सरदारः- सच्चा आदमी, सच्ची बात
स्वतंत्र भारत के इतिहास में सरदार पटेल के प्रति इस देश के जनमानस में जो श्रद्धा है उसका मुकाबला शायद ही कोई राजनेता कर सकता हो। वास्तव में वल्लभ भाई पटेल एक नेता नहीं, एक ऐसे राष्ट्रनायक थे, जिसने साल-भर में इतना बड़ा चक्रवर्ती अखंड राज्य स्थापित कर दिया है कि जितना न रामचंद्र का था, न कृष्ण का। न अशोक का था, न अकबर का और न ही अंग्रेज का। भारत निर्माण की भूमिका में वे शिवाजी जैसे दूरदर्शी, चाणक्य जैसे कुशल राजनीतिज्ञ और कुशल शासन के आकांक्षी थे। अपनों के विरोध के बावजूद उन्होंने विदेशी आक्रांता द्वारा ध्वस्त किए गए सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण कराया जिसका उद्घाटन नेहरू के विरोध के बावजूद देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू ने किया। कोई आश्चर्य नहीं कि लौहपुरुष ने कभी भी किसी कार्य का श्रेय नहीं लिया।
यश, प्रसिद्धि और व्यक्तित्व पूजा की भूख से कोसो दूर एक मौन साधक की तरह कार्य करते हुए केवल और केवल राष्ट्र हित को सर्वोपरि माना। उनका दर्शन था, ‘तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहे न रहें’ जब भारत में विलय के प्रश्न पर हैदराबाद के निजाम की ओर से हिन्दूओं की जान को खतरे की धमकी दी गई तो सरदार ने साफ-साफ कहा था, ‘यदि एक भी निर्दोष पर खतरा मंडराया तो......!’ भारत में विलय के बाद भी निजाम की अकड़ बरकार रही। उसने हैदराबाद यात्रा पर आ रहे भारत के प्रधानमंत्री के स्वागत से इंकार कर दिया तो असरदार सरदार ने उसे समझाया था, ‘ध्यान रहे, यह देश के प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा का प्रश्न है!’ इतना सुनते ही अगली सुबह निजाम गुलदस्ता लिए नेहरू के स्वागत में सबसे आगे खड़ा था। पटेल में कूटनीति को जबरदस्त समझ थी। वे आरंभ में ही अंत को भांप लेते थे। अंतिम वायसराय लार्ड माडंटबेटन ने अपनी आत्मकथा में उन्हें ‘डेंजरस डिपलोमैट’ कहा था।
आजादी से पूर्व, अंग्रेज सरकार के रहते जब सरदार वल्लभभाई पटेल अहमदाबाद म्युनिसिपेलिटी के अघ्यक्ष बने तो उन्होंने बाल गंगाघर तिलक की मूर्ति विक्टोरिया की मूर्ति के समानान्तर लगवाने का साहस दिखाया था। तब गाँधी जी ने कहा था, ‘सरदार पटेल के आने से अहमदाबाद म्युनिसिपेलिटी में एक नयी ताकत आयी है। मैं तिलक का बुत स्थापित करने की हिम्मत बताने के लिये उन्हें बधाई देता हूं।’
यह कोई छिपा रहस्य नहीं, जब अधिकांश प्रांतीय समितियां सरदार पटेल के पक्ष में थी लेकिन गांधी जी के प्रति अत्याधिक श्रद्धा और सम्मान रखते थे। गाँधी के एक इशारे पर उन्होंने स्वयं को प्रधानमंत्री पद से दूर कर लिया। यह कहना कोई अतिश्योक्ति न होगी कि यदि कश्मीर का मसला नेहरू के बजाय पटेल के हाथ मे होता तो आज भारत में कश्मीर समस्या जैसी कोई समस्या नहीं होती। आश्चर्य यह कि जिस नेहरू ने महाराजा हरिसिंह द्वारा कश्मीर के भारत में विलय पत्र पर हस्ताक्षर के बाद पाकिस्तानियों को खंदेड़ती सेना के बढ़ते कदमों को अकारण रोकते हुए ‘जनमत संग्रह’ की बात कही थी, उन्हें अथवा उनके किसी समर्थक को ‘जनमत संग्रह’ की बात तब क्यों नहीं सूझी जब अधिकांश समितियों के सरदार के पक्ष में होने के बावजूद नेहरू को देश का भाग्य विधाता बनाया गया। देश की वर्तमान परिस्थियों का आंकलन कर आज यह प्रश्न जरूर उन चाहिए कि क्या यह गांधी जी की महान भूल नहीं थी?
