कमजोर हो रही रिश्तो की डोर
एक सुबह मित्र ने फेसबुक पर लिखा, ‘रिश्ते छः चीजो से चीजो से चलते है- आना, जाना, खाना , खिलाना , लेना और देना।’ इसे पढ़कर न जाने क्यों लगा कि रिश्ते चीजो से नहीं--धैर्य, प्रेम, समर्पण और आत्मीयता से निभाते (चलते नहीं) है. जो इन या उन चीजो को रिश्तो से बाँध देते है वे बाहर से संतरे की तरह बेशक संयुक्त दिखाई देते हो लेकिन वास्तव में फांक-फांक की तरह बंटे और बिखरे रहने को अभिशप्त रहते है। इससे तो खरबूजा बेहतर है जो बेशक बाहर से बंटा हुआ दिखाई दे लेकिन अंदर से एक है। संयुक्त है। उसमें मिठास बेशक हो या न हो पर खटास के लिए कोई स्थान नहीं।
मन में आया बात आगे बढ़ाई जाये लेकिन अंदर से बंटे हुए संतरों की एकता की अपनी सदाबहार थ्यौरी के साथ हर मंच पर हाजिर रहने वाले एक मदारी का स्मरण हो आया। सुबह सुबह मूड़ खराब करना उचित नहीं समझा क्योंकि मदारी का अपना ज्ञान है। दूसरो की बात समझना तो दूर उन्हें सुनना भी गवांरा नहीं क्योंकि उनकी डुगडुगी के सामने कुछ भी ‘कोरा ज्ञान’ है, जबकि उनकी डुगडुगी ज्ञान को संशोधित करके व्यवहारिक जीवन में अपनाने का एकमात्र रास्ता बताती है। निसंदेह रिश्तों का अपना अर्थशास्त्र है तो मनोविज्ञान भी है। बेशक कुछ लोगों के लिए अर्थशास्त्र ही दुनिया का एकमात्र पठनीय, अनुकरणीय शास्त्र हो लेकिन वे भी इंकार नहीं कर सकते कि हर व्यक्ति के जीवन में कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं जहां आना, जाना, खाना, खिलाना, लेना, देना तो दूर मिलना भी संभव नहीं होता पर ऐसे रिश्तों के प्रति जो श्रद्धा होती है जो समर्पण होता है उसके स्मरण मात्र से ही जिस आनंद की अनुभूति होती है उसे केवल अपनी डुगडुगी बजाने वाला कोई मदारी समझ भी नहीं सकता तो वह बेचारा समझाये भी तो क्या और कैसे?
कुछ लोग रिश्तों को तौलिये की तरह इस्तेमाल करते है। पौंछा, फेंका और आगे बढ़ गए नये रिश्ते तलाशने के लिए पर ऐसे लोग भी कम नहीं जो रिश्तो को टाइट पतलून की तरह पहनते, उतारते हैं। ऐसे में रिश्ते फट जाये तो फट जाये कोई परवाह नहीं लेकिन बाद में उनकी बुद्धि रिश्तो की रफूगिरी का प्रयास करने लगती है। सवाल यह है कि अगर रिश्ते संभालने जरूरी थे तो आपने उन्हें टाइट बनाया ही क्यों? इस प्रक्रिया से गुजरे वाले यानि बार-बार रफूगिरी के चलते कोई किसी रिश्ते को आखिर कब तक वचा सकता है?
रिश्तों के रिसने पर मन व्यथित हो उठता है। रिश्ते एक मंच, एक दिन या एक समय का अभिनय नहीं होते जो बिगड़ जाये तो बिगड़ जाए। नो प्राब्लम। रिश्ते संगमर्मर की वो लकीरे हैं जो घिस घिसकर समाप्त हो सकती तो भी अपने निशान नहीं छोड़ते। लेकिन जो रिश्तांे का चटनी की तरह स्वाद लेते हैं उन्हें समझना होगा कि चटनी कुछ घंटों से ज्यादा सलामत नहीं रहती। चटनी की बजाय कम से कम अचार बनने का प्रयास तो जरूर किया जा सकता है। पर ध्यान रहे अचार को भी संभालना पड़ता है वरना उसमें फफंूदी लग सकती है। उसमें तेल मसाले उचित मात्रा में होने चाहिए। पात्र भी मजबूत होना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि रिश्ते अचार की तरह बहुत आनंदकारी हो लेकिन हमारी पात्रता ही कमजोर हो।
रिश्तांे कोे पौधो की तरह धैर्य, प्रेम, समर्पण और आत्मीयता के जल से सींचना होगा वरना वे मुरझा सकते हैं। अफसोस कि आज हमारे पास साधन तो बहुत हैं परंतु साधना नहीं है इसीलिए रिश्ते बेमौत मर रहे हैं। रिश्तों की मौत पर रोने वाला भी कोई नहीं। हाँ, कुछ सिरफिरे, कुछ मदारी जश्न मनाने के लिए जरूर तैयार हैं।
कमजोर हो रही रिश्तो की डोर का कोई सिरा मेरे हाथ में रहे या न रहे परंतु मेरे अतीत से जुड़ी मेरी श्रद्धा, मेरा स्नेह, मेरे अंतरतम के साक्षी वे रिश्ते पतंग की तरह आसमान की ऊंचाईयों को छूटे रहे--खुशबू आती रहे दूर से ही सही, सामने हो चमन कोई कम तो नहीं
