्रति मुखर नहीं हैं तो आखिर क्यों? हर छोटी-बड़ी सड़क पर वाहनों की लगातार बढ़ोतरी, प्रेशर हार्न का इस्तेमाल, मंदिरों में दिन भर लाउड स्पीकर का चलना, कारखानों में मशीनों का शोर, मैरिज पैलेसों में देर रात तक डीजे बजाना आम बात है।
पिछले दिनों राष्ट्र-किंकर कार्यालय के सामने हुए एक विशाल धार्मिक समारोह के मधुर भजन और गीत थोड़ी-ही देर में कान फोड़ू शोर में बदल गये। उस पर भी, एक बहुत बड़ा जनरेटर रातभर अपनीं कर्कश आवाज में ’सोना मना है!’ का उदघोष करता रहा। रात-भर चले इस कोहराम के कारण स्वाभाविक है कि आसपास के लोगों को नींद न आने के कारण अगले दिन सिरदर्द और बेचैनी बनी रही।
यह केवल एकमात्र घटना नहीं है। महानगरों में दिन-प्रतिदिन बढ़ते शोर में लगभग सभी परेशान हैं। वाहनों का शोर, होर्न की चिल्लपौं, बिजली के गुल होते ही सैंकड़ों-हजारों जेनरेटरों का कर्कश नाद क्या कोई सामान्य बात है? धार्मिक स्थलों के अतिरिक्त किसी भी उत्सव, चुनावी सभाओं, जलसे-जलूसों में बजाते लाउड-स्पीकरों के शोर के विरूद्ध आवाज उठाने वाले की संख्या बढ़ती जा रही है।
हमारे एक मित्र ने अपना अनुभव कुछ यूं बताया, ‘वर्षोंें पहले जब चौड़ी गली का मकान खरीदा, तो सभी ने हमारी दूरदर्शिता का लोहा माना। आखिर, हर दुःख-सुख में घर के सामने चौड़ा स्थान चाहिए। चौड़ी गली में वाहन खड़े करने की असुविधा भी नहीं। पर कुछ ही दिनों में हमें अपनी दूरदर्शिता एक समस्या दिखाई देने लगी क्योंकि दिन -रात वाहनों के शोर ने हमारा जीना हराम कर दिया था। खुला स्थान देखकर दूसरे लोग भी हमारे घर के ठीक सामने टेंट लगवाकर अपने कार्यक्रम करते। दूसरों की खुशियां हमारे लिए दुःख का कारण बनने लगीं क्योंकि हर रोज़ तेज़ आवाज में डीजे का संगीत, ढोल-बैंड, आतिशबाजी के बाद भी नाचने-गाने की आवाजें हमारीे रातों की नींद उड़ाने लगीं। कुछ कहने पर ‘एक ही रात की तो बात है’, ’क्या आप इतना भी एडजेस्ट नहीं कर सकते तो फिर कैसे सोशल वर्कर हो’ जैसे जुमले सुनने को मिलते। पर उन्हें कौन समझाए कि उनके लिए तो एक रात की बात है, जबकि भुगतने वाले के लिए तो हर रात की बात है। आखिर, वह कैसे जिये, कैसे अपने आपको शांत रखे?