यह भी कम आश्चर्य की बात है कि उन्हें ‘अपनो’ से ज्यादा ‘गैरों’ ने अपना माना। हाँ, यह बात अलग है कि कुछ ‘अपनो’ ने जो उनके बड़े आलोचक माने जाते थे, उन सभी अर्थात् आचार्य कृपलानी, जयप्रकाश नारायण, डॉ राममनोहर लोहिया, मीनू मसानी को ने अपनी राय बदलनी पड़ी। मधु लिमये ने अपने आलेख ‘वल्लभ भाई पटेल- फ्रीडम सरदार’ में अपनी गलती को स्वीकारा।
इसी प्रकार. भारतीय विद्याभवन द्वारा प्रकाशित ‘भवन्स जर्नल’ में जयप्रकाश नारायण सरदार पटेल को तब प्रतिक्रियावादी मानने की बड़ी भूल का प्रायश्चित करते नजर आये। इस लेख में जेपी लिखते हैं, ‘सरदार को हमने गलत समझा. मेरे अंदर आज प्रधान भावना आत्म-भर्त्सना की है क्योंकि उनके जीवन-काल में मैं महान सरदार का केवल एक आलोचक ही नहीं बल्कि एक प्रतिपक्षी भी रहा।‘
दरसअल सरदार पटेल, व्यवहारवादी थे। वह दिवास्वप्न नहीं देखते थे. एक बार उन्होंने वामपंथियों से कहा था, ‘पूरे देश में कोई एक प्रांत ले लो और उसे अपने ढंग से चला कर दिखाओ कि कैसे वह राज्य सर्वश्रेष्ठ हो सकता है? फिर मैं अपना विचार छोड़ कर आपका अनुयायी हो जाऊंगा।’ उनका मत था, ‘हिंदुस्तान को अभी आजादी मिली है। दो-चार साल इंडस्ट्री बनें, कुछ उद्योग पैदा हों, तभी तो मजदूरों के लिए कुछ धन पैदा हो सकेगा और उन्हें हिस्सा मिल सकेगा। कोई चीज होगी ही नहीं, तो क्या बांटोगे?’ यहाँ यह स्मरणीय है कि बेशक हम दूरदर्शी सरदार की राह पर नहीं चले पर हमारा पड़ोसी चीन उसी राह पर चलकर आज दुनिया की महाशक्ति है।
अपने विरोधी कम्युनिस्टों को करारा जबाव देते हुए उन्होंने एक बार कहा था, ‘मुझे किसी से सोशलिज्म सिखाने की जरूरत नहीं। मैंने वर्षों पहने ही फैसला किया था कि यदि पब्लिक लाइफ में काम करना हो, तो अपनी मिल्कियत नहीं रखनी चाहिए। तब से आज तक मैंने अपनी कोई चीज नहीं रखी. न मेरा कोई बैंक एकाउंट है, न मेरे पास कोई जमीन है और न मेरे पास अपना कोई मकान है।
आजादी के बाद की स्थिति से वे प्रसन्न नहीं थे। एक ही वर्ष में उनकी निराशा बार-बार सामने आती। इलाहबाद विश्वविद्यालय के छात्रों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, ‘अब तो ऐसा मालूम होता है कि हमें जालसाजियों करने और सत्ता की दौड़-धूप में आनंद आता है। आज जो मुकाबले होते हैं, उनमें खेल के स्वस्थ नियमों को ध्यान में न रखकर हम उन्हें गंदा बना देते हैं। केवल चाल के रूप में सत्य को सराहते हैं। ..... मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि इस चित्र में कोई बात बढ़ा चढ़ा कर नहीं दिखा रहा हूँ।’
स्पष्टता से अपनी बात रखने वाले सरदार ने एक भाषण में यहाँ तक कहा, ‘यदि सच्चा स्वराज चाहिए, तो हमें गांधीजी की बतायी समाज रचना करना पड़ेगी। इसलिए मैं पुकार-पुकार कर सब जगह कह रहा हूँ कि आप गलत रास्ते पर चल रहे हैं। यदि इसी तरह से चलते रहेंगे तो कुछ दिन बाद लोग कहने लगेंगे कि इससे तो अंग्रेजों का राज अच्छा था। तब कम-से-कम खाना तो मिलता था।’
