परिवेश से साहित्य तक उपेक्षित हैं बच्चें ---डा. विनोद बब्बर

आज सारा देश इस बात से उत्साहित महसूस कर रहा है कि एक भारतपुत्र को बाल मजदूरी समाप्त करने के प्रयासों के लिए इस वर्ष का नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया है। विश्व का सबसे प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त करने पर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से आम आदमी तक कैलाश सत्यार्थी को बधाई दे रहे हैं। निश्चित रूप से यह अवसर अपनी उपलब्धियों पर गर्व होने का है लेकिन यही अवसर है जब हमें आत्ममुग्ध होने की बजाय आत्मनिरीक्षण भी करना चाहिए कि वास्तविक के धरातल पर हम कहां खड़े हैं।ं
इस बात का दावा स्वयं सत्यार्थी जी भी नहीं कर सकते कि भारत से बाल मजदूरी समाप्त हो चुकी है। सत्य तो यह है कि हमारी जबरदस्त आकाँक्षाओं, बाजार की धारदार रणनीतियों और भूमण्डलीकरण के बढ़ते दबावों ने बाल मजदूरी का एक ऐसा दौर आरंभ किया  है कि जिसपर हमारी नजर तक नहीं है। दुर्भाग्य की बात यह है कि इस नई परिस्थिति में शोषक कोई दूसरा नहीं बल्कि हम स्वयं है। हम अपने बच्चांे को जाने-अनजाने एक ऐसी अंधेरी सुरंग में धकेल रहे हैं जहां आधुनिकता के सपने तो जरूर हो सकते है परंतु उनके साकार होने की संभावना दूर-दूर तक नहीं है। जहां सफलता करीब लगती है वहां हमारे बच्चे अपनी संस्कृति, अपने पूर्वजों, अपने परिवेश को पहचानना तो दूर जानते तक नहीं।
‘बच्चे नन्हें फूल हैं। भगवान को प्यारे हैं। हमारे राजदुलारे हैं। देश का भविष्य हैं। कल के राष्ट्र-निर्माता हैं। हमारी धरोहर हैं। हमारी विरासत के उत्तराधिकारी हैं।’ यह सुनते-सुनते शायद मेरी तरह आपके कान भी पक गए हो। हो सकता है कुछ मित्रों को ‘कान पकना’ शब्द अरुचिकर अथवा अनफिट लगे लेकिन जब आप ईमानदारी से बच्चों के प्रति बुद्धि़जीवी वर्ग की अपराधपूर्ण लापरवाही पर चिंतन करेंगे तो आपके पास इस कथन से सहमति के अतिरिक्त शायद ही कोई विकल्प हो।
आज बच्चों को एक से बढ़ कर एक आधुनिक सुविधाएं, कान्वेन्ट स्कूल, इन्टरनेट की स्वच्छन्दता, बेहिसाब पाकेट मनी उपलब्ध कराने पर तो हमारा जोर है लेकिन उन्हें सर्वाधिक महत्वपूर्ण संपदा से वंचित रखा जा रहा है। उन्हें संस्कृति, संस्कार, नैतिक शिक्षा, अनुशासन का पाठ पढ़ाने की बात करने वालांे को हम ‘अत्याचारी‘ और ‘मानसिक रोगी’ घोषित करते देर नहीं लगाते। एक ओर हम अपने रक्त संबंधों को ‘पूरी निष्ठा’ और ‘ईमानदारी’ से सींचने का दावा करते हैं तो दूसरी ओर अपने ही पूर्वजों से प्राप्त सद्गुणों के हस्तांतरण के प्रति उदासीन है। हमारे समाज के कर्णधार और नीति निर्माता नन्हें-मुन्ने बच्चों को अपनी ‘प्रयोगशाला’ का रसायन बनाने पर तुले हैं तो हमारे ‘तथाकथित’ आधुनिक साहित्यकार मित्र बाल साहित्य को अपनी मनमानी व्याख्या की सीमाओं में बांधना चाहते है।
‘सदियों से समाज परं साहित्य का प्रभाव रहा है’, इस कथन पर शायद ही किसी को आपत्ति हो लेकिन जहां तक मेरे जैसे अल्पबुद्धि व्यक्ति का अनुभव है- साहित्य किसी भी समाज का वह प्रेरक तत्व है जो सोए हुओं को जगाता है, जागे हुओं को सक्रिय करता है तो सक्रियों को समाज में समानता, सद्भावना, समरसता को हृदयंगम करते हुए बौद्धिक विकास और समृद्धि के पथ पर आगे बढ़ने की ऊर्जा प्रदान  करता है। बाल साहित्य भी इसका अपवाद नहीं हो सकता। 
आज जब हम अपने चहूं ओर नजर दौड़ाते हैं तो हमें अपने छोटे-छोटे बच्चें संवेदनात्मक स्पर्श की बजाय खिलौनों के आभासी संसार से घिरे नजर आते हैं। आज तेज दौड़ने वाली कार या बंदूक बच्चों को अपने ‘बर्थडे’ पर मिलने वाले उपहारों में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। बर्थडे ‘सेलेब्रेशन’ का अर्थ यदि मोमबत्तिया बुझाने से हाथ में चाकू थामें केक काटते हुए शुभकामनाएं बटोरना हो तो फिर बच्चों के हिंसक का रोना रोने का हमें क्या अधिकार है।  
समय-काल परिस्थितियों का प्रभाव कहे या दुष्प्रभाव आज परिवार विखंडित हो रहे है। हम प्रकृति से कट रहे हैं तो हमारे बच्चें अपनी दादी-नानी की गोद से दूर होते जा रहे है। जब शहरी जीवन की झूठी शान के चलते अनाप-शनाप खर्च पूरे करने केे अनियंत्रित तनावों के बीच कामकाजी माता-पिता स्वयं मशीनी ढ़ंग से जी रहे हो तो हम उनसे यह आपेक्षा कैसे कर सकते हैं कि वे अपने बच्चों को श्रेष्ठ संस्कार दे। ऐसे में हमारे सम्पूर्ण समाज के सामने सबसे बड़ी समस्या यह होनी चाहिए कि संयुक्त परिवार रहे नहीं, मां-बाप के पास समय नहीं तो क्या इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य को बेलगाम टीवी चैनलों और इन्टरनेट के भरोसे छोड़ा जाना कितना सही हो सकता है? कभी शिक्षा को सभ्यता और संस्कार की जननी बताया जाता था लेकिन हमारी आज की शिक्षा प्रणाली और हमारे स्कूली पाठ्यक्रम इस कार्य में कितना योगदान करते हैं यह किसी से छिपा हुआ नहीं है।
