भारत की नारी, अब नहीं हैं बेचारी - डा. विनोद बब्बर

इस बात से शायद ही कोई असहमत होगा कि नारी सशक्तिकरण आज की आवश्यकता है। लेकिन नारी सशक्तिकरण की परिभाषा में सबसे पहले उसके जन्म लेने के अधिकार पर प्रश्नचिन्ह हटना ही चाहिए। न भ्रूण जांच और न ही भ्रूण हत्या हो। बिना भेदभाव समान अवसर जिनमें शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं, रोजगार, सम्मान भी शामिल हैं, मिलना ही चाहिए। आमतौर पर देखा गया है कि हम नारी सशक्तिकरण के नाम पर राजनीतिक एवं आर्थिक मुद्दों पर ही अटक जाते है। आरक्षण से पहले रक्षण सुनिश्चित किए बिना ससंद से विधानसभाओं तक महिला आरक्षण की दुहाई देने वाले न जाने सामाजिक सशक्तिकरण की अनदेखी क्यों करते हैं। बेशक परिस्थितियां बदली हैं लेकिन ऐतिहासिक सत्य यह है कि आज भी उन्हें पुरुष मानसिकता से ही नहीं बल्कि जातीय संरचना में भी पीछे रखा गया है। ाजनैतिक बाजीगरी अर्थात आरक्षण की कृपा से जहां महिलाएं पंचायत आदि में प्रधान पद पर विराजमान भी है वहां भी महिला प्रधान से अधिक रूतबा ‘प्रधानपति’ का है। स्पष्ट है कि जब तक सामाजिक सशक्तिकरण नहीं होगा, तब तक नारी अपने कानूनी अधिकारों का समुचित उपयोग नहीं कर सकती।
यदि पिछले कुछ घटनाओं पर नजर दौड़ायें तो ऐसा लगता है कि भारतीय नारी अब बदल रही है। अब वह परम्परागत परिवेश से बाहर आ रही है। इसका प्रथम श्रेय शिक्षा को दिया जाना चाहिए जिसने नारी में आत्मसम्मान पैदा किया है। शिक्षा ने रोजगार का रास्ता खोला जिससे नारी आत्मनिर्भर हो रही है बल्कि परिवार के विकास में भी महत्वपूर्ण जिम्मेवारी निभा रही है। इतना ही नहीं विवाह जैसे मामलो में भी लड़की अब अपनी पंसद- नापसंद बताने लगी है। उसे विवाह के नाम पर बंदिशे भी अब अस्वीकार्य है। बड़ी उम्र में विवाह, प्रेम विवाह से तलाक के मामलों में बहुत तेजी से वृद्धि हो रही है तो दूसरी ओर एकल अभिभावक की अवधारणा की खुसफुसाहट चल निकली है तो स्वतंत्र विचारों की कामकाजी लड़कियों विवाह से बच रही है।
दूसरी ओर कुछ लोगों को ऐसा भी लगता है कि आज की नारी आत्मनिर्भर से ज्यादा उग्र हो रही है। इस संदर्भ में कुछ उदाहरण हमारे सामने है। हरियाणा रोडवेज की चलती बस में छेड़खानी के आरोप में लड़के की पिटाई करते हुए बहुचर्चित वीडियो की जानकार लगभग हर जागरूक व्यक्ति को है जिसमें रोहतक की दो बहनों ने कथित रूप से छेड़छाड़ करने वाले तीन लड़को की जमकर पिटाई की। इस मामले में लड़कियां की सर्वत्र प्रशंसा हुई लेकिन उसी बस में सवार अनेक लोगों ने इसे प्रयोजित बताते हुए लड़कियों को झूठा बताया था। स्वयं को घटना का चश्मदीद बताने वाली चार महिलाओं ने शपथ पत्र प्रस्तुत करते हुए कहा- “एक लड़के ने एक बीमार बुजुर्ग महिला का टिकट लिया। उसकी सीट नंबर 8 थी। उस सीट पर दो लड़कियां बैठी थीं। युवक ने बीमार के लिए सीट छोड़ने को कहा तो वे भड़क गईं। बात बढ़ गई और दोनों लड़कियों ने मारपीट शुरू कर दी। दो लड़के बस में थे, जबकि तीसरा रास्ते में (भालौठ से) बस में चढ़ा था। मीडिया में एकतरफा खबर दिखाई गई है। तीनों लड़के बेकसूर हैं।’ कुछ अन्य लोगों ने ‘उनके’ द्वारा ऐसा पहले भी करने की जानकारी देते हुए आरोपों को गलत बताया तो हरियाणा सरकार ने जांच के आदेश दिए क्योंकि यह भी कहा जा रहा है कि वीडियो उन लड़कियों की साथी तीसरी लड़की ने बनाई। सत्य निष्पक्ष जांच से ही सामने आएगा।
वैसे ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो मानते हैं कि सीरियल रेपिस्ट घूरने, अश्लील कॉमेंट करने वालों का इलाज केवल कानून नहीं कर सकता। जिस दिन लड़कियां डरने या नाजायज कृत्य सहने की बजाय डराने लगेगी, उस दिन के बाद कोई उनसे अमानुषिक व्यवहार करने का दुस्साहस नहीं करेगा। उस दिन कोई मुलायम सिंह यह कहने की जुर्रत नहीं करेगा कि ‘लड़कें है, गलती हो जाती हैं।’
नारी स्वतंत्रता के पक्षधरों का तो यहां तक कहना है कि यदि कोई आत्मरक्षा में किसी दूसरे की जान भी ले ले तो उसे कानून भी गलत नहीं मानता। प्रत्येक व्यक्ति का पहला कर्तव्य अपना बचाव व विकास करना है। जो समाज भरी हुई बस में उन लड़कियों को सुरक्षित माहोल नहीं दे पाये, उस समाज को सभ्य समाज कैसे कहा जा सकता है। उसे लड़कियों की आक्रमकता पर सवाल उठाने का क्या अधिकार है? भरी हुई बस में उन्हें अपना बचाव अपने आप करने की आवश्यकता पड़ी, यह तथाकथित समाज के ठेकेदारों को शर्माने की बात है। यदि शरारती लड़कों को सहयात्री डांट-डपट कर अलग कर देते तो ऐसी घटनाओं से बचा जा सकता है लेकिन दुःखद पहलु तो यह है कि समाज की संवेदनशून्यता भी इस प्रकार की समस्याओं के लिये जिम्मेदार है। विचार करने की बात है कि हम लोगों को सामाजिक कर्तव्यों के प्रति जागरूक कैसे करें।
बेशक कम ही तो परंतु दूसरी तरफ लड़कों से लड़कियों द्वारा छेड़छाड़ जैसी वारदात ही सुनाई देने लगी है। इसी प्रकार की एक शिकायत इलाहाबाद महिला हेल्प लाइन पर आई जिसे सिविल लाइंस में रहने वाले एक अधिवक्ता ने दर्ज कराई है। कालेज के कुछ छात्रों ने दबी जबान में बताया कि आज लड़कियां किसी से कम नहीं है। वे नशा करने लगी हैं। अकेले पाने पर ग्रुप की लड़कियां मिलकर उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित तक करती है। दहेज कानून के विषय में देश की अदालतें तक कह चुकी हैं कि इस कानून का भरपूर दुरपयोग हो रहा है। चर्चा को आगे बढ़ाने से पूर्व इन समाचार पर भी नजर दौड़ाए, ‘एक बेटी ने प्रेमी संग मिलकर माँ की हत्या की, एक ने पति को मारा, पति की पिटाई, पत्नी पीड़ितों की बढ़ती संख्या, डाक्टर माँ ने बच्चियों को जहर का इंजेक्शन देकर खुद भी लगाया।’ तो क्या ऐसे में कहा जा रहा है कि आज की स्त्री उग्र हो गई है?
