सबक 2015 के, चुनौतियां 2016 की

समय बिना किसी से प्रभावित हुए अपने गति से चलता रहता है।  उसे किसी से प्रेम नहीं। किसी से द्वेष नहीं। हां, वह अपने ढ़ंग से दुनिया को प्रभावित अवश्य करता है। वह अपने कदमों के निशान छोड़ता हुआ अपनी गति से चलता ही रहता है। घड़ी, पल, घंटे, दिन,  महीने, साल बीतते रहते हैं। उतार-चढ़ाव वाले बीते हुए पलों का विश्लेषण, मूल्यांकन, सुधार की योजना सतत् मानवीय सभ्यता के विकास की कहानी है। इसलिए इससे नजरें छिपाने की बजाय नजारे मिलाने की जरूरत है। अब जबकि 2015 अलविदा कह गया है और 2016 अपने पंख फैला रहा है यही वह उचित समय है जब हमें भारत के लोकतंत्र और राजनीति के परिपेक्ष्य में बीते साल की महत्वपूर्ण घटनाओं पर दृष्टिपात करनी चाहिए।
अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा से आरंभ हुआ 2015 भारतीय प्रधानमंत्री की अचानक लेकिन साहसिक पाकिस्तान यात्रा के साथ पूर्ण हुआ। कश्मीर में बाढ़ से नेपाल भूकम्प और चैन्ने की स्थिति ने इस वर्ष को कभी न भूलाने वाला दर्द दिया तो असहिष्णुता, व्यापम्, नाबालिग अपराधियों से संबंधित मुद्दे छाए रहे। वर्ष भर लोकतंत्र का सबसे बड़ा मंच संसद लगभग हंगामें के बीच असहाय दिखाई दी। उदारता और विपक्ष की भूरि-भूरि प्रशंसा के बावजूद  सरकार भूमि अधिग्रहण, जीएसटी सहित अपने किसी भी महत्वपूर्ण विधेयक को पास करवाने में असफल रही। नेशनल हेराल्ड मामले में कांग्रेस नेतृत्व को अदालत में अभियुक्त के रूप में उपस्थित होना पड़ा। इससे पूर्व बिहार चुनाव में भी उसे अत्यन्त सीमित भूमिका स्वीकार करनी पड़ी। दल लगातार राहुल को नेतृत्व देने के मामले में अनिश्चित में रहा। अनियंत्रित बयानबाजी और मतभेदों ने भी कांग्रेस को उभरने नहीं दिया। तो भाजपा को भी अपने के कारण ही एकाधिक बार अप्रिय स्थिति का सामना करना पड़ा।
यह वर्ष काफी उथल-पुथल वाला रहा। दो राज्यों में हुए चुनावों ने लोकतंत्र की शक्ति को एक बार फिर से दर्शाया। आरंभ हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों ने अप्रत्याशित रूप से बिल्कुल नई पार्टी को लगभग एक तरफा समर्थन दिया तो देश की सबसे पुराने दल का सुपड़ा ही साफ नहीं किया बल्कि उसके सभी  उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त करवा दी। श्री अरविन्द केजरीवाल ने सत्ता की बागड़ोर तो संभाली लेकिन अपने पास एक भी विभाग नहीं रखा। इससे अनेक लोगों को आश्चर्य हुआ लेकिन जो लोग उनकी कार्यशैली से परिचित थे उन्हें टकराव की आहट सुनाई दी। जो सही सिद्ध हुई। लोकतांंित्रक परम्परओं को उस समय गहरी चोट पहुंची अपने ही दल के संस्थापकों सर्वश्री योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण आदि को निकाल बाहर करने के लिए उन्होंने संचित प्रतिष्ठा की बलि देने से भी संकोच नहीं किया।  बैठक में भाड़े के लोगों द्वारा संस्थापक सदस्यों को न केवल  बोलने नहीं दिया बल्कि धक्का मुक्की तक की। 
अपने पास कोई विभाग न रखने का अर्थ आम आदमी ने उस समय जाना जब फर्जी डिग्री मामले में एक मंत्री की गिरफ्तारी पर शर्मिंदा होने की बजाय केजरीवाल जी ने केन्द्र से टकराव का रास्ता अपना लिया। उच्च शिक्षित होने के बावजूद भाषा के मामले में उथलेपन को उन्होंने अपनी पहचान बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जो वर्ष के अंत में अपने चरम पर जापहुंची जब सीबीआई द्वारा उनके सचिव के कार्यालय पर छापा मारने को उन्होंने प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाते हुए प्रधानमंत्री के विरूद्ध निकृष्ट शब्दों का उपयोग कर स्वयं अपनी प्रतिष्ठा को रसातल में स्रूथापित किया।