अब बात करें बाल साहित्य की। बाल साहित्य का उद्देश्घ्य बाल पाठकों का मनोरंजन करना ही नहीं बल्कि उन्हें खेल-खेल में वर्तमान की सच्चाइयों से परिचित कराना है। कविता, कहानियों के माघ्यम से नैतिक शिक्षा प्रदान करते हुए उनका चरित्र निर्माण करने वाली होनी चाहिए। जो साहित्य आधुनिकता से संस्कार, समर्पण, सदभावना से सामन्जस्य बैठाने में असमर्थ होे उससे कोई आशा करना स्वयं को धोखा देना है। बाल साहित्य कोई नई अवधारणा नहीं है। हमारे लिए हमारे पौराणिक ग्रन्थों से पंचतंत्र, हितोपदेश तथा कथासरित्सागर तक अनेक ऐसे प्रमाण है जो सिद्ध करते हैं कि बाल साहित्य आदिकाल से विद्यमान रहा है। माँ की लोरी से दादी-नानी की कहानियों तक। चंदामामा से बालवाटिका तक, मैथिलीशरण गुप्त से मुंशी प्रेमचंद तक, बालशौरि रेड्डी से भैरुलाल गर्ग तक बाल साहित्य की एक लंबी श्रृंखला हमारे सामने हैं।
आज के बाल साहित्य पर नजर दौड़ाए तो दिखता है कि हम बार-बार ‘नन्हें-मुन्नों के कोमल किन्तु जिज्ञासु मन  मस्तिष्क के लिये श्रेष्ठ साहित्य का सृजन किया जाना चाहिए’ का राग अलापते हैंे लेकिन कभी ईमानदारी से यह विश्लेषण नहीं करते कि यदि ऐसा नहीं हो पा रहा था तो आखिर समस्या कहां है। क्या यह सत्य नहीं है कि ‘बाल मनोविज्ञान’ के नाम पर हम ‘अपने मनोविज्ञान’ मासूम बच्चों पर थोपने की कोशिश कर रहे हैं? ऐसेी रचनाओं को बाल साहित्य की परिधि में रखा भी जाए तो आखिर क्यों जो अपनी जड़ों से काटती तो है लेकिन नई जमीन पर जड़ जमाने के लिए खाद-पानी उपलब्ध कराने की बजाय केवल भ्रम ही उत्पन्न करती है।
 यह सही है कि ज्ञान विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ बालकों का मानसिक स्तर ऊंचा उठा है। उसे कोरी कल्पनाओं के संसार में नहीं रखा जा सकता। उसे परियों और भूत-प्रेत की कहानियां नहीं चाहिए लेकिन इस प्रश्न से भी आंखे नहीं चुराई जा सकती कि ऊँची-ऊँची बिल्डिंगों से कूदने, असंभव स्टंट करने, हत्या-चोरी- डकैती की सनसनीखेज कहानियां वाले कामिक्स क्यों चाहिए जो बाल साहित्य के नाम पर कलंक हैं। आखिर कार्टून पात्रों के नाम विदेशी ही क्यों हो?  स्पष्ट है कि व्यवसायिकता के वर्तमान दौर में बाल मनोविज्ञान के सकारात्मक पक्ष की अनदेखी स्वीकार नहीं की जा सकती। हाँ, कुछ पत्रिकाएं और दैनिक समाचारपत्र अपने साप्ताहिक परिशिष्ठों में  जरूर बेहतर कर रहे हैं लेकिन हमारे दौर का सर्वाधिक सशक्त माध्यम इलैक्ट्रिोनिक मीडिया, टीवी चैनल बाल मानसिकता को बिगाड़ने वाले विज्ञापनों और कार्टून फिल्मों से आगे जैसे कुछ जानते ही नहीं हैं। ऐसे में क्या हम यह मान ले कि कि अब कोई जीजाबाई शिवा को राष्ट्रधर्म नहीं सिखायेगी। आखिर कोई मनु बिना साहस, बलिदान,  परिश्रम को जाने कैसे लक्ष्मीबाई बनेगी? जब संस्कृति संस्कार, से शिक्षा तक सब कुछ ‘रिमोट’ संचालित होगा तो क्या शेर का मुंह खोलकर दांत गिनने वाले किसी ‘भारत’ की राह जोहना शकुंतला की पागलपन होगा? 
साहित्य ही क्यों, हमारी निष्क्रियता ने बच्चों की खाद्य रूचियों को बदला, उनके रहन-सहन को बदला, उनकी जीवनशैली बदली, उनकी सोच को बदला।  आज परिणाम यह है कि खेलकूद के नाम पर टीवी, विडियों से चिपके बच्चंें के तेजी से बेडौल हो रहे है तो  चिड़चिड़े, जिद्दी, हिंसक भी। जिस बचपन को जीवन का सर्वश्रेष्ठ आनंद का काल कहा गया है उसी बचपन की खेलने-खाने की उम्र में वे तनाव, अवसाद की गिरफ्त में जा रहे हैं और फिर भी हम तेजी से सुनहरे कल ओर बढ़ने का दावा करते हैं तो हमारा दिवा-स्वप्न नहीं तो और क्या है। शायद ऐसी ही परिस्थितियों के कारण कभी महात्मा चाणक्य ने कहा था- ‘इस राष्ट्र को इतनी हानि आक्रांताओं की दुर्जनता से नहीं हुई जितनी स्वजनों की निष्क्रियता से हुई है।’
मुझे क्षमा करे यदि मैं अति कर रहा हूँ। लेकिन बात-बेबात पश्चिम को कोसने की बजाय हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हम उनकी तुलना में एक चौथाई भाग भी नहीं कर पा रहे हैं। नतीजा सामने हैं- हम न तीतर बन सके न बटेर। दुष्परिणाम सामने है। बच्चों का बचपन छिन गया है। वे उम्र से पहले परिपक्व हो रहे हैं। मुट्ठी में बंद रेत की तरह हमारे संस्कार और संस्कृति फिसल रही है और हम टुकर-टुकर देखने को विवश है। और अंत में मेरा अनुरोध है हम अनुशासन के महत्व को अवश्य समझे साथ ही साथ जो कुछ लिखें-करें, केवल उपदेशक बनकर नहीं बच्चों के दोस्त होकर करें। बच्चों के साथ बच्चे बन जाए। उनके साथ अपने बचपन की दुनिया में लौट जाएं। हमारा भविष्य  सुरक्षित हो जाएगा। हमारी संस्कृति नष्ट होने से बच जाएगी और यह दुनिया आज से बेहतर बन सकेगी।

