कोहरे, अंधेरे से घिरी नई सुबह


सर्दी और घना कोहरा सामान्य जनजीवन की राह रोक रहा है। रेलें लेट हो रही हैं तो जहाज के पंख भी अटके हुए हैं। लोग घरों में कैद हैं लेकिन जिनके पास घर ही नहीं है वे बेबस हैं। ऐसे में नववर्ष की नई सुबह की बात अजीब  लगना स्वाभाविक है। चूंकि भारत विविधताओं का देश है इसलिए सबके अपने-अपने तर्क हैं। कुछ लोगों के लिए सख्त कानून बनाना या बात-बेबात शोर मचाना नई सुबह है। उनका दावा है इससे अपराध और भ्रष्टाचार का अंधेरा छटेगा लेकिन वे यह समझने को तैयार नहीं कि भ्रष्टाचार बीमारी नहीं अव्यवस्था रूपी महारोग का लक्षण मात्र है। जैसे चेहरे का रंग पीला होना बीमारी नहीं, लक्षण मात्र है। यदि कोई डाक्टर पीलेपन का इलाज पाउडर क्रीम लगाकर दूर करने की राय दे तो उसे डाक्टर माना भी जाए तो आखिर क्यों? देश में भ्रष्टाचार का कारण राजनैतिक व्यवस्था है, महंगे चुनाव है, छोटे-छोटे चुनावों पर भी मोटे खर्चे से आंखें मूंदे रखने वाली मशीनरी हैं। यहां भ्रष्टाचार खेल है तो खेलों में भी भ्रष्टाचार है। वरना खेल संघों पर राजनीति के खिलाड़ियों काबिज क्यों?
बरसों से लटके मुकदमे हैं तो फैसले के नाम पर ‘सलमान’ है। अपराधियों की गलबहिया करती राजनीति है। नेतृत्व के नाम पर प्रतिनिधि मुखिया है, जिम्मेवार पदों पर बैठे हुए की निष्ठा संविधान से भी पहले पद तक पहुंचाने वाले के प्रति है। नैतिकता के मामले में लगातार हम गरीब हो रहे हैं। राजनैतिक प्रतिद्वंद्वता व्यक्तिगत शत्रुता में बदल रही है। यही नहीं ऐसे हजारों अन्य कारण है जो देश में अन्धेरा और आशंकाएं बढ़ाते हैं लेकिन अफसोस कि हम उपचार  कर रहे हैं लक्षण का। ठीक उसी प्रकार जैसे खेत में काम करते हुए खुरपी गर्म हो जाने पर मूर्ख व्यक्ति द्वारा वैद्य से उसका इलाज पूछने पर उसने ख्ुारपी  को रस्सी में बांधकर कुएं में लटकाने को कहा। ऐसा करने से लाभ हुआ तोे वह मूर्ख स्वयं को वैद्य समझने लगा। एक बार मां को बुखार हुआ तो उसने उसे भी रस्सी से कुएं में लटकाकर ठण्डा करने की योजना बनाई। विचारणीय है कि कहीं हम भी स्वयं और व्यवस्था के साथ ऐसा ही व्यवहार तो नहीं कर रहे हैं?
यह सही है कि कुछ शहरों की चमक-दमक बढ़ी है। 100 स्मार्ट सिटियों की आहट भी है। लेकिन ये शहर ही तो भारत नहीं है। गांव की सुध लिए बिना देश में किसी नये सवेरे की आशा बेकार है। आश्चर्य है कि हम विदेशी निवेश के लिए पलक पावड़े बिछाये बैठे हैं। यहां-वहां हजारों करोड़ के पैकेज बांटे जा रहे हैं पर किसान के लिए शायद ही कुछ हो। गरीब किसान परेशान हैं। बढ़ता खर्च, घटती आय परिणाम कर्ज का बोझ बढ़ रहा है तो रासायनिक खाद, बीज का बढ़ता उपयोग कीमती भूमि को बंजर बना रहा है। भूजल को प्रदूषित कर रहा है। ऐसे में गांव का कोहरा कैसे छटेगा, कैसे होगी नई सुबह कोई बताने वाला नहीं है।
सत्य तो यह है कि चमकते चन्द शहरों में भी अंधेरे कम नहीं हैं। झोपड़पट्टियां, अनाधिकृत कालोनियां तो हैं ही फुटपाथ पर सोने वालों, बाल मजदूरों, भिखारियों बेरोजगारो की भीड़ है तो उन्हें ‘कुचलने वालों’ से ‘नाबालिग’ दरिंदों तक कई कलंक है। राजनीति के नये प्रयोग हैं जो सपने तो जरूर दिखाते हैं पर सत्ता में पहुंचकर कुछ करने की बजाय शोर मचाने और गरियाने में विश्वास रखते हैं।
दोहरी शिक्षा प्रणाली समाज को नये वर्गों में बांट रही है। सरकारी स्कूल बदहाल हैं तो नामी स्कूल लूट का अड्डा। ऐसे में शिक्षा के स्तर में भारी अन्तर होना स्वाभाविक है। जो शासक और शोषित प्रशिक्षण संस्थान का रूप ग्रहण कर रहे हैं।  आश्चर्य कि अपने आकाओं को बचाने के लिए कोहराम मचाने वालांे के पास इस असमानता और अव्यवस्था पर छोटी से बड़ी पंचायत तक अंगुली उठाने का समय नहीं हैं। क्या देश की अधिसंख्यक जनता को पिछड़ा बनाये रखने के इस मौन षड्यंत्र को कोहरे, अन्धेरे से कमतर माना जा सकता है?
