लोकतंत्र में विरोध की सीमाएं

दुनिया भारत को सबसे बड़ा लोकतंत्र बताती है तो गर्व से हमारा सिर तन जाता है कि हमने दुनिया को एक श्रेष्ठ शासन प्रणाली दी। आधुनिक समाज में लोकतंत्र की परिभाषा बेशक ‘जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन’ हो लेकिन मलयेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद की उक्ति, ‘भारत चीन की बराबरी कर सकता है लेकिन यहाँ जरूरत से ज्यादा लोकतंत्र है’ हो या बिना कामकाज के पिछला सत्र बर्बाद होने के बाद  इसबार भी आसार अच्छे नजर नहीं आते। प्रधानमंत्री के अपने स्वभाव के उलट अप्रत्याशित रूप से नरम पड़ जाने और कांग्रेस की प्रशंसा के बावजूद कोई सकारात्मक  बदलाव न होना संसदीय प्रणाली पर बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह है। आखिर जनता की चुनी हुई सरकार को काम ही नहीं करने दिया जाएगा तो उसके कामकाज की समीक्षा का क्या औचित्य है।  एक दिन आउटलुक की गलत खबर को आधार बनाकर गृहमंत्री को कटघरे में खड़ा करने की मार्क्सवादी सांसद के बयान पर लोकसभा में जमकर हंगामा हुआ। तो राज्यसभा में कांग्रेस की पूर्व मंत्री कुमारी शैलजा द्वारा 2013 में द्वारका मंदिर में जाति पूछने के आरोप के अगले दिन हुआ हंगामा यदि कोई संकेत है तो इस बार भी संसद में शायद ही कोई वैधानिक कार्य हो सके। 
निविवाद रूप से विपक्ष लोकतंत्र का अनिवार्य अंग है। उसके बिना लोकतंत्र की कल्पना भयावह है। किसी भी सरकार को निरंकुश बनने से रोकने में विपक्ष की भूमिका है। लेकिन जब विरोध ससंदीय कामकाज में अवरोध उत्पन्न करने लगे और वैधानिक संकट तक उत्पन्न होने की स्थिति उत्पन्न होने लगे तो विरोध की सीमाओं पर विचार होना चाहिए। इस बात का कोई अर्थ नहीं कि आज के सत्तारूढ़ पक्ष ने कल जब वह विपक्ष में था तो यही सब किया था। अतः आज उसे इसका विरोध करने का अधिकार नहीं है क्योंकि यह भी याद रखना जरूरी है कि आज के विपक्ष और बीते हुए कल के सत्तारूढ़ दल का इस विरोध के प्रति क्या  रवैया था। क्या वह उस समय इससे असहज नहीं था? क्या बदला लेने से यह बेहतर नहीं होता कि आप जिम्मेवार विपक्ष की भूमिका का उचित निर्वहन कर भविष्य के लिए उदाहरण प्रस्तुत करते? यदि आप वहीँ करते हो तो क्या आप उन्हें उनके अपराधबोध से मुक्त नहीं कर रहे हो ? 
सभी को समझना होगा कि किसी भी सजग लोकतंत्र में पक्ष- विपक्ष की भूमिकाओं में कोई भी बदलाव अंतिम नहीं होता। अतः बहुत संभव है कि  अगले दशक अथवा उसके पहले या बाद में स्थिति फिर बदले। क्या बदला और बदले का बदला लोकतंत्र को आहत नहीं करेंगे? एक ओर विपक्ष संवैधानिक कामकाज  ठप्प कर सरकार को काम करने से रोकना और दूसरी ओर उससे  उसकी उपलब्धियों का ब्यौरा मांगना एक प्रकार से ढ़ोंग ही है। इसके लिए दोनो पक्षों को स्थाई समाधान ढ़ूंढ़ना होगा। विरोध ही नहीं सरकार को भी नीतिगत मामलों में विपक्ष को विश्वास में लेने की परम्परा विकसित करनी चाहिए। अन्यथा लोकतंत्र अराजकता का पर्याय बन सकता है। अराजकता और लोकतंत्र के बीच के अंतर को कायम रखने के लिए हमें चिंतन करना होगा कि सरकार के मनमाने फैसलों पर विरोध का कोई तरीका ऐसा निकला जाए जिससे कम से कम अव्यवस्था के साथ विरोध का लक्ष्य पूरा हो सके। 
आज लोकतंत्र और विकास एक- दूसरे के पूरक है। लेकिन दोनो में एक को चुनने का निर्णय बहुत जटिल है परंतु भूख और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में किसके पक्ष में निर्णय होगा यह सभी जानते हैं। विकास कार्यों में बाधा अंततः लोकतंत्र के पांव की बेड़ी बनती है। दुनिया के अनेक देशों को प्रतिबंधित लोकतंत्र केे कडुवे अनुभव प्राप्त हैं तो हमें भसी आपातकाल के काले दौर को नहीं भूलना चाहिए। किसी भी स्वस्थ और सभ्य समाज की नीतियां बहस और आम सहमति से तैयार की जानी चाहिए। इस प्रक्रिया को अधिकतम दोषमुक्त बनाना चाहिए क्योंकि तभीे हर नागरिक के जीवन की गरिमा और विकास के टिकाऊपन को सुनिश्चित किया जा सकता है।
