बेरोजगारी, कारण और समाधान


बेरोजगारी, कारण और समाधान
पिछले दिनो एक शोध छात्र ने ‘बेरोजगारी, कारण और समाधान’ विषय पर चर्चा का आग्रह किया। तो मन में अनेक प्रश्न उमड़ें। क्या बेरोजगारी की कोई सर्वमान्य परिभाषा है?  यदि नहीं तो क्यों? कहीं ऐसा तो नहीं कि समय, काल, परिस्थिति और उससे भी बढ़कर परम्पराएं तथा मान्यताएं रोजगार औैर बेरोजगार को अपने-अपने चश्में से देखती हैं? साधारण शब्दों में कहे तो - ‘मानसिक एवं शारीरिक दृष्टि से सक्षम और इच्छुक व्यक्ति को कार्य न मिलना बेकारी या बेरोजगारी है।’ अगर योग्य तो है पर इच्छुक नहीं। तब बेरोजगारी नहीं। इच्छुक है पर अनिवार्य योग्यता नहीं तब भी बेरोजगारी नहीं मानी जा सकती।
शिक्षा का आधुनिकीकरण और उपलब्ध संसाधनो का श्रेष्ठ उपयोग करते हुए मानवीय कौशल में वृद्धि दो अलग-अलग बाते हैं। आज एक ओर बेरोजगारी की लंबी लाइन है। तो दूसरी ओर कुशल और भरोसमंद कामगार नहीं मिलते। स्पष्ट है कि शिक्षा के आधुनिकीकरण के नाम पर जो कुछ किया गया है या किया जा रहा है उसपर फिर से विचार की आवश्यकता है। आज की शिक्षा ने ‘शरीरिक श्रम’ से दूर ले जा रही है। हर डिग्रीधारी स्वयं के लिए आराम तलब कार्य तलाशता है। यहां तक कि मैंने कुछ परिवारों में डिग्रीधारी युवाओं को अपने पिता से पानी मांगते देखा है। कल ही मेरे पास बैठे एक बहुप्रतिष्ठित कलाकार इस बार की शिकायत कर रहे हैं कि उनकी तीसरी युवा पीढ़ी छोटे मोटे उनसे करवाना चाहते हैं। ‘बाबा आप खाली ही तो बैइे हो, हमारे लिए चाय बना दो। चाय अच्छी बनाना।’ वगैरह, वगैरह। 
कहीं ऐसा तो नहीं कि लोक मान्यता केवल सरकारी नौकरी अथवा सफेद कालर धंधों को ही रोजगार मानती है। अगर ऐसा हे तो यह हमारी शिक्षा प्रणाली की विफलता है जिसने  तकनीकी कौशल, मानवीय कौशल रहित डिग्रीधारियों की भीड़ इकट्ठी कर दी है। ध्यान आया कभी गांधीजी ने शिक्षा को श्रम और उत्पादन से भी जोड़ने की बात कही थी। लेकिन मैकाले से प्रभावित लोगो ने उनकी इस बात को अनदेखा कर दिया गया। मत था कि शालाओं में छह घंटे दी जाने वाली शिक्षा में से केवल दो घंटे किताबी ज्ञानार्जन के लिए निश्चित हों, शेष समय में छात्रगण श्रम आधारित कार्यों द्वारा सीखें। लेकिन हमने गांधी को मसीहा तो कहा पर  अनुकरण किया उस मैकाले का जो ब्रिटेन का कोई ऐसा शिक्षाविद नहीं था जिसने शिक्षा में वहां नए और मौलिक आयाम दिए हों। हमें मालूम होंना चाहिए कि मैकाले आदतन आवारा और चालाक प्रवृति का अधिकारी था। उसे बतौर सजा भारत में अंग्रेजी शिक्षा लागू करने के लिए भेजा गया था।
हमारे देश में शिक्षा के सयाथ ऐसे ऐसे प्रयोग हुए हे कि शिक्षा को श्रम से जोड़ना तो दूर अधिकतर विद्यालयों में नियमित व्यायाम, खेलकूद, पीटी आदि गायब है। हमारे जमाने में छात्रों को प्रतिदिन कुछ समय मैदान की सफाई, पेड़ पौधों की देखभाल आदि पर लगाना पड़ता था। 