आखिर मानव सभ्यता का विकास रिश्तों की कहानी ही तो है। हे ईश्वर मुझे इतना असभ्य न बनाना कि मैं रिश्तों के मनोविज्ञान से दूर, बहुत दूर चला जाऊं।
- विनोद बब्बर 9868211911
मन में आया बात आगे बढ़ाई जाये लेकिन अंदर से बंटे हुए संतरों की एकता की अपनी सदाबहार थ्यौरी के साथ हर मंच पर हाजिर रहने वाले एक मदारी का स्मरण हो आया। सुबह सुबह मूड़ खराब करना उचित नहीं समझा क्योंकि मदारी का अपना ज्ञान है। दूसरो की बात समझना तो दूर उन्हें सुनना भी गवांरा नहीं क्योंकि उनकी डुगडुगी के सामने कुछ भी ‘कोरा ज्ञान’ है, जबकि उनकी डुगडुगी ज्ञान को संशोधित करके व्यवहारिक जीवन में अपनाने का एकमात्र रास्ता बताती है। निसंदेह रिश्तों का अपना अर्थशास्त्र है तो मनोविज्ञान भी है। बेशक कुछ लोगों के लिए अर्थशास्त्र ही दुनिया का एकमात्र पठनीय, अनुकरणीय शास्त्र हो लेकिन वे भी इंकार नहीं कर सकते कि हर व्यक्ति के जीवन में कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं जहां आना, जाना, खाना, खिलाना, लेना, देना तो दूर मिलना भी संभव नहीं होता पर ऐसे रिश्तों के प्रति जो श्रद्धा होती है जो समर्पण होता है उसके स्मरण मात्र से ही जिस आनंद की अनुभूति होती है उसे केवल अपनी डुगडुगी बजाने वाला कोई मदारी समझ भी नहीं सकता तो वह बेचारा समझाये भी तो क्या और कैसे?
कुछ लोग रिश्तों को तौलिये की तरह इस्तेमाल करते है। पौंछा, फेंका और आगे बढ़ गए नये रिश्ते तलाशने के लिए पर ऐसे लोग भी कम नहीं जो रिश्तो को टाइट पतलून की तरह पहनते, उतारते हैं। ऐसे में रिश्ते फट जाये तो फट जाये कोई परवाह नहीं लेकिन बाद में उनकी बुद्धि रिश्तो की रफूगिरी का प्रयास करने लगती है। सवाल यह है कि अगर रिश्ते संभालने जरूरी थे तो आपने उन्हें टाइट बनाया ही क्यों? इस प्रक्रिया से गुजरे वाले यानि बार-बार रफूगिरी के चलते कोई किसी रिश्ते को आखिर कब तक वचा सकता है?
रिश्तों के रिसने पर मन व्यथित हो उठता है। रिश्ते एक मंच, एक दिन या एक समय का अभिनय नहीं होते जो बिगड़ जाये तो बिगड़ जाए। नो प्राब्लम। रिश्ते संगमर्मर की वो लकीरे हैं जो घिस घिसकर समाप्त हो सकती तो भी अपने निशान नहीं छोड़ते। लेकिन जो रिश्तांे का चटनी की तरह स्वाद लेते हैं उन्हें समझना होगा कि चटनी कुछ घंटों से ज्यादा सलामत नहीं रहती। चटनी की बजाय कम से कम अचार बनने का प्रयास तो जरूर किया जा सकता है। पर ध्यान रहे अचार को भी संभालना पड़ता है वरना उसमें फफंूदी लग सकती है। उसमें तेल मसाले उचित मात्रा में होने चाहिए। पात्र भी मजबूत होना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि रिश्ते अचार की तरह बहुत आनंदकारी हो लेकिन हमारी पात्रता ही कमजोर हो।
रिश्तांे कोे पौधो की तरह धैर्य, प्रेम, समर्पण और आत्मीयता के जल से सींचना होगा वरना वे मुरझा सकते हैं। अफसोस कि आज हमारे पास साधन तो बहुत हैं परंतु साधना नहीं है इसीलिए रिश्ते बेमौत मर रहे हैं। रिश्तों की मौत पर रोने वाला भी कोई नहीं। हाँ, कुछ सिरफिरे, कुछ मदारी जश्न मनाने के लिए जरूर तैयार हैं।
कमजोर हो रही रिश्तो की डोर का कोई सिरा मेरे हाथ में रहे या न रहे परंतु मेरे अतीत से जुड़ी मेरी श्रद्धा, मेरा स्नेह, मेरे अंतरतम के साक्षी वे रिश्ते पतंग की तरह आसमान की ऊंचाईयों को छूटे रहे--खुशबू आती रहे दूर से ही सही, सामने हो चमन कोई कम तो नहीं
आखिर मानव सभ्यता का विकास रिश्तों की कहानी ही तो है। हे ईश्वर मुझे इतना असभ्य न बनाना कि मैं रिश्तों के मनोविज्ञान से दूर, बहुत दूर चला जाऊं।
- विनोद बब्बर 9868211911
कमजोर हो रही रिश्तो की डोर
Reviewed by rashtra kinkar
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05:56
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हमेशा की तरह आपके लेख को पढ़ा... एक रोचक और निष्पक्ष भाव से लिखे गए लेख के लिए शुभकामनाएं !!
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