पूर्व विदेश सचिव की पुस्तक ‘फारेन पालिसी राजा राममोहन राय टू सिंहा’ में प्रकाशित पटेल का नवम्बर, 1950 में नेहरू जी को लिखा पत्र प्रमाण है कि पटेल बहुत दूरदर्शी थे। उन्होंने उस पत्र के माध्यम से नेहरू को चीन द्वारा तिब्बत को हडपने की तैयारी के प्रति सावधान किया था। सीमाओं की सुरक्षा और गुप्तचर व्यवस्था मजबूत करने, सेना को आधुनिक बनाने, यातायात, संचार, वायरलैंस, पूर्वाेत्तर राज्यों की ओर विशेष ध्यान देने पर बल दिया था। इतिहास साक्षी है कि पटेल की चेतावनी की ओर ध्यान न देना हमें कितना महंगा पड़ा।
पंडित जवाहर लाल नेहरू से उनके अनेक मसलों पर मतभेद थे लेकिन वह कहते थे, ‘यदि मैं अपने लीडर का साथ न दे सकूं तो मैं एक मिनट भी गवर्मेट में नहीं रहूंगा। इस तरह की बेवफाई मेरे चरित्र में नहीं.।’ प्रसिद्ध अमेरिकी पत्रकार एडगर स्नो के एक प्रश्न के उत्तर में स्वयं नेहरू जी ने भी उनके इस गुण को स्वीकाराते हुए कहा था, ‘मैं जानता हूं कि मैं इशारा कर दूं, तो सरदार मंत्रिमंडल छोड़ देंगे।’
यही क्यों, नेहरू के जन्मदिन पर बिस्तर पर लेटे-लेटे ही उन्होंने बधाई-पत्र लिखा तो एक सप्ताह बाद नेहरू स्वयं उनसे मिलने आ गए। तब पटेल ने कहा था, ‘मेरा स्वास्थ्य थोड़ा ठीक हो जाये, मैं आपसे अकेले में बात करना चाहता हूं। मुझे ऐसा लग रहा है कि आप मुझमें अपना विश्वास खोते जा रहे हैं।’ इसके जवाब में नेहरू ने कहा था, ‘मुझे तो यह लगता है कि मैं अपने आप में यकीन खोता जा रहा हूं।’ यह विधि की विडंबना ही कही जाएगी कि उसके तीन सप्ताह बात ही सरदार पटेल अनंत की यात्रा पर निकल गए।
सरदार पटेल अपने कर्तव्य धुन पक्के थे। ईमानदारी उनका प्रथम प्रतिमान थी। महान स्वतंत्रता सेनानी महावीर त्यागी ने अपने एक संस्मरण में लिखा है, ेएक बार मणिबेन कुछ दवाई पिला रही थी। मैंने कमरे में दाखिल होते ही देखा कि मणिबेन की साड़ी में एक बहुत बड़ी थेगली (पैबंद) लगी है। मैंने जोर से कहा, ‘मणिबेन, तुम तो अपने आप को बहुत बड़ा आदमी मानती हो. तुम एक ऐसे बाप की बेटी हो कि ऐसे बड़े राजों-महाराजों के सरदार की बेटी होकर तुम्हें शर्म नहीं आती?’ बहुत मुंह बना कर और बिगड़ कर मणि ने कहा, ‘शर्म आये उनको, जो झूठ बोलते और बेईमानी करते हैं, हमको क्यों शर्म आये?’ पर मैं उस समय शर्म से डूब मरा जब सुशीला नायर से पता चला कि मणिबेन दिन-भर सरदार साहब की खड़ी सेवा करती है. फिर डायरी लिखती है और फिर नियम से चरखा कातती है। जो सूत बनता है, उसी से सरदार के कुर्ते-धोती बनते हैं। जब वे धोती-कुर्ते फट जाते हैं, तब उन्हीं को काट-सीकर मणिबेन अपनी साड़ी-कुर्ती बनाती हैं। मैं उस देवी के सामने अवाक खड़ा रह गया। कितनी पवित्र आत्मा है, मणिबेन. उनके पैर छूने से हम जैसे पापी पवित्र हो सकते हैं। फिर सरदार बोल उठे, ‘गरीब आदमी की लड़की है, अच्छे कपड़े कहां से लाये? उसका बाप कुछ कमाता थोड़े ही है.’ सरदार केे चश्मे का केस बीस बरस पुराना था। तीसियों बरस पुरानी घड़ी और कमानी का चश्मा जिसके दूसरी ओर धागा बंधा था।