हमारा मत है कि हालांकि, ये उग्रता स्त्रियों का आम व्यवहार नहीं है। लेकिन फिर भी परिवर्तनों की बातें चल पड़ीं है। दुनिया में परिवर्तन की रफ्तार दिन-पर-दिन तेज होती जा रही है। बदलते समय के साथ चलने के लिए सबके कदम भी तेज उठ रहे हैं। और जैसाकि हर दौर में होता है, तेजी और आ़क्रामकता को पुरस्कार मिलते हैं, सो आज भी है। तो फिर अंगुलीं स्त्रियों पर उठ रही हैं? आखिर समाज, घर-परिवार, बच्चों की जिंदगी में आने वाले परिवर्तनों के मद्देनजर उन्हें भी तो बदलना पड़ेगा। आक्रमकता को आमतौर पर विपरीत रूप में लिया जाता है। परंतु इसका सकारात्मक पक्ष भी है। अब लड़कियां सड़क पर छिंटकसी करने वाले बदमाशों के परेशान करने पर, कोने में दुबकने या बिसूरने की बजाए, उन्हें सबक सिखाती हैं। वे उन्हें बता देती हैं कि यदि वे तमीज से नहीं रह सकते, तो घर पर बैठें। एक दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा आयशा के अनुसार- ‘स्त्रियां खुद के लिए सम्मान की भावना जगा रही हैं। वे अपने अधिकार ले रही हैं। मैंने पाया है कि बीते दस सालों में स्त्रियां दृढ़ निश्चयी हुई हैं। यानी वे विश्वास के साथ अपनी बात रख पाती हैं।’ जबकि उसी विश्वविद्यालय के एक प्राध्यापक इससे सहमत तो हैं, मगर वे आज की पीढ़ी के लिए उग्रता और अपनी बात दृढ़ता से रखने के बीच के अंतर को समझने की सलाह भी देते हैं। वे कहते हैं- ‘18 से 25 साल की उम्र वाली ये पीढ़ी एक तरह के अहसास से अभिभूत रहती है कि वह समाज में बदलाव ला रही हैं, लिहाजा समाज को उनका दृष्टिकोण समझना चाहिए।’
सच ही तो है कि उग्रता और दृढ़ता में अंतर है। उग्रता खुद ही अपनी दास्तान कह देती ह। ये अभिव्यक्त होती है चिल्लाने धैर्य व आपा खो देने और दूसरों की न सुनने में। उग्र व्यक्ति कभी अपनी भावनात्मक बुद्धिमत्ता प्रदर्शित नहीं कर पाता, जबकि दृढ़ता से अपनी बात रखने वाला भावनात्मक रूप से समझदार होता है। वह अपनी भावनाओं को सही जगह पर और सही तरीके से इस्तेमाल कर पाता है। वह आत्मविश्वासी होता है। दृढ़निश्चयी महिला जीतने का भाव रखती है, जहां अपनी बात पर दृढ़ रहते हुए, वह दूसरों के प्रति सम्मान का भाव रखती है।’
जो लोग यह मानते हैं कि महिलाओं में गुस्सा बढ़ रहा है और वे उग्र होकर अपना धैर्य खो रही है। वे कभी-कभी बेतुके मुद्दों पर बहस में व्यर्थ ऊर्जा बर्बाद करती हैं। जैसे, यदि घर की बहू पारिवारिक समारोह में कुछ खास तरह की ड्रेस पहनना चाहती है, तो तुरंत उसे विद्रोही करार दे दिया जाएगा। सारा ध्यान उसके कपड़ों के चयन की निंदा पर केंद्रित हो जाता है। कोई इस पर ध्यान नहीं देता कि वह बहू वाले कर्तव्य बखूबी निभा रही है।’ ऐसे लोगों कों समझना होगा कि महिलाएं बदलते समाज में खुद के लिए नए आयाम और मुकाम तलाशने की दौड़ में लगी हैं। वे असमंजस में हैं और पुरानी व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह कर रही है।
