सामाजिक सुधार कानून नहीं, सबकी जिम्मेवारी # Dowry


सामाजिक सुधार कानून नहीं,
हम  सबकी जिम्मेवारी
हम बुराईयों की बहुत चर्चा करते हैं। उन्हें मिर्च-मसाला लगाकर प्रस्तुत करने से भी नहीं चूकते। पर न जाने क्यों, अच्छे कामों की चर्चा से भी बचते है। शायद हमें यह डर सताने लगता है कि अच्छाई की चर्चा कर हम भी ‘ऐसा करने के लिए बाध्य हो जायेगे।’ 
कल एक सगाई समारोह में जाने का अवसर मिला। इधर विवाह से दो-चार दिन पहले होने वाले ऐसे समारोह में जब वधु पक्ष के लोग वर को तिलक करने जाते हैं तो  उसी समय लेन-देन (दहेज) का प्रचलन चल निकला है। लेकिन जिस कार्यक्रम की यहां चर्चा की जा रही है वहां दोनो पक्षो के आपेक्षाकृत संपन्न होने के बावजूद दहेज का लेन-देन नहीं हुआ। वर पक्ष बामुश्किल वधु पक्ष को इसके लिए राजी कर सका। दरअसल बेटी के पिता लोक लाज के कारण इससे बचना चाहते थे। यह सुखद है कि दो परिवारों को एक करने वाले इस अवसर ने दोनो परिवारों के विचारों को भी एक किया। दोनो का अभिनन्दन। 
हम लाख इंकार करें लेकिन दहेज हमारे समाज की आवश्यक बुराई बन गया है। केवल हिन्दू ही नहीं मुस्लिम समाज में भी दहेज और दिखावे का प्रचलन बढ़ रहा है। अपने मुस्लिम मित्र से इसका कारण जानना चाहा तो उन्होंने बिना लाग लपेट स्वीकार किया कि ‘दहेज और दिखावे का जोर उनके समाज में भी है। क्योंकि बहुसंख्यक समाज का असर उनपर पड़े बिना नहीं रहता। जब उनके बच्चे अपने दोस्तों के शादी समारोहों में जाते हैं तो वहां जो कुछ देखते हैं, उसे अपने यहां भी लागू करना चाहते है ताकि कह सके कि वे कमतर नहीं है।’ कहीं वहीं क्यों अन्य सम्प्रदायों और धार्मिक संगठनों से जुड़े लोग भी दहेज लेन-देन करते हैं। सत्य तो यह हे कि ऊपरी तौर पर सब दहेज के विरोधी हैं परंतु जब अवसर आता है तो लगभग सब चूक जाते हैं। यह एक तरह से सामाजिक प्र्रतिष्ठा का प्रतीक बन चुका है। जिस शादी में जितना अधिक लेन-देन, उन परिवारों की उतनी ही अधिक चर्चा। उतनी अधिक प्रतिष्ठा। संपन्न लोगों के लिए ऐसा करना आसान है परंतु आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को भी जब देखा-देखी ऐसा करना पड़ता है तो उनकी स्थिति और खराब हो जाती है। इसें स्वीकारे या न स्वीकारे लेकिन कन्या भ्रूण हत्या का एक प्रमुख कारण दहेज भी है। पिछड़े क्षेत्रों में भी जहां लोग जैसे-तैसे अपना जीवन यापन करते हैं वहां भी बिचौलिये के माध्यम से शादी से पहले ही नकदी और भारी भरकम सामान, वाहन आदि का लेन-देन’ तय कर लिया जाता है। मांग पूरी न होने पर विवाह में बाधा उत्पन्न हो जाती है। बेशक दहेज कानूनन प्रतिबंधित है। दहेज प्रतिबंध अधिनियम  के अनुसार दहेज लेना ही नहीं देना भी अपराध है। शादी के बाद ‘आपसी विवाद पर दहेज की मांग’ के आरोपों वाले ढ़ेरो मामले अदालतों में चल रहे हैं लेकिन दहेज देने वाले पर आज तक किसी कार्यवाही का कभी कोई समाचार कम से कम मैने तो नहीं सुना। यह भी उल्लेखनीय है कि कानून में शादी के समय वर या वधू को दिये जाने वाले उपहार दहेज की परिभाषा से बाहर रखे गये है।
एक सामाजिक कार्यकर्ता से दहेज प्रथा पर स्तिार से चर्चा हुई। उनका मत था कि ‘हर संपन्न पिता  चाहता है कि जब उसका बेटा लम्बी कार में घूम रहा है, सुख-सुविधाओं का आनंद ले रहा है तो उसकी बेटी इससे क्यों वंचित रहे। इसलिए वह ये सारे साधन बेटी को देकर ससुराल भेजना चाहता है।’ 
‘आमतौर पर रिश्ते बराबरी वालों में ही होते हैं। जिस परिवार में बेटी जा रही है, वहां भी थोड़ा-कमोवेश वे सुविधाएं होती ही है। फिर पिता को यह चिंता क्यों?’ के जवाब में वह यह कहने को विवश थे कि ‘इसे सामाजिक प्रचलन कहो या परम्परा या फिर अनावश्यक चिंता लेकिन ऐसा  सभी करते है। शायद आज के युग में एकाकी परिवार की अवधारणा इतना प्रखर है कि  बेटी को अलग घर बसाने के लिए सब कुछ देकर भेजना चाहते हैं।’
‘क्या इसका एक अर्थ यह नहीं कि हमें विश्वास नहीं कि जिसके हाथ में हम अपनी बेटी का हाथ सौंप रहे हैं वह सब कुछ स्वयं अर्जित कर भी सकेगा या नहीं?’ के उत्तर में उन्होंने मुस्कान बिखेरते हुए सहमति में सिर हिला दिया।
नारी अधिकारों के लिए कार्य करने वाली एक संस्था के पदाधिकारी ने ‘दहेज को परम्परा से जोड़ते हुए विवाह के अवसर पर उपहार देने को उचित ठहराया। आम तौर पर जब कोई मित्र या संबंधी कुछ दिन हमारे पास रहता है तो विदाई के समय उसे उपहार देने का प्रचलन हर क्षेत्र में है। गांव वाले और कुछ नहीं तो अपने खेतों के उत्पाद, गुड़, घी आदि ही बांध देते हैं। तो विदाई के समय अपनी बेटी को उपहार देकर भेजना स्वाभाविक है। लेकिन दहेज की मांग और दिखावे को उचित नहीं ठहराया जा सकता।’
दहेज के उचित/ अनुचित होने पर बहस जारी रहेगी, फिलहाल  राजधानी पब्लिक स्कूल के व्यवस्थापक  श्री उमेश त्यागी  और उनके समधी श्री विनोद त्यागी को कोटिशः शुभकामनाएं, अभिनन्दन कि उन्होंने अपने स्तर पर एक अच्छी पहल की। जब सामर्थ्यवान लोग कुछ करते है तो सामान्यजन उसका अनुसरण करते हैं। गीता के तीसरे अध्याय के 21वे श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं- 
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
ईश्वर से प्रार्थना कि इस अच्छी पहल को किसी छूट के रोग की तरह खूब फैलने का वरदान दें।

डा. विनोद बब्बर संपर्क-   9868211911


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