भीख देना पुंण्य या पाप? It's Sin to Give alms

एक स्वायत संस्था ने दिल्ली की भिक्षावृति पर विस्तृत अध्ययन रिपोर्ट प्रस्तुत की जो वास्तव में रोंगटे खड़े कर देने वाली है। इस रिपोर्ट के अनुसार केवल दिल्ली के चौराहो पर भीख मांगने वाले बच्चों की संख्या ही लगभग तीन लाख है। इनके पीछे एक नहीं, अनेक माफिया सक्रिय है जो इनसे इनकी दिनभर की कमाई लेकर केवल रोटी और फटे कपड़े ही देता है। इन बच्चों से भीख के साथ-साथ अन्य काम भी लिए जाते है, इन्हें अपराध की बाकायदा टेªनिंग दी जाती है। इसी का परिणाम है कि एक बच्चा अचानक गाड़ी के सामने या पीछे आकर ठक-ठक करने लगता है और चालक का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है, ज्यों ही ड्राईवर गाड़ी से उतरकर उस ओर जाता है कुछ दूसरे बच्चे खिड़की से गाड़ी के डैसबोर्ड पर रखे आपके मोबाइल या अन्य सामान पर हाथ साफ कर देते है। ये बच्चे भी उसी माफिया गिरोह के हाथों की कठपुतली है जो कभी उनसे भीख मंगवाता है तो कभी चोरी करने के लिए मजबूर करता है। यहीं बच्चे बड़े हो कर पूरे समाज के लिए समस्या बन जाते है। चोरी, जेबतराशी, चैन स्नैचिंग से लेकर नशे के व्यापार में इनका आगे बढ़ जाना कोई आश्चर्य नहीं है।
विदेशी पर्यटकों को चिपट जाना एक आम शिकायत है। इससेे देश की छवि खराब होती है। लेकिन दिल्ली को भिखारियों से मुक्त करने को लेकर सरकारंे खूब बयानबाजी करती है। इन्हें सुधारगृह में रखकर प्रशिक्षित करने की योजनाएं बनाती रहती हैं लेकिन भिखारियों की संख्या घटने की बजाय लगातार बढ़ती जा रही है तो इसका कारण योजनाओं की अव्यवहारिकता अथवा अधूरे मन से क्रियान्वयन है। जरुरत है वास्तव में असहाय लोगों की जीविका की व्यव्स्था की जाए। हराम की खाने वालों के साथ सख्ती से पेश आना चाहिए। यदि सब कुछ इसी ढर्रे से चलता रहा तो विश्वस्तरीय खेल आयोजन में ये भिखारी हमारे प्रगति के दावों को बट्टा लगाने में कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे। दिल्ली की कुछ मलिन बस्तियाँ इन भीख मांगने वालों से भरी पड़ी है। ये भीख मांगने के नाम पर तरह-तरह के नाटक करते है। कुछ लोग तो पैने सिंगो वाली एक गाय सजाकर गली-गली निकल पड़ते है वसूली के लिए। कभी माता के नाम पर तो कभी हनुमान जी के नाम पर भीख मांगते हट्टे-कट्टे लोगों को देखा जा सकता है। त्यौहारों पर तो सज-धज कर मांगने निकले इन लोगों को सभी जानते है। पूरी दिल्ली में ‘शनिदेवता’ के नाम पर भीख का प्रचलन बहुत बढ़ गया है। हर सार्वजनिक स्थान पर एक काला सा टीन एक लकड़ी के डिब्बे पर रखा मिलेगा। उस डिब्बे में एक पात्र में थोड़ा सा सरसों का तेल और कुछ सिक्के होंगे। राह चलते लोग भी उस पर सिक्के फेंक कर अपने शनि को शांत करके संतुष्ट हो जाते है। ऐसे डिब्बों की निगरानी भी माफिया द्वारा होती है। इनके इलाके बंटे हुए है। मजाल है कि कोई दूसरा ‘शनि’ उनके इलाके में घुसपैठ कर जाऐ। ये शनि हर सप्ताह कितना कमाते है? इस पर एक दुकानदार ने बताया कि ‘मेरे पास एक व्यक्ति दो महीनो से सामान लेते आता रहता था। मैंने कभी भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि वह क्या करता है? एक दिन वह व्यक्ति उदासी हालत में आया और बोला-लाला, मेरा बेटा बहुत बीमार है, घर पर दवा के पैसे नहीं है। मेरी थोड़ी मदद करो, मैंने गांव से 2 कनस्तर सरसों का तेल मंगवाया था। आप एक कनस्तर लेलो, बेशक कुछ कम पैसे दे दो। दुकानदार को दया आ गई उसने सरसो के तेल का कनस्तर नकद पैसे देकर खरीद लिया। तीसरे दिन वह व्यक्ति फिर आया और बोला, ‘बेटे की दवा के लिए पैसे चाहिए। मैं किसी का अहसान नहीं लेना चाहता। आप दूसरा कनस्तर भी ले लो।’ दुकानदार ने उसके बेटे से अनायास पूछ लिया- सारा तेल बेच दिया तो अब खुद क्या खाओंगे?’ उसका उत्तर था- ‘हमारी 5 बाल्टी चलती है, हर हफ्ते एक कनस्तर तो आराम से हो जाता है।’