वर्ष भर उपराज्यपाल और पुलिस प्रमुख से टकराव को अधिमान देने वालों ने महिलाओं की सुरक्षा के लिए कितने सीसीटीवी लगाये, कितनी बसों में गार्ड तैनात किये, कितने नये स्कूल बनाये, कितने अस्थाई कर्मचारियों को स्थाई किया, छात्रों को मैट्रो में रियायत दिलवाई या नहीं दिलवाई जैसे प्रश्नों को अधूरा ही रखा। लेकिन वर्ष के अंत में निजी वाहनों के लिए सम-विषम नम्बरों का एक शगुफा जरूर छोड़ा जो सुविचारित नहीं कहा जा सकता। पर्यावरण के प्रति सभी की जिम्मेवारी है। प्रदूषण का इलाज ढ़ूंढ़ा जाना चाहिए लेकिन इस गंभीर समस्या को इतने हल्के से लेना समाधान की बजाय विवादों को जन्म दे रहा है। नये वर्ष में सभी कामना करते हैं कि इस विषय पर राजनीति से हटकर विशेषज्ञों की राय के अनुसार विचार किया जायेगा। केन्द्र शासित और राष्ट्रीय राजधानी होने के कारण जो संवैधानिक मर्यादाएं हैं उन्हीं में काम करने के लिए जिस कौशल की जरूरत होती है उनका नये मुख्यमंत्री जी में सर्वदा अभाव दिखाई दिया। आशा है नया साल इस अवधारणा को बदलेगा। सहयोग और सद्भाव की राजनीति दिल्ली का परिदृश्य बदलते हुए लोकतंत्र  की गरिमा को बरकरार रखेगी।
बिहार वह दूसरा महत्वपूर्ण राज्य हैं जहां वर्ष 2015 में चुनाव हुए। यहां भी आपेक्षा के विपरीत परिणाम प्राप्त हुए। लगभग एक वर्ष पूर्व हुए लोकसभा चुनाव में भारी जनसमर्थन पाने वाने एनडीए को जबरदस्त झटका देने वाले इन चुनावों ने जहां श्री नितीश कुमार के नेतृत्व पर अपनी मोहर लगाई वहीं लालू यादव के राजद को सबसे बड़ा दल भी बनाया जिसका तत्कालिक प्रभाव मंत्रीमंडल के गठन में दिखाई दिया। लालू जी के दोनो पुत्रों को क्रमशः उपमुख्यमंत्री तथा केबिनेट मंत्री स्वीकार करना नितीश जी की विवशता बन गई। यह लोकतंत्र की दृष्टि से उचित हो सकता हैं परंतु नैतिक दृष्टि से राज्य के लिए उचित नहीं माना जा सकता।
केजरीवाल जी के बिल्कुल अलग नितीश जी चुनाव प्रचार में ही नहीं उसके बाद भी भाषा संयम रखते हुए देश के जनमानस पर एक सकारात्मक प्रभाव छोड़ने में सफल रहे लेकिन अपनी छवि के अनुसार कानून व्यवस्था पर राजद तत्वों के बढ़ते प्रभाव को रोकने में लाचार दिखाई दिये। पिछले दस वर्षों के शासन के दौरान सुशासन की छवि बनाने वाले नितीश जी को आने वाले समय में अधिक सचेत रहना होगा अन्यथा उनके अब तक अर्जित यश को चारे की तरह हजम किये जाने से बचाना आसान न होगा। यदि नितीश जी ऐसा करने में सफल रहे तो वे राष्ट्रीय नेताओं में पंक्ति में अग्र स्थान प्राप्त कर सकते हैं। 
2015 बीत गया इसलिए पक्ष-विपक्ष दोनो को ही ‘जो बीत गई सो बात गई, उसे जाने दो’ का अनुगामी बनना होगा। दोनों को यह समझना होगा कि केवल हवा-हवाई बातें करने से वे जनमत को अपने पक्ष में नहीं मोड़ सकते।  देश की जनता को रोजगार और विकास चाहिए। तनाव और भूख उसे उत्तेजित और अराजक बना सकते हैं जो लोकतंत्र के हित में नहीं होगा। राजनीति जनसेवा का माध्यम बने, न कि रूकावट इसके लिए जरूरी है कि सत्ताधारी प्राप्त अवसर का सदुपयोग करने के लिए एकजुट होकर समझदारी से परिणाम देने में जुट जाये तो विपक्ष भी यदि स्वयं को हंगामें से बांधने की बजाय रचनात्मक विरोध की भूमिका अपना कर ही श्रेय प्राप्त कर सकता है। केवल बड़बोलापन नहीं, केवल आरोप- प्रत्यारोप भी नहीं। दोनो पक्षों को धैर्य और विवेक की आवश्यकता है। इसी में देशहित है तो लोकतंत्र की गरिमा भी इसी में है। ध्यान रहे सत्ता किसी की चेरी नहीं बल्कि उसकी होती है जो स्वयं को राष्ट्र का किंकर सिद्ध करता है।
 विनोद बब्बर   09458514685, 09868211911
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