सोच बदलेगी तो बदलेगी स्थिति Reset Mind to Impower women

यस्य पूज्यंते नार्यस्तु तत्र रमन्ते देवता  अथार्त जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। इसी प्रकार कहा गया- ‘न गृहं गृह मित्याहु गृहिणी गृह मुच्यते’  सच ही है परिवार संस्था की संकल्पना नारी के बिना व्यर्थ  है। महल हो या टूटी झोंपड़ी गृहलक्ष्मी के प्रवेश से ही घर बनता है। परिवार के विस्तार, पोषण, विकास का प्रश्न हो या ं हास- उल्लास, सृजन, संयम, धर्म, परोपकार का, नारी नायिका की भूमिका में है।  पुरुष जीविका अर्जन के नाम पर अपनी जिम्मेवारी से पल्ला झाड़ सकते हैं परंतु परिवार को सुसंस्कृत, परिष्कृत और समुन्नत बनाने का उत्तरदायित्व नारी कभी नहीं भूलती। 
नारी को परिवार का हृदय और प्राण कहा जाता है तो समाज का सेतुबंध भी नारी ही है। उदारचेत्ता और सुव्यवस्था की अभ्यस्त सुसंस्कारी देवी अपने कोमलता, संवेदना, करुणा, स्नेह और ममता के स्वाभाविक गुणों संग परिवार की जिम्मेवारी निभाते हुए सामाजिक रिश्तों को भी निभाती है। 
इतिहास साक्षी है, मातृशक्ति ने ही अपनी संतान में मातृभूमि के प्रति श्रद्धा के संस्कार विकसित किये।  जीजाबाई को कौन नहीं जानता जिसने वीर शिवा को छत्रपति बनाया था। हाड़ा रानी ने अपने पति को  अपनी मातृभूमि के प्रति कर्तव्य याद दिलाने के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान प्रस्तुत किया। पद्मीनी संग हजारों देवियांें ने जौहर कर राष्ट्रधर्म का स्वर्णिम अध्याय लिखा। लक्ष्मीबाई ने इतिहास पर अपनी ऐसी छाप छोड़ी की हर नारी में उसकी छवि तलाशी जाती है क्योंकि कोमल हृदय देवी आवश्यकता पड़ने पर चंडी का रूप भी धारण कर सकती है। 
स्वतंत्रता संग्राम में भी कित्तूर कर्नाटक की रानी चेनम्मा से लखनऊ की बेगम हजरत महल, मध्यप्रदेश के रामगढ़ की रानी अवन्तीबाई, मुंडभर की महावीरी देवी सहित असंख्य वीरांगनाओं ने अपने युद्ध कौशल से दुश्मन के छक्के छुड़ाये। इतिहास हमें याद दिलाता है 1857 की क्रान्ति के दौरान दिल्ली के आस-पास के गाँवों की उन 255 महिलाओं की जिन्होंने क्रांति की उस मशाल को अपने प्राण देकर भी बूझने न दिया। इन्हें अंग्रेजों नेे मुजफ्फरनगर में गोली से उड़ा दिया गया था। इतना ही नहीं स्वामी श्रद्धानन्द की पुत्री वेद कुमारी और आज्ञावती ने महिलाओं को संगठित कर अंग्रेजी वस्तुओं के बहिष्कार और उनकी होली जलाने का अभियान शुरु किया। नागा रानी गुइंदाल्यू से दुर्गा भाभी,सरोजिनी नायडू सहित अनेक वीरांगनाओं के अनन्य राष्ट्रप्रेम, अदम्य साहस, अटूट प्रतिबद्धता की गौरवशाली दास्तान हमारी मातृशक्ति के इस रूप से भी साक्षात्कार कराती है।
नारी ने समाज को अपना सब दिया लेकिन समाज ने उसके साथ न्याय नहीं किया। कटु सत्य यह है कि नारी सदियों से शोषित रही है। उसे पुरुष ने शब्दों के जादू में उलझाते हुए समाज का ऐसा डर दिखाया कि वह लगातार डरी, सहमी रही। इसी बीच कुछ क्रूर बादशाहों और समाजों ने नारी को श्रद्धा और सम्मान से ‘सामान’ बना दिया। विकृतियों ने ऐसा विकराल रूप धारण किया कि उसकी जिंदगी का फैसला करते हुए भी उससे बात तक नहीं जाती थी। कामुक सोच के कारण नारी को सुरक्षित पिंजरे में बंद करने के लिए अनेक कुप्रथाएं हावी हो गई। आखिर राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अकारण नहीं कहा होगा- अबला जीवन तेरी हाय यही कहानी! आंचल में है दूध और आंखों में पानी।
कल का ही आज का भी यही सच है कि बेटी कोे जन्म लेने से रोका जाता है। पर्दाप्रथा हो, दहेज या बालविवाह हर मोड़ पर उसके साथ भेदभाव हुआ। अन्याय हुआ। लेकिन उस स्थिति को बदलने और नारी को फिर से सम्मान दिलाने के लिए राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद सहित अनेक समाज सुधारों ने नारी सशक्तिकरण का उद्घोष किया। स्वतंत्रता के बाद लगातार प्रयास हो रहे हैं। वायुसेना के लड़ाकू विमान उड़ाती हुई महिला हो या राजनीति, सरकारी दफ्तरों से व्यवसाय और शिक्षा के क्षेत्र में नारी अपना महत्वपूर्ण स्थान बना चुकी है। देश के सर्वोच्च पद पर एक नारी राष्ट्रपति के रूप में रह चुकी हैं तो नारी प्रधानमंत्री  का साहस आज भी उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। अनेक राज्यों में आज भी नारी मुख्यमंत्री हैं तो लोकतंत्र को प्रभावित करने वाले एक नहीं, अनेक दलों का नेतृत्व भी आज नारी  के हाथ में है।
इधर पिछले कुछ वर्षों से बेशक पंचायतों में महिलाओं को पचास फीसदी आरक्षण प्राप्त हो चुका है। लेकिन उन्हें संसद और विधानमंडलों में  एक-तिहाई आरक्षण प्रदान करने का विधेेयक लम्बित है। आश्चर्य है कि देश की आधी जनसंख्या को एक तिहाई पद देने का विरोध करने वाले राजनीति में फलफूल रहे है। शायद इसका कारण ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी शिक्षा और बदलाव की गति अत्यंत धीमी होना है। उसपर कन्या भू्रण हत्या गंभीर असंतुलन पैदा कर हा है। 
महिला दिवस की सार्थकता तब है जब राजनीति से समाज की धारणा बदलें। नारी को उसका खोया सम्मान, उसके अधिकार मिलें। अन्यथा ऐसे महिला दिवस केवल शाब्दिक कर्मकांड बनकर रह जाएगे। ध्यान रहे अपनी मातृशक्ति के अशिक्षित, अस्वस्थ, असंतुलित, अपमानित, असमान रहते कोई भी समाज कृतघन तो जरूर कहला सकता है, प्रगतिशाील नहीं। प्रधानमंत्री की ‘बेटी बचाओं, बेटी पढ़ाओं’ योजना तभी सफल होगा जब हम अपनी सोच बदले। क्या महिला दिवस उचित अवसर नहीं है जब हम अपने आप से पूछे कि क्या हम वास्तव में इसके लिए तैयार हैं?
विनोद बब्बर संपर्क-  09458514685, 09868211911
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