‘अध्यक्ष’ है या गार्ड का डिब्बा’ हास्य-व्यंग्य

हर कार्यक्रम का एक अध्यक्ष होता है। वैसे तो सबसे पहले सवाल यह होना चाहिए कि ‘आखिर क्यों होता है?’ लेकिन इस टेढ़े सवाल से बचते हुए सबसे पहले सीधी बात पर आयें। अब तक देखता रहा हूं कि अध्यक्ष सबकी सुनता है और सबसे अंत में बोलता है। बोलता  क्या रस्म अदायगी करता है। कभी-कभी तो वह अपनी खीज मिटाता है कि मैंने सबको सुना पर अधिकांश लोग मुझे सुने बिना ही खिसक गये। एक बार तो एक अध्यक्ष जी ने कार्यक्रम में अंत तक डटे चार श्रोताओं का अभिनंदन भी किया। वैसे अंदर की बात यह है कि वे चारो माइक और कुर्सियों वाले थे।
एक बार अचानक हैदराबाद जाना पड़ा। जब स्टेशन पर लंबी लाइन में लगकर टिकट लेकर प्लेटफार्म पर पहुंचा तो गाड़ी खिचकने लगी थी। जैसे-तैसे आखिरी डिब्बे में घुस ही गया। जल्दबाजी में रास्ते के लिए खाना भी नहीं ले सका। सोचा रास्तें में किसी स्टेशन से कुछ ले लूंगा। गाड़ी जब अगले स्टेशन पर रूकी तो हमारा डिब्बा प्लेटफार्म से पीछे रह गया। कोई हॉकर वहां तक पहंुच नहीं सका। सोचा अगले स्टेशन पर लूंगा। लेकिन गाड़ी लम्बी होने के कारण हर बार यही स्थिति रही। दिल्ली से हैदराबाद पहुंच गया पर खाने का कुछ नसीब नहीं हुआ। दिल में बहुत गुस्सा भरा था। सीधे स्टेशन मास्टर के पास जा पहुंचा और शिकायत और सुझाव पुस्तिका में सारा आक्रोश उड़ेल दिया, ‘मेरा सुझाव है कि रेलगाड़ी में आखिरी डिब्बा होना ही नहीं चाहिए। अगर आखिरी डिब्बा लगाना जरूरी हो तो उसे बीच में लगाना चाहिए ताकि जो कठिनाईयां मुझे हुई हैं वे किसी को न हो।’ मैंने अपनी यह व्यथा कथा अपने एक मित्र को बताई। तो मेरे उस संवेदनशील मित्र ने इससे नसीहत लेते हुए इस शर्त पर अध्यक्ष बनना स्वीकार किया कि उद्घाटन भाषण उन्हीं से करवाया जाएगा। मजबूरी कभी -कभी मजबूती भी प्रदान करती है। उनकी बात मान ली गई लेकिन इस शर्त पर कि वे अंत तक खिसकेगे नहीं।
रेलगाड़ी में गार्ड के डिब्बे की तरह अध्यक्ष को सबसे अंत में रखने का औचित्य क्या है, यह सवाल मौन है। आश्चर्य होता है कि दुनिया मंगल तक पहुंच चुकी है और हम अध्यक्ष जी को अब भी ‘पिछड़ा’ का ‘पिछड़ा’ ही बनाये हुए है। उस दिन मुझे लगा कि अध्यक्ष के भी ‘अच्छे दिन’ आने वाले हैं। मगर हालत जस की तस रही।
इधर एक दिन मौका मिलते ही हमने अध्यक्षता का एक नया प्रयोग किया। रविवार को आयोजित एक समारोह में जब कोई ढ़ंग का आदमी अध्यक्षता के लिए ‘सुलभ’ नहीं हुआ तो आपका मित्र काबू में आ गया। मन ने कहा- मत चूको चौहान। बस उसी क्षण हमने भी एक पल की अध्यक्षी में मछुआरे की तरह ‘चमड़े के सिक्के’ चलाने की ठान ली। आयोजक बार-बार फोन करके पूछते रहे- कहां हो?
मैं हर बार जवाब देता- बस पहुंचने ही वाला हूं। हालांकि कार्यक्रम चलता रहा लेकिन अध्यक्ष का इंतजार जारी रहा। जब कार्यक्रम लगभग समाप्त होने वाला था तो अपुन कार्यक्रम में प्रकट हुए और इस तरह अध्यक्ष की सबसे अंत में बोलने वाली परम्परा का सबसे अंत में पहुंचकर एक नई परिपाटी आरम्भ की। इसे नया रिकार्ड भी माना जा सकता है। यदि कार्यक्रम संचालक किशोर जी सिफारिश करें तो मेरे इस कीर्तिमान को ‘गिनीज बुक ऑफ वर्ड रिकार्ड’ में भी शामिल किया जा सकता है।  अध्यक्ष की इज्जत का सवाल है।  आप ही बताईये आखिर सदा पिछड़ा ही क्यों रहे अध्यक्ष! -विब
‘अध्यक्ष’ है या गार्ड का डिब्बा’ हास्य-व्यंग्य ‘अध्यक्ष’ है या गार्ड का डिब्बा’  हास्य-व्यंग्य Reviewed by rashtra kinkar on 22:40 Rating: 5

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