लेखक सम्पर्क-  ए-2/9ए, हस्तसाल रोड, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059, चलभाष- 09868211911
परिवेश से साहित्य तक उपेक्षित हैं बच्चें ---डा. विनोद बब्बर परिवेश से साहित्य तक उपेक्षित हैं बच्चें ---डा. विनोद बब्बर Reviewed by rashtra kinkar on 03:59 Rating: 5

1 comment

  1. गुरुवर प्रणाम,
    बाल दिवस नजदीक है, और बाल दिवस की सार्थकता ऐसे ही लेख हैं. आपने हितोपदेश, पंचतंत्र और दुसरे बाल साहित्यों की बात की है. ऐसा प्रतीत होता है कि बाल साहित्य बच्चों को पढ़ना बेशक नहीं भाता हो, लेकिन बड़ों के मुंह से उन कहानियों को महसूस करना निश्चय ही अद्भुत प्रभाव डालता है. यही नहीं, बल्कि एक कदम आगे बढ़कर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि पंचतंत्र इत्यादि में रोचक और प्रेरक कथाएं बड़ों को भी काफी कुछ सीखा जाती हैं, जो शायद गंभीर साहित्य न सीखा पाएं. आपने बिलकुल सही कहा है, बच्चों के साथ बच्चे बनें... तो वह भी सीखेंगे, और हम भी शुरुआत कर पाएंगे. सुन्दर लेख के लिए कोटि-कोटि साधुवाद.
    आपका- मिथिलेश (9990089080)

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