उच्च शिक्षा बनाम आत्महन्ता संस्थान
इसे वर्तमान शिक्षा प्रणाली पर प्रश्नचिन्ह कहा जाएगा कि एक ओर उच्च शिक्षा के लिए महंगी कोचिंग उद्योग का स्वरूप ग्रहण कर रहा है तो दूसरी देश की भावी पीढ़ी को उपभोगता संस्कृति के तहत प्रतिष्ठा और प्रदर्शन का माध्यम बनाया जा रहा है। अभिभावकों की उच्च महत्वकांक्षाओं के शिकार होकर साधारण बच्चे वर्षों घर से दूर रहकर मेहनत करते हैं। सफल होने वालों में से भी अनेक अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते। कारण स्पष्ट है कि उनका तनाव खतरे का निशान पार कर रहा है। पिछले दिनों रूड़की आईआईटी ने पढ़ाई में असफल 72 छात्रों को बाहर का रास्ता दिखाया था। स्वयं सरकार द्वारा जारी आंकड़े के अनुसार 2014-15 में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) के 757 छात्रों ने बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी जबकि पिछले तीन साल का आंकड़ा दो हजार के पार पहुंच गया है। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि ऐसा करने वाले सर्वाधिक छात्र सर्वाधिक प्रतिष्ठित आईआईटी खड़गपुर के हैं। बेशक इसे व्यक्तिगत कारण, बीमारी, पढ़ाई के दौरान नौकरी मिलना जैसे कारणो से जोड़ा जाये लेकिन अधिकतम संभव कारण पढ़ाई का तनाव न झेल पाना ही है।
बात केवल यहीं तक रहती तो भी संतोष किया जा सकता था। पिछले दिनों कोचिंग हब बन चुके राजस्थान के एक शहर कोटा में आत्महत्याओं ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली की अव्यवहारिकता करार दिया है। इससे पूर्व आईआईटी मुंबई के छात्र सहित एक वर्ष में 15 छात्रों की खुदकुशी का समाचार भी आया। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एआईआईएमएस) सहित अनेक मेडिकल संस्थानों में भी ऐसे दुःखद दृश्य उत्पन्न हो चुके हैं। ऐसे में यह आवश्यक है कि इस पूरे परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए संसद को अनावश्यक विवादों से ऊपर उठकर समाजशास्त्रियों, शिक्षा विशेषज्ञों तथा जनसाधारण की भावना के अनुरूप विचार करना चाहिए।
इस बात से शायद ही किसी की असहमति होगी कि जिस तेजी से जनसंख्या में वृद्धि हुई और मध्यम वर्ग के लिए अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाना प्रतिष्ठा का प्रश्न बना है उस अनुपात में आईआईटी, मेडिकल कालेजों तथा अन्य संस्थानों में सीटें नहीं बढ़ी है। कई सरकारें आई- चली गई। वादे किये- उद्घाटन भी किये लेकिन वास्तव में कुछ खास नहीं हुआ। हा{ँ, कुछ निजी संस्थान अवश्य बढ़े हैं लेकिन उनके पास एक तरफ संसाधनों का अभाव है तो दूसरी ओर सभी के लिए उनके भारी- भरकम खर्च झेलना संभव नहीं है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) की 11 हजार सीटों के लिए 15 लाख छात्रों की दावेदारी ‘एक अनार सौ बीमार’ जैसी कहावत को भी ‘आउट डेटेड’ साबित करती है। इतनी कड़ी प्रतिस्पर्धा के बाद चुने गए छात्रों के लिए पढ़ाई आसान नहीं होती।
बेशक कोई भी अभिभावक अपने बच्चे का बुरा नहीं चाहता परंतु जाने-अनजाने लादी गई पूरी न हो सकने वाले आपेक्षाएं वातावरण करो या मरो (डू ऑर डाई) वाला बनती है तो दूसरी ओर उच्च शिक्षा की कोचिंग एक उद्योग बन चुकी है। यह विडम्बना ही है कि कोचिंग हब के रूप में अपनी पहचान बना चुके कोटा के लगभग सभी बड़े संस्थान ‘इंडस्ट्रियल एरिया’ में स्थापित है। शेष नगरों में भी स्थिति कुछ भिन्न नहीं है। हर जगह भीड़ है। पीजी हैं। लाखों की फीस है। ं एक करोड़ तक वेतन लेकर पढ़़ाने वाले है परंतु एक कक्षा में कितने छात्र हैं? क्या सैंकड़ों छात्रों का एक स्थान पढ़ाने वाला उनके साथ व्यक्तिगत ‘टच’ रख सकता है? क्या सभी छात्रों का मानसिक- बौद्धिक स्तर एक समान होता है? प्रशासन की ओर से वहां के सभी संस्थानों को करियर काउंसलर, मनोचिकित्सक तथा फिजियोलॉजिस्ट नियुक्त करने, छात्र व अभिभावकों की काउंसलिंग, प्रवेश की स्क्रीनिंग, कक्षा में छात्रों की संख्या कम करने, साप्ताहिक छुट्टी, योगाभ्यास, कक्षा से अक्सर गायब रहने वाले छात्रों की चिकित्सा जांच, मनोरंजन तथा फीस को एकमुश्त के बजाय किस्तों में लेने की व्यवस्था के निर्देश हैं लेकिन इनका कितना पालन होता है और निगरानी व्यवस्था कितनी ईमानदार है वह शेष समाज से भिन्न नहीं है।
बच्चों कोें जीवन के हर क्षेत्र के लिए अधिक से अधिक मूल्यवान बनाये जाने की चिंता में घुले जा रहे अभिभावकों अनेक बार अपने विवेक का श्रेष्ठ उपयोग करने की बजाय भावनाओं का शिकार हो जाते है। यही कारण है की आज हमारा समाज अपने मौलिक स्वरुप से भटक कर आधुनिकता की बलिवेदी पर होम हो रहा हैं। परिवार और समाज द्वारा बच्चे की रूचि, क्षमता की अनदेखी कर उसे अपनी अपेक्षाएं पूरी करने का रोबोट बनाया जाएगा तो ऐसा होना अस्वाभाविक भी नहीं है। दूसरी ओर छात्रों को सिर्फ और उस विषय से संबंधित जानकारी और सूचनाएं ही दी जाती हैं। उन्हें जीवन का सही अर्थ समझाया नहीं जाता। उन्हें अन्य विकल्पों की जानकारी तक से दूर रखा जाता है ताकि वह आपेक्षा के अनुरूप सांचे से ढल जाए। दुर्भाग्य से जो छात्र उस सांचे में स्वयं को नहीं ढाल पाते उन्हें निकम्मा- नकारा घोषित करना उन्हें हीनभावना से ग्रसित कर देता है। परिणाम.............! क्या यह उचित नहीं होगा कि हम अपने बच्चों को एक इंजीनियर या डॉक्टर बनाने आईएएस ऑफिसर बनाने के इस भ्रम से बाहर आना होगा। क्या किसी राष्ट्र को केवल डाक्टर, इंजीनियर, आईएएस ही चाहिए? क्या केवल इन्हें ही प्रतिष्ठा प्राप्त होती है?
