शिक्षा का उद्देश्य क्या? Learn for Exam OR Learn for Life

गत दिवस शिक्षा से संबंधित एक कार्यशाला में भाग लेने का अवसर मिला। स्वयं को देश का ‘नम्बर 1 ट्रैनर’ घोषित करने वाले युवक ने धुआंधार अंग्रेजी से काफी धुंध फैलाई। (गोल मार्किट को ‘गोले मार्किट’ तो एक बानगी है भारतीय नामों का गलत उच्चारण) उसने परीक्षा में अच्छे नम्बर प्राप्त करने के ‘गुर’ बताये। उसने गाने के माध्यम से गणित और विज्ञान के सूत्र बताये।
वैसे आज के छात्रों को पहाड़े (सारी, टेबल) के गाने ही याद है। यदि किसी से पूछो 8X9 तो वह पूरा गाना सुनाता है। एट वन जा एक। एक टू जा.., ..., ...., ..., एक नाइन जा... सेवनटी टू। जबकि पुराने ढ़ंग से पढ़े हुए छात्र तत्काल सही उत्तर बता देते है। इसी बीच कैलकुलेटर का प्रयोग बढ़ा तो उसने भी मस्तिष्क के उपयोग को काफी हद तक सीमित कर दिया। कल की इस कार्यशाला का एक छिपा उद्देश्य (हिडन एजेंडा) टेबलेट बेचना था जो वहां जाकर समझ में आया। बहुत संभव है तेजी से बढ़ रहे ये टेबलेट कल जो कमी केलकुलेटर से छूट गई थी, उसे पूरा करेगे (??) 
मुख्य बात पर आये- क्या छात्र एक परीक्षा में अधिकतम अंक प्राप्त करने के लिए ही अपनी सारी ऊर्जा लगाये? लर्न फोर एग्जाम Learn for Exam या लर्न फार लाइफ Learn for Life? मैं लगातार इस प्रश्न से मुठभेड़ कर रहा हूं। पिछले कुछ वर्षों में उन छात्रों से मिलकर उनके वास्तविक ज्ञान को मापने का प्रयास करता रहा हूं जिन्होंने लगभग शत-प्रतिशत अंक प्राप्त किये हो। यह कहते हुए दुःख हो रहा है कि ऐसे अधिकांश छात्र स्वास्थ्य में ही नहीं सामान्य ज्ञान में काफी कमजोर साबित हुए। उसपर भी सामाजिक गतिविधियों में उनकी सक्रियता लगभग शून्य देखी गई। इस संबंध में मैंने आईआईटी के एक प्रोफेसर से चर्चा की तो वे भी इस बात से सहमत थे कि जरूरी नहीं कि लगभग शत- प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाले छात्र होशियार भी हो। अक्सर उनसे काफी कम अंक लेने वाले छात्र बाद में उनसे बेहतर प्रदर्शन करते हैं। अनेक बार तो अधिकतम अंक प्राप्त कर आईआईटी में प्रवेश प्राप्त करने में सफल रहे छात्रों को ‘टैक्नीकली नॉट फिट........!’ के सम्मान नवाज कर उन्हें बाहर का रास्ता भी दिखाया जाता है। इसी प्रकार अनेक शिक्षा संस्थानों के प्राप्त जानकारी भी बहुत चौका देने वाली है। 
एक प्रोफेसर के अनुसार, ‘वह छात्र अधिकतम सफल होता है जो कम से कम एक घंटा पार्क में पसीना भी बहाता हो। किताबी कीड़े एक बार तो सफल प्रदर्शन कर सकते हैं लेकिन उसे लगातार कायम नहीं रख पाते। लेकिन अफसोस की बात यह है कि हम अपनी युवा पीढ़ी पर अधिकतम अंकों का इतना बाव बना देते है कि वे तनाव और अवसाद का शिकार हो जाते हैं।’
आज शिक्षा बहुत महंगी है। छोटे से बच्चे का दाखिले के लिए भी कहां-कहां चक्कर लगाने से ज्यादा चक्कर चलाना पड़ता है। हाईकोर्ट के द्वार तक खटखटाये जाते हैं। उसके बाद भी महंगे स्कूल, महंगे टयूटर, कोचिंग क्लासेस। प्रोफेनल कोर्स में एडमिशन के लिए उस पर भी कोटा जैसे एजुकेशन हब के लिए कई-कर्ठ वर्षों के लिए घर से निकाला। इन सबके बीच बच्चे के शारीरिक विकास के लिए मात्र रस्म अदायगी ही है। मानसिक तनाव, अकेलेपन की समस्या, इंटरनेट की दोस्ती उस बच्चे को डाक्टर बनायेगी या मरीज? इंजीनियर बनायेगी या ड्रग एडिक्ट? इस पर विचार करने का समय हमारे शिक्षा शास्त्रियों के पास नहीं है। बार-बार शिक्षा प्रणाली में सुधार की बाते होती हैं परंतु अब तक क्या हुआ यह जानना मुश्किल हैं क्योंकि इस अंधी शिक्षा प्रणाली ने हमारी युवा पीढ़ी को एक ऐसी अंधी गली में धकेल दिया है जहां पहले तो किसी तथाकथित ‘अच्छे संस्थान’ में प्रवेश मुश्किल। प्रवेश हो गया तो निरंतर मुश्किल। किसी तरह से समय कट गया और डिग्री हाथ में आ भी तो रोजगार की समस्या। अनेक मामले तो ऐसे है बूढ़ा पिता कमा रहा है और क्वालिफाइड युवा बेटा बैठा है। किताबी कीड़ा बने रहने की आदत के कारण इन्हें घर के कामों में भी हाथ बंटाने से परहेज है। (क्षमा करें इसके अपवाद भी है परंतु बहुमत की स्थिति लगभग यही है)
कहने को बहुत कुछ है लेकिन अच्छा होगा इस महत्वपूर्ण विषय पर सार्थक चर्चा होनी चाहिए ताकि गलत परम्पराओं से छुटकारा मिले। आपसे इस विषय पर सुझावों की आपेक्षा है। Vinod Babbar 9868211911
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