बेशक आज एक ओर जन्मना जाति को गलत माना जा रहा है तो दूसरी ओर जातिवाद मजबूत हो रहा है। लेकिन यह अनुभव में आ रहा है कि न तो आज के अभिभाव अपने बच्चों को अपना जातिगत कार्य कराना चाहते हैं और न ही आज की पीढ़ी करना चाहती है। उदाहरण के लिए हम पश्चिम दिल्ली की कुम्हार बस्ती को देखे तो वहां के पुराने निवासी आर्थिक रूप से आपेक्षाकृत मजबूत हैं। अधिकांश के पास एकाधिक प्लाट हैं। तैयार माल के खरीददारों की कमी नहीं। लेकिन फिर भी उनके बेटे पुश्तैनी काम करने की बजाय छोटी मोटी नौकरी को प्राथमिकता देते हैं। केवल कुम्हार ही नहीं, बढ़ई, लुहार, सुनार अथवा अन्य कामगारों की भी यही दशा है।   इसका कारण यदि कुछ है तो यहीं कि हम 21वीं सदी में भी कुछ कामों को बड़ा या छोटा मानते हैं। पकौड़े बेचने को भीख मांगने के समान घोषित करने वालो के पास इस बात का कोई जवाब नहीं कि  एक बड़े होटल में तन्खवाह लेकर पकौड़े तलना रोजगार है तो अपनी छोटी दुकान पर ऐसा करना खराब क्यों? जब तक हम सच्चे दिल से यह स्वीकार नहीं करेगे कि जनता और समाज के साथ धोखा करना या देश के साथ गद्दारी करने से केले बेचना, सब्जी बेचना हजार दर्जे अच्छा काम है। जब तक डाक्टर और ड्राईवर को समान प्रतिष्ठा नहीं मिलती ऐसा होता रहेगा। न तो सामाजिक भेदभाव दूर हो सकता है, न ही भ्रष्टाचार और न ही बेरोजगारी।  
निश्चित रूप से सभी के लिए शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए लेकिन अपनी मातृ भाषा या मातृभूमि की भाषा के स्थान पर अंग्रेजी माध्यम होना एक बोझ बनकर रह गया है। शिक्षा के नाम पर केवल डिग्रीधारियां बांटना किसी समस्या का हल नहीं बल्कि स्वयं में समस्याओं का विस्तार है। इसे स्वीकारे या न स्वीकार लेकिन सत्य यह है कि जैसे तैसे डिग्री प्राप्त करने की होड़ में शामिल युवा अपने पारंपरिक रोजगार से जुड़ने में हीन भावना अनुभव करता है। परंतु उसे न अपनी भाषा का ज्ञान है और न ही अपने समाज की संरचना की समझ। जिनके पास ऐसा ज्ञान और समझ है वे अंग्रेजी प्रभाव के चलते कुंठित हैं। जिस समाज में राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए कोई स्थान न हो वहां शिक्षा साक्षरता का पयार्य बनकर रह जाती है। तो डिग्री शोभा की वस्तु।
शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण और रोजगारमूलक होना चाहिए। इसके लिएं आमूलचूल परिवर्तनों की बता तो होती रही हे लेकिन धरातल पर कुछ विशेष नहीं हुआ। क्योंकि देशहित पर राजनैतिक विचारधाराएं हावी है। भारत की समस्याओं का समाधान विभिन्न परिवेश, परिस्थितियों, संसाधनों  वाले दूसरे देशों की विचारधाराओं से निकालने की जिद्द ने शिक्षा संस्थानों का राजनीति के अड्डे बना दिये हैं।
हमने हर नोट पर गांधी को छापकर स्वयं को गांधी को भुला दिया इसीलिए हमें कहां मालूम है कि  शिक्षा के बारे में महात्मा गांधी  का कहना था, ‘‘बुद्धि की सच्ची शिक्षा हाथ, पैर, आंख, कान, नाक आदि शरीर के अंगों के ठीक अभ्यास और शिक्षण से ही हो सकती है। बुद्धिपरक उपयोग से बालक की बुद्धि के विकास का उत्तम और लघुत्तम मार्ग मिलता है। परंतु जब मस्तिष्क और शरीर का विकास साथ-साथ न हो और उसी प्रमाण में आत्मा की जागृति न होती रहे, तो केवल बुद्धि के एकांगी विकास से कुछ लाभ नहीं होगा।’
इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रौद्योगिकी और औद्योगिक शिक्षा आज की आवश्यकता है। रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए इन दोनो का महत्व है। कृषि पर निर्भरता की एक सीमा है। इसलिए प्रौद्योगिकी और औद्योगिक की मदद से विभिन्न क्षेत्रों में काम करना होगा। विकास का अर्थ कुछ लोगों या कुछ क्षेत्रों का विकास नहीं है। सभी को इसका लाभ मिलना चाहिए। लेकिन यह आधुनिकीकरण के नाम पर केवल अंग्रेजीकरण से ही संभव नहीं है। दुर्भाग्य से हमने मान लिया कि शिक्षा प्राप्त करने के बाद हमें श्रम करने की आवश्यकता नहीं रहेगी। जबकि शिक्षा की आवश्यकता प्रतिपल है। जीवन के हर क्षेत्र में हैं। एक शिक्षित महिला न केवल अपने परिवार ओर संतान की जिम्मेवारी को बेहतर ढ़ंग निभा सकती है बल्कि  जागरूक नागरिक के रूप में लोकतंत्र और सामाजिक न्याय को मजबूत बनाने में अपनी भूमिका बेहतर ढ़ंग से निभा सकती है। अपराधों और भ्रष्टाचार की रोकथाम में अपना दायित्व निभा सकती है। 
यह स्वीकार करना ही होगा कि यातायात और संचार की सुविधाओं के विस्तार से शिक्षा का प्रचार-प्रसार होना अवयश्मभावी है। बढ़ती जनसंख्या के कारण अपने परम्परा तरीको से कृषि अथवा अन्य कार्यों से सभी को जीविका प्राप्त नहीं हो सकती। नये विकास का मापदंड अगर पुराने पैमाने भी नहीं हो सकते तो इस भूमि के लिए सर्वथा अपरिचित विदेशी  विचारधाराओं से भी समाधान नहीं तलाशे जा सकते। अपने संसाधानो और परम्पराओं का सदुपयोग करते हुए खेती और कुटीर उद्योग के विकास और आधुनिककरण पर बल देना होगा। विकास के केन्द्रीकरण से बचते हुए हर जिले को विकास और रोजगार का केन्द्र बनाना होगा। 
ध्यान रहे यदि राम आज होते तो भी दशरथ  पहले प्रतिभा विकास और फिर रोजगार के लिए उन्हें बाहर जाने की अनुमति देते। यह जरूर संभव है कि तब राम को वनवासी नहीं, प्रवासी कहा जाता। आज भी हमारे बच्चे पहले पढ़ाई, फिर कमाई और दवाई आदि के लिए देश-विदेश जाते हैं तो यह उसी परम्परा का विस्तार है। आज कोई सौतेली मां नहीं, बल्कि स्वयं की मां  अपने बच्चे के हितो की खातिर हंसी खुशी उसे प्रवासी बनने के लिए प्रेरित ही नहीं करती, सहयोग भी करती है।
संक्षेप में कहे तो बेरोजगारी का एक कारण वर्तमान शिक्षा नीति है।  सही शिक्षा से सामाजिक कुरीतियाँ से लड़ने मे मदद करती है तो जनजागरण की वाहिनी भी है। शिक्षा हमारी सोच को अवैज्ञानिक भेदभाव और अस्पृश्यता से दूर करती है। यदि वह ऐसा नहीं करती तो उसे शिक्षा कहना गलत है। वह डाक्टर, आई.टी., आई.आई.टी., एम.बी.ए., सी.एस, सी.ए या ऐसी ही अनेकोनेक डिग्रियां तो दे सकती है पर उसकी सामाजिक उपयोगिता शून्य है। ऐसे मानसिक बोझ से वह डिग्री रहित  अच्छा जो अपने जननी, जन्मभूमि और भाषा संस्कृति के प्रति संवेदनशील है।

 -डा. विनोद बब्बर  संपर्क-   7982170421, 8800963021, 9868211911 


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