देश की बहुसंख्यक जनता हिन्दी समझती है परंतु अल्पसंख्यक अंग्रेजी हावी है। दफ्तर से अदालत तक, नये पीएम से पुराने युवराज तक। सरकारी योजनाओं के नाम भी विदेशी। क्या यह अंधेरा नहीं कि न्यायिक प्रक्रिया जिसके लिए हो रही है उसे भी समझ नहीं आता कि उसकी तरफ से अथवा उसके लिए क्या कहा जा रहा है। वह टुकर- टुकर वकील के चेहरों की तरफ देखता है। वे उसे बाद में मनचाहा अनुवाद करके बताते हैं, तभी वह कुछ समझ पाता है। क्या सामान्य जन के लिए उसी की भाषा में कामकाज नहीं होना चाहिए? राष्ट्र- भाषा पर राष्ट्र को गुलाम बनाने वाली भाषा को अधिमान देना आखिर किस नई सुबह का आगाज है?
योजना आयोग से नीति आयोग तक योजनाएं खूबी बनती रही है  लेकिन उनका क्रियान्वयन ईमानदारी से नहीं होता। अफसर-लीडर गठजोड़  गरीब की बेबसी का लाभ ले रहे हैं। विदेशों में कालेधन के पहाड़ बताये जाते हैं लेकिन वापसी की कोई राह नहीं निकल रही हैं। ऐसे में कोहरा-अंधेरा बरकरार रहने की आशंका कैसे कम होगीं?
देश को जाति-धर्म में बांटकर  गद्दी पाने वाले समाज को इतना बांट देना चाहते हैं कि उनका विरोध असंभव अथवा अशक्त जाए। इसी दम पर तो चारे वाले बेचारों को बहकाने में फिर सफल रहे हैं। गरीबों, पिछड़ों का नाम लेकर अपने ना लायको को थोपने से अधिक घनघोर अंधेरा आखिर और क्या हो सकता है। क्या इस असमानता के रहते किसी नई सुबह का कोई अर्थ है? क्या यह उचित नहीं होगा कि बिना जाति, धर्म, लिंग, वर्ग, वर्ण देखे अंधेरे वाले हर स्थान पर रोशनी सुनिश्चित की जाए?
वंशवाद, व्यक्तिवाद, कठपुतली से स्वराज-लोकपाल के जुमलों तक अंधेरे, कोहरे अनेक हैं। सभी की चर्चा संभव नहीं इसलिए आशंकाओं के प्रति लगातार सजग रहना लोकतंत्र की सफलता की अनिवार्य शर्त है। लोकतंत्र देश के हर नागरिक को अधिकार देता है तो यह जिम्मेवारी भी सौंपता है कि वह अपने परिवेश को बेहतर बनाने के प्रति जागरूक भी रहे।
अंग्रेजी नववर्ष आरम्भ हो रहा है। इतने कोहरे, अंधेरें, ठिठुरन के रहते देश का जन-मन इसे उत्सव रूप में कैसे मनाये क्योंकि प्रकृति सहमी सिकुड़ी हुई है। पेड़ों के पत्ते झड़ रहे हैं मगर न जाने क्यों कुछ लोग पश्चिम की उपनिवेशवादी सोच अर्थात् ‘परायी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ की तरह अड़ रहे हैं। हमारे नववर्ष चैत्र में चहूं ओर आनंद होगा, सुंदर मौसम होंगा, कोयल कूकेगी, प्रकृति पर बहार होगी। यहां तक कि पश्चिम वाले भी एक जनवरी को नहीं, एक अप्रैल को अपने वित्तीय वर्ष का प्रथम दिवस मनाते हैं। खैर हम हर नई सुबह का स्वागत करने वाली संस्कृति के वारिस है। आओ हर कोहरे, अंधेरे और आशंकाओं से मुक्ति के लिए परमपिता परमात्मा से आतंक, असमानता, अभाव, तनाव मुक्त विश्व की प्रार्थना करते हुए शुक्रवार, पौष कृष्ण सप्तमी, 2072 तदानुसार प्रथम जनवरी,2016 का स्वागत करें।
विनोद बब्बर संपर्क-  09458514685
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