प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल ‘लांसेट’ में प्रकाशित संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार युवा भारतीयों में आत्महन्ता बनने की प्रवृति सर्वाधिक है। आर्थिक महाशक्ति होने का स्वप्न देखने वाले राष्ट्र की भावी पीढ़ी को लग रहे इस घुन पर तत्काल चिंतन की आवश्यकता है। विशेषज्ञों के अनुसार मनुष्य बहुमुखी प्रतिभावाला व्यक्ति होता है, पर हमारे समाज तथा शिक्षा संस्थानों का स्वरूप ऐसा बना है कि उसमें विकल्प मौजूद नहीं है. जिस पाठयक्रम में दाखिला लिया, तो आपकी यह मजबूरी बनती है कि आप वहीं आगे बढ़ें, भले बाद में आपको लगे कि उपरोक्त विषय आपकी रुचि के अनुकूल नहीं है. प्रतियोगितात्मक वातावरण में छात्रों में आत्मविश्वास की कमी का मुख्य कारण सीमित दायरे में ही उन्हें सबकुछ साबित करना होता है।
उच्च शिक्षा ही नहीं, छोटे- छोटे बच्चों से भी 100 में से कम से कम 100 अंक प्राप्त करने की आपेक्षाओं का बोझ लादा जा रहा है। बच्चों से केवल और केवल सफलता की आशा रखने वाले अभिभावकों को समझना होगा कि बाल्यकाल से ही बच्चो ंको यह शिक्षा दी जानी चाहिए कि सफलता के लिए र्प्रयास करो परंतु असफलता से भी मत डरो क्योंकि असफलता भी सफलता की सबसे बड़ी कुंजी है। बार-बार असफल मकड़ी से प्रेरणा लेकर सात बार का पराजित योद्धा सफलता प्राप्त करना कोई असामान्य बात नहीं है। ऐसा किसी के साथ भी हो सकता है। यदि बच्चा किसी वजह से असफल होता है तो उसे पारिवारिक एवं सामाजिक शब्द बाण उसके आत्मविश्वास को डगमगा सकते हैं।
शिक्षा का अंतिम लक्ष्य समाज के भावी नागरिकों को आने वाली चुनौतियों के लिए तैयार करने के साथ-साथ व्यक्ति निर्माण के माध्यम से समाज का सर्वागीण विकास है। व्यक्ति निर्माण का अर्थ उसे रोबोट या नोट छापने की मशीन बनाना नहीं बल्कि चरित्रवान समाज बनाना है जो भावी पीढ़ी को धैर्य , निर्भिकता, निर्मलता, निश्चलता और संवेदनशीलता के गुणों को बरकरार रखे। ऊंची उडान के लिए पक्षी के पंख मजबूत होना जरूरी है तो उच्च शिक्षा की कसौटी पर मानवीय मूल्य रूपी पंखों को अनदेखी का परिणाम मानवता के लिए खतरा होता है। अमेरिका के ट्विन टावर कांड में शामिल उच्च शिक्षित युवकों की भागीदारी इसका प्रमाण है। जो अन्यत्र भी देखने को मिल रहा है।ं
पिछले दिनों में छात्रों की प्रतियोगिता के अवसर पर अपने संबोधन में जब मैंने यह कहा, ‘इस प्रतियोगिता में शामिल सभी को कुछ न कुछ मिलेगा है। इस दृष्टि में सभी विजयी होगे।’ तो मंच पर विराजमान एक सज्जन ने तत्काल टोका, ‘सभी को कैसे मिलेगा?’ तो मैंने कहा, ‘कुछ को पदक मिलेगा तो शेष को पदक से भी अधिक उपयोगी अनुभव मिलेगा। ऊँचाईयों का महत्व है तो गहरे समुन्द्र सें भी बहुत कुछ पाया जा सकता है। यदि सकारात्मकता हो तो इससे बड़े पदक भी पहुंच में होंगे।’
विनोद बब्बर संपर्क- 09458514685, 09868211 911
उच्च शिक्षा बनाम आत्महन्ता संस्थान
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