वह उदारता या बड़प्पन, यह जीवन दृष्टि आज किसी नेता में दिखता है? रियासतों के भारत विलय के लिए जब वे निकलते तो एक थैला अपने पास रखते। लौटने पर लोग पूछते, ‘आज कितनी रियासते हैं आपके थैले में?’ लेकिन आज के नेताओं के थैले में क्या हो सकता है, यह दोहराने की आवश्यकता नहीं है। महज पटेल की चर्चा या मूर्ति बना देने से देश भला नहीं होगा। पटेल के तप, त्याग, आदर्श और योगी का स्वभाव, भारतीय राजनीति में कहीं जगह पा सके, इसके लिए नेता कोशिश करें, तो मुल्क का भला होगा। आश्चर्य होता है आज सरदार की कुर्सी पर बैठने वाले लाखों के डिजाइनर कुर्ते पहनते हैं तो महंगे चश्में और घड़ियों का अंबार है उनके पास।
सच तो यह है कि जिस राष्ट्रकी एकता, अखंडता के लिए सरदार ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया उसके संकीर्ण नेताओं ने ही उनके साथ न्याय नहीं किया। सूचना के अधिकार के अंतर्गत प्राप्त जानकारी के अनुसार देश की मुख्य केंद्रीय योजनाओं में से 16 राजीव गांधी के नाम पर, 6 इंदिरा जी के नाम पर और 3 नेहरू जी के नाम हैं परंतु सरदार पटेल के नाम पर मात्र एक। देश के बड़े संस्थानों के नाम एक परिवार की बपौती बन कर रह गए। जो कभी भी किसी संवैधानिक पद पर नहीं था, उसके नाम पर अनेक अस्पताल, कालेज, न जाने क्या-क्या। मन विद्रोह करता है- क्या सरदार कुकरमुत्तों से भी कमतर थे?
सरदार के प्रति अत्यंत श्रद्धा रखते हुए भी मेरे मन में एक टीस है कि जिस महापुरुष ने 562 रियासतों को भारत मंे विलय कराया वहीं व्यक्ति आखिर कश्मीर पर धारा 370 के विरोध में क्यों नहीं बोला। जब तथ्यों को टटोलता हूँ तो सामने आता है एक और भीष्म का चेहरा। बिल के पास मित्र जैसे उनके सचिव ने पूछा था, ‘आप जैसे राष्ट्रवादी से देश को यह आशा नहीं थी।’ इस पर पटेल ने उत्तर दिया, ‘यदि आज मै 370 के पक्ष में अपना मत नहीं दिया होता तो नेहरू को यह कहने का मौका मिलता कि उनके संसद में न रहने पर मैंने उनका विरोध किया।’ काश! भीष्म प्रतीज्ञाबद्ध न होते तो महाभारत न होता, काश सरदार पटेल को महात्मा गांधी न रोकते तो देश का इतिहास ही नहीं भूगोल भी कुछ और ही होता। पटेल के प्रदेश में विशाल मूर्ति बनाने से ज्यादा जरूरी है कश्मीर की जवाहर टनल से 500 मील उस पार वल्लभ टनल और सरदार की मूर्ति बने भी अखंड भारत का सरदार का स्वप्न साकार हो सकता है।
(सम्पर्क- विनोद बब्बर, , ए-2/9ए, हस्तसाल रोड, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059, चलभाष- 09868211911)
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