मानवीय दृष्टिकोण से समझने की कोशिश करे तो स्त्रियों की उग्रता को उचित संदर्भ में देखना होगा। कोई महिला सख्ती से बर्ताव करती है और वो पुलिस विभाग में कार्यरत है तो ये उसके कार्यक्षेत्र के संदर्भ में देखा जाना चाहिए, न कि महिला होने की दृष्टि से। दफ्तर में काम करने वाली महिला गुमसुम नहीं रह सकती। किसी शोरूम में काम करने वाली युवती का वाक्पटु होना आवश्यक है, लेकिन उसे कोई आक्रमक अथवा जबानदराज नहीं कह सकता। वैसे महिला के आक्रामक होने को सराहा भी जाता है। जो अपनी बात दूसरे के सम्मान को बरकरार रखते हुए दृढ़ता से रख पाए, अधिकारों के प्रति सचेत हो, वह उग्रता बुरी नहीं है। ऐसी दृढ़ महिलाएं, ईमानदार, सीधे तौर पर बात रखने वाली, स्वतंत्र, उदार, आत्मनियंत्रित और संयमित व्यवहार वाली होती हैं। नकारापन और असक्षमता से उग्रता बेहतर होती है। दिल्ली विधानसभा चुनाव साबित करते हैं कि किरन बेदी को भाजपा में लाने के अलावा मोदी टीम के पास शायद कोई चारा भी नहीं था। वास्तव में स्पष्टवादिता अथवा अपने विचारों को दृढ़ता जिसे कुछ लोग उग्रता कहते हैं, वह किसी का कुछ नुकसान नहीं करती बस इतना भर करती है कि उसके परिस्थितियों के सामने डट जाने से गलत लोगो पर दबाव जरूर बनाता है।
अंत में ये कहना उचित होगा कि किसी पर आक्षेप लगाना आसान है पर इसे पूरी नारी जाकति की बजाय व्यक्ति विशेष के संदर्भ से देखना उचित होगा। छुटपुट घटनाआं के बावजूद यह आक्षेप बहुत बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत किया जा रहा है कि वे जरूरत से ज्यादा उग्र हो रही हैं। जबकि सत्य इससे उलट है । आज के मशीनी युग ने मानवीय संवेदनाओं का स्तर घटाया है। ऐसे में जब परिवार टूट रहे हैं, व्यक्ति आत्मकेन्द्रित हो रहा है, हम संवेदनात्मक स्पर्श का अर्थ भूल रहे हैं तब महिलाऐं ही नहीं छोटे-छोटे बच्चे भी पहले के मुकाबले आक्रामकता के शिकार है। अब वे भी हिंसक, आक्रमक, जिद्दी होते जा रहे हैं। उदाहरण के तौर पर पांचवी के छात्र द्वारा पिता के डांटने पर आत्महन्ता बनने की कोशिश आखिर क्या है?
कुछ मामलों में तथाकथित आधुनिक लोग भी अपनी जिम्मेवारी ठीक से न निभाते हुए लड़कियों को अलग तरह की सामाजिक शिक्षा देते है। मिसाल के तौर पर, टेलीविजन पर सुंदरी लड़कियों की खोज वाली प्रतियोगिता। ऐसी प्रतियोगिताओं में अनावश्यक रूप से सेक्स भरी उग्रता कैमरे के सामने जुट जाती है ओैर उसे ताज से नवाजा भी जाता है। ऐसी गलत दिशा में बढ़ती उग्र प्रवृत्तियों को नए सिरे से पारिभाषित करने की जरूरत है। शायद इसी कारण उग्रता के विरूद्ध जनजागरण की जरूरत समझी जा रही है। मजेदार बात यह है कि जब भारतीय समाज अपनी संवेदनशीलता खोने को लेकर लगभग मौन है अमेरिका में एक एक्जेक्यूटिव ने उग्र स्त्रियों के लिए एक ऐसा आनंद स्कूल खोला गया है। यहां अन्य बातों के अलावा सफलता का मंत्र सिखाती हैं- सही प्रवृत्ति, विश्वास, मूल्य, अपनी अपेक्षाओं की जानकारी, समर्पण, अपनी इच्छाओं को जाना और भावनाओं का प्रबंधन करना। उग्रता से निपटने के उपाय के रूप में बताया जाता है कि हम दिन में एक घंटे का समय क्यों नहीं निकालते, ताकि दिन भर में हुई घटनाओं पर नई नजर डाल सकें और सोचें कि क्या कर सकते थे, क्या किया और क्या बदलना है। और उग्रता को आत्मविश्वास में किस तरह से परिवर्तित किया जाये। विचार करना है। इस संदर्भ में किसी ने बहुत सही कहा है-
‘जवाब तो था मेरे पास, उसके हर सवाल का,
पर खामोश रहकर मैंने उनको लाजवाब बना दिया।’
भारत की नारी, अब नहीं हैं बेचारी - डा. विनोद बब्बर
Reviewed by rashtra kinkar
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