एक अन्य भुक्तभोगी ने शोर के संबंध में अपनी व्यथा कुछ यूं बतायी, ‘शोर तो चहूँ ओर है। तेज आवाज में चलते डीजे और टीवी ही शांति भंग करने के लिए काफी थे। पर कोढ़ में खाज तब हुई जब हमारे घर के ठीक सामने नाई की दुकान खुल गई जहाँ सवेरे-से ही तेज आवाज में टेप रिकार्डर बजने लगता। बार-बार अनुरोध करने पर भी जब कोई रास्ता नहीं निकला तो कटिंग सैलून वाले से सुबह और शाम में 7 से 9 बजे तक धीमी आवाज में टेपरिकार्डर बजाने का सौदा हुआ। उसकी इस कृपा के लिए मैं उसे 200 रू. महीना देता हूँ। आखिर शांति की यह कीमत ज्यादा नहीं है।’
यूँ तो ध्वनि प्रदूषण के विरूद्ध अनेक नियम-अधिनियम हैं, जिन पर हमारी अदालतें बार-बार कड़ी चेतावनी देती है। तेज आवाज़ वाले वाहनांे, जेनरेटर, मशीनें और डैक आदि जब्त करने का प्रावधान भी है। पर फिर भी, शोर से राहत आखिर क्यों नहीं मिलती, इसका कारण भी सभी को ज्ञात है कि यह सुविधा-शुल्क का ज़माना है और दूसरे लाख परेशानी के बावजूद, कोई पुलिस तक शिकायत करने की जहमत नहीं उठाना चाहता।
धार्मिक कार्यक्रमों में तेज आवाज में लाउड स्पीकर रखना कितना धार्मिक है, यह सवाल बार-बार उठता रहता है क्योंकि शोर से बच्चे, बीमार और बूढ़े ही नहीं, स्वस्थ व्यक्ति भी परेशान हो उठते हैं। उनमें चिड़चिड़ापन होने लगता है, तनाव में रक्तचाप बढ़ जाता है। आसपास के लोग परेशान। कहीं बच्चों की पढ़ाई, कहीं कोई बीमार, कहीं कोई थका-हारा सोना चाहता हो तो सो न पाए। दूसरे दिन उसे फिर काम पर जाना है। ऐसे में वह कैसे सो पाएगा और दूसरे दिन कैसे काम पर जा पाएगा? बच्चे कैसे कर पाएँगे अपना होमवर्क? और वह बीमार जो शोर से घबराता है, उसका क्या होगा? आखिर अपनी हैसियत दिखाने के लिए अनावश्यक उच्चशक्ति के डीजे बजाना धार्मिक पुण्य की बजाय दूसरों की बददुआएं बटोरना नहीं तो और क्या है। इसे पाप की श्रेणी से किस प्रकार अलग किया जा सकता है?
कान बहरे हो जाते हैं तथा अनेक प्रकार की स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं उत्पन्न होने लगती हैं। धार्मिक स्थलों से सुबह 4 बजे से बजते लाउडस्पीकरों पर अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी पाबंदी लगा दी है। कुछ लोग इस फैसले को गलत मानते हैं।
हमारे विभिन्न धर्म जब प्रचलन में आए या जब हमारी धार्मिक किताबें लिखी गईं, उस समय लाउडस्पीकर का आविष्कार नहीं हुआ था। इसलिए, किसी भी धर्म में यह नहीं कहा गया है कि आप अपनी भक्ति अथवा धार्मिक उपदेशों के लिए लाउडस्पीकर का प्रयोग करें।
इसके जवाब में कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि धार्मिक किताबों में चाहे लाउडस्पीकर के प्रयोग के बारे में न लिखा हो, लेकिन यह ज़रूर लिखा है कि ईश्वर का भजन या उसके उपदेश सबके लिए शुभ हैं, इसलिए उन्हें ज्यादा-से-ज्यादा लोगों तक पहुँचाने की कोशिश करनी चाहिए। आज भजन या ईश्वरीय उपदेश ज्यादा-से-ज्यादा लोगों तक पहुँचाने के लिए लाउडस्पीकर एक प्रभावी माध्यम है, इसलिए उसका उपयोग धार्मिक चिंतन के अनुरूप और जरूरी है। जैसे मस्जिद से अजान का उद्देश्य ही यह है कि लोगों की सूचित किया जाए कि नमाज पढ़ने का वक्त हो गया है। इसलिए, यदि इस काम के लिए लाउडस्पीकर का इस्तेमाल किया जाता है, तो वह धार्मिक निर्देशों के अनुरूप है।’ लेकिन, इन तर्कों को स्वीकार नहीं किया जा सकता हैं। लगभग सभी प्रमुख धर्मों में बताया गया है कि धार्मिक बातें किसी कुपात्र या अनिच्छुक व्यक्ति को नहीं बतानी चाहिए। जो इसमें विश्वास नहीं करते, उन्हें ये बातें सुनाने से धर्म का अनादर होता है।