‘बाल्टी? कैसी बाल्टी’ ‘हम शनि मांगते है, इतना तेल हम थोड़ा ही खा लेगे, थोड़ा रखकर बाकि बेच देते है।’ लड़के का जवाब सुनकर दुकानदार ठगा सा महसूस कर रहा था। उसने उसके बाद उनसे तेल नहीं लिया पर ये ‘शनि’ हर बार नया मुर्गा ढूढ ही लेते है। देखने मंे दीन-हीन दिखाई देने वाले ये भिखारी अच्छा कमा लेते है। पर नशा और उल्टी सीधी आदतों पर सब कुछ बर्बाद कर दिया जाता है।
यूरोप प्रवास के दौरान मुझे अनेक नगरों में भिखारी तो जरूर दिखाई दिये लेकिन वे हाथ में कटोरा लिए या जबरदस्ती चिपटने वाले नहीं थे। वे एक निश्चित स्थान पर बैठे थे। कोई संगीत वाद्य बजा रहा था तो कोई चित्रकारी कर रहा था। कहीं बूत बना खड़ा है तो कोई फलों और सब्जियों से कलात्मक वस्तुएं बना रहा है। लोग उनका संगीत सुनते और कुछ देकर आगे बढ़ जाते जैसे कभी हमारे यहां मदारी, नट के करतब देखकर करते थे। आश्चर्य है कि पश्चिम के नंगेपन की नकल को तत्पर इस ओर ध्यान नहीं देते कि कभी-कभी तो रसीद बुक हाथ में लिए हुए दो-चार नौजवान किसी आश्रम अथवा किसी दूर दराज के स्थान पर मंदिर-मस्जिद निर्माण आदि के लिए चन्दा मांगते तो कहीं चार आदमी हरी चादर के कोने पकड़े पूरी सड़क घेरे नजर आते हैं। जागरण के नाम पर चन्दा वसूली से सभी परिचित है पर नकली अंधो और उनकी नकली संस्थाओं के नाम भी वसूली होती है। इस तरह के काम संगठित गिरोहों द्वारा किए जा रहे है। और हम हैं कि इन्हे ‘कुछ न कुछ’ जरूर देकर ‘पुण्य’ अर्जित करना चाहते है। ये किसके इशारे पर और क्यों भीख मांगते है, इस पर विचार करने का न तो समय है और न ही जरूरत इसकी महसूस करतें है। हमें अपने आपसे यह सवाल नहीं पूछना चाहिए कि बिना सोचे समझे भीख देकर क्या हम इस दुष्प्रवृति को बढ़ावा नहीं दे रहे है? जाने- अनजाने हम किसी के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे है, उसे अपराधी बनने के लिए प्रेरित कर रहे है’ इन मुद्दों पर विचार करने के लिए आज हमारे पास समय ही नहीं है तो तैयार रहिये समाज पर बोझ बनते इन हाथों का शिंकजा अपने इर्द-गिर्द कसते देखने के लिए। कहने को यहां भिक्षावृति विरोधी कानून है, सुधार गृह है पर प्रशासन चाह कर भी कुछ विशेष नहीं कर पाती क्योंकि ये कानून इतने लचीले है कि जमानत हो जाना सरल है। इस अभिशाप को रोकने की जिम्मेवारी पूरे समाज विशेषकर महिलाओ की है जो इनके हाथों में ‘कुछ’ रखने का अपराध कर रही है। यदि हम अब भी नहीं सुधरे तो मुफ्तखोरी की यह समस्या नासूर बन सकती है। इसलिये भिक्षावृत्ति कोे घृणित व्यवसाय बनने से रोक जाना चाहिए। ध्यान रहे! कुपात्र को भीख देकर आप एक नए भिखारी को जन्म दे रहे है। माफिया को शक्ति प्रदान कर रहे है। अक्षम्य अपराध को बढ़ावा दे रहे है, न कि पुण्य फल अर्जित कर रहे हैं! विनोद बब्बर 9868211911
भीख देना पुंण्य या पाप? It's Sin to Give alms
Reviewed by rashtra kinkar
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