संसद संवाद का मंच है। लोकतंत्र में हर विवाद का समाधान संवाद से ही संभव है। उसे किसी भी कीमत पर, किसी भी काल में अखाड़ा नहीं बनाया जाना चाहिए। यह सुनिश्चित होना चाहिए कि संसद का कामकाज हर हालत में चले क्योंकि संसद के न चलने से अनेक महत्वपूर्ण विधेयक अटक जाते है। बदलते दौर में भारत की तस्वीर बदलने के लिए पक्ष-विपक्ष को भी अपनी सोच बदलनी चाहिए। भविष्य में इस तरह के विवाद ही उत्पन्न न हो, इसके लिए सत्तारूढ़ दल को अपने स्तर पर प्रयास करने चाहिए। यदि किसी भी पक्ष्द्वा का कोई सदस्य मर्यादा का उल्लंघन करता है तो उसके विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही की परम्परा बननी चाहिए। विपक्षी दलों को भी राज्यसभा में सरकार के अल्पमत में होने का अनावश्यक लाभ लेने की मानसिकता त्यागते हुए वातावरण को सहज बनाना चाहिए। दोनों पक्षों को समझना होगा कि अब देश की जनता जागरूक हो चुकी है। केवल नारो, लच्छेदार भाषणों अथवा हर मुद्दे पर  संसद की कार्यवाही को ठप्प करने से वह प्रभावित होने वाली नहीं है। क्योंकि इसकी कीमत जनता को ही चुकानी पड़ी तो यह तय है कि मौका मिलते ही जनता भी प्रतिकार करने से नहीं च्ूकेगी। इसलिए आज अधिक जिम्मेवार विपक्ष तो अधिक समझदार और धैर्यवान सत्तापक्ष चाहिए।
दुनिया की नजरों में भारत का लोकतंत्र ही है जिसने इतनी बढ़ी जनसंख्या को उसकी विविधता के बावजूद एकसूत्र में जोड़े रखा है जबकि बहुत कम विविधता के बावजूद उसके पड़ोसी पाकिस्तान की दशा इससे ठीक उल्ट है। शायद वहां लोकतंत्र के प्रति गंभीरता का अभाव है। जबकि प्राचीन काल से ही भारत में सुदृढ़ व्यवस्था विद्यमान थी। इसके साक्ष्य हमें प्राचीन साहित्य, सिक्कों और अभिलेखों से प्राप्त होते हैं। विदेशी यात्रियों एवं विद्वानों के वर्णन में भी इस बात की पुष्ठि करते हैं। प्राचीन गणतांत्रिक व्यवस्था में आजकल की तरह ही शासक एवं शासन के अन्य पदाधिकारियों के निर्वाचन की प्रक्रिया आज के दौर से थोड़ी भिन्न जरूर थी। ऋग्वेद तथा कौटिल्य साहित्य इसकी पुष्टि करते है। प्राचीन समय में परिषदों का निर्माण किया जाता था। जो वर्तमान संसदीय प्रणाली से मिलता-जुलता रूप था। इनके अधिवेशन नियमित रूप से होते थे। किसी भी मुद्दे पर निर्णय होने से पूर्व सदस्यों के बीच में इस पर खुलकर चर्चा होती थी। सही-गलत के आकलन के लिए पक्ष-विपक्ष पर जोरदार बहस होती थी। उसके बाद ही सर्वसम्मति से निर्णय का प्रतिपादन किया जाता था। सबकी सहमति न होने पर बहुमत प्रक्रिया अपनायी जाती थी। कई जगह तो सर्वसम्मति होना अनिवार्य होता था।
कभी-कभी यह सवाल भी मन में उठता है कि क्या हमारा सच्चा लोकतंत्र हैं? क्या आज हमारे यहाँ पूरी ईमानदारी से जन-प्रतिनिधियों का चुनाव होता हैं? कड़वे सच से हम मुंह नहीं मोड़ सकते कि जब दलों में ही लोकतंत्र नहीं है तो उनकी कार्य प्रणाली जिसमें टिकट वितरण भी शामिल है, पूरी तरह न्याय संगत कैसे हो सकता है? विभिन्न राजनीतिक दल जिसे चुनते हैं, हम उन्हीं में से किसी एक को चुनने को बाध्य होते हैं। ऐसे में हम कैसे कह सकते हैं कि हमने अपने मनपसंद उम्मीदवार को चुना? आज अधिकांश दल व्यक्तिवादी और वंशवादी हैं। जब इन दलों में भीतरी लोकतंत्र ही नहीं है तो वे देश में सच्चा व मजबूत लोकतंत्र स्थापित करने की कोशिश क्या करेंगे?  महामहिम राष्ट्रपति ने ठीक कहा है, ‘अपने मन-मस्तिष्क की सफाई के बिना कोई स्वच्छता अभियान सफल नहीं हो सकता।’ यदि दोनो पक्ष अपने-अपने घर में नैतिक सफाई अभियान चलाने का साहस दिखा सके तो देश की राजनीति की तस्वीर बदलते देर नहीं लगेगी। जिस दिन देश की राजनीति का मिजाज बदलेगा, उसी दिन अच्छे दिनों का इंतजार समाप्त होगा वरना हर अच्छी बात नारे ही रहेगी। लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि क्या आज की व्यक्तिवादी और वंशवादी राजनीति के चलते ऐसा संभव है? फिलहाल उत्तर मौन!
 विनोद बब्बर संपर्क-  09458514685, 09868211911
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