कुरान शरीफ में लिखा है कि ‘लकुम दीनोकुम, वलीया दीन!’ तुम्हारा धर्म तुम्हारे लिए और हमारा धर्म हमारे लिए। यानी यदि कोई शख्स दूसरे धर्म में यकीन करता है, तो उसे जबरन अपने धर्म के बारे में न बताएं। लेकिन, जब हम लाउडस्पीकर पर अजान देते हैं या तरावी पढ़ते हैं तो क्या दूसरे धर्मावलंबियों को जबरन अपनी बातें नहीं सुनाते? इसी तरह श्रीमद्भागवत गीता के 18वें अध्याय के 67-68 वें श्लोक में कहा गया हैः- इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन। न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योभ्यासूयति।। अर्थात् गीता के इस रहस्य को ऐसे आदमी के सामने नहीं रखना चाहिए जिसके पास इसे सुनने का धैर्य नहीं है या जो किसी विशेष स्वार्थ के लिए इसके प्रति श्रद्धा प्रकट कर रहा है या जो इसे सुनने को तैयार नहीं है। लेकिन किसी उत्सव में जब धार्मिक बातें सुनाने के लिए हम लाउडस्पीकर का इस्तेमाल करते हैं, तो क्या वे बातें ऐसे लोगों के कानों में नहीं पड़तीं जो हिन्दू धर्म के लिए आयोजनों में विश्वास नहीं करते या जो इनमें शोर या अन्य कारणों से कोई न कोई दोष देखते हैं। इसके अगले श्लोक में कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! जो मुझमें सचमुच आस्था रखते हैं, वे मेरे इन उपदेशों को मेरे भक्तों में ही बाँटते हैं।
ऐसी ही बाते ईसाई मत के सेंट ल्यूक ने अपने उपदेशों में कही हैं। अपने गॉस्पेल में एक जगह उन्होंने लिखा है कि ‘यदि तुम अपने धर्म का प्रचार करते हुए किसी ऐसे गाँव में पहुँच जाओ, जहाँ के लोग तुम्हारा विरोध कर रहे हों या जो तुम्हें नापसंद करते हों, तो अपने जूते वहीं झाड़ो और आगे बढ़ जाओ।’
शोर अर्थात् पसंद न की जाने वाली ध्वनि को ध्वनि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को हानि पहुंचा सकती है। ध्वनिक प्रदूषण चिड़चिड़ापन एवं आक्रामकता के अतिरिक्त उच्च रक्तचाप, तनाव , कर्णक्ष्वेड, श्रवण शक्ति का ह्रास, नींद में गड़बड़ी, और अन्य हानिकारक प्रभाव पैदा कर सकता है। इसके अलावा, तनाव और उच्च रक्तचाप, स्मृति खोना, गंभीर अवसाद, हृदय संबंधी रोगों का कारण बन सकता है।
अंत में विदेश अनुभव की चर्चा करना सामयिक होगा। यूरोप प्रवास के दौरान तीन सौ किमी की रफ्तार से चलने वाली ट्रेन में उनके गु्रप के लोग आपस में जोर-जोर से बातें कर रहे थे जबकि अन्य लोग शांत थे। वहाँ के लोग तेज आवाज में बोलनो-सुनना पसंद नहीं करता। यहाँ तक कि हाई स्पीड ट्रेन के चलने और पटरियों की धडधड भी नहीं थी। चहूं ओर इतनी शांति थी कि कुछ भी पता नहीं चले रहा था, सिवाय उस मंडली की बातचीत के। कुछ देर बाद एक बुजुर्ग महिला अपनी सीट से उठकर, अपने सामने बैठे उस टीम की एक सदस्य से बेहद गुस्से में बोली, ‘आप इतनी जोर से क्यों चीख रहे हैं। आपकी तेज आवाज ने मेरे कानों में दर्द कर दिया है। मेरी तबीयत खराब हो रही है। क्या आपको पब्लिक प्लेस में बोलना नहीं आता है?’ वह व्यक्ति शर्म से पानी- पानी हो रहा था लेकिन असली सवाल यह है कि हम कब सुधरेगें?
एक आवाज शोर के खिलाफ Sound Pollution
Reviewed by rashtra kinkar
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20:04
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