अनेक स्मृतियां और इतिहास संजोये है जगन्नाथ पुरी


जगन्नाथ पुरी का इतना महत्व रहा है कि महाराजा रणजीत सिंह ने स्वर्ण मंदिर, अमृतसर को दिये गये स्वर्ण से अधिक यहां दान था। उन्होंने अपने अंतिम दिनों में की गई वसीयत में अपना विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा इस मंदिर को भेंट करने की बात कही थी लेकिन उस समय तक अंग्रेजों ने पंजाब पर अपना अधिकार करके, उनकी सभी शाही सम्पत्ति जब्त कर ली थी। वर्ना कोहिनूर हीरा आज ब्रिटेन की महारानी की बजाय भगवान जगन्नाथ के मुकुट की शोभा बढ़ा रहा होता।
जगन्नाथ जी के इस मंदिर को लेकर विश्वास हैं। एक कथा के अनुसार सर्वप्रथम एक सबर आदिवासी विश्वबसु ने नील माधव के रूप म जगन्नाथ की आराधना की गई थी। इस तथ्य को प्रमाणित बताने वाले आज भी जगन्नाथ पुरी के मंदिर में आदिवासी मूल के अनेकों सेवक हैं जिन्हें दैतपति नाम से जाने जाता है, की उपस्थिति का उल्लेख करते हैं। विशेष बात यह है कि भारत सहित विश्व के किसी भी अन्य वैष्णव मंदिर में इस तरह की कोई परम्परा नहीं है।
बेशक जगन्नाथ जी को श्रीकृष्ण का अवतार माना जाता है लेकिन जहाँ तक जगन्नाथ पुरी के ऐतिहासिक महत्व का प्रश्न है, पुरी का उल्लेख सर्वप्रथम महाभारत के वनपर्व में मिलता है। इस क्षेत्र की पवित्रता का बखान कूर्म पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण, आदि में यथेष्ट रहा है।
7वीं सदी में इंद्रभूति ने बौद्ध धर्म के वज्रायन परंपरा के आरम्भ से पुरी के बारे में कुछ प्रमाणित जानकारी मिलती है। उसके बाद पुरी वज्रायन परंपरा का पूर्वी भारत में एक बड़ा केंद्र बन गया था। वज्रायन के संस्थापक इंद्रभूति ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ज्ञानसिद्धि में जगन्नाथ का उल्लेख हुआ है. जिससे यह संकेत मिलता है कि उन दिनों जगन्नाथ का संबोधन गौतम बुद्ध के लिए भी किया जाता था। कुछ इतिहासकारों के मतानुसार इस स्थान पर बौद्ध स्तूप था जहाँ गौतम बुद्ध का पवित्र दांत रखा था। बाद में उसे कैंडी, श्रीलंका पहुंचा दिया गया। उस काल में बौद्ध धर्म को वैष्णव सम्प्रदाय ने आत्मसात कर लिया था, और तभी जगन्नाथ अर्चना ने लोकप्रियता पाई। यह दसवीं शताब्दी के लगभग हुआ, जब उड़ीसा में सोमवंशी राज्य चल रहा था। कुछ का मत है कि जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा वास्तव में बौद्ध धर्म के बुद्ध, संघ और धम्म के प्रतीक हैं। 15से 17वीं सदी के ओडिया साहित्य में भी लगभग यही मत ध्वनित होता है।
आदि शंकराचार्य की आध्यात्मिक भारत यात्रा इतिहास का एक महत्वपूर्ण और निर्णायक अध्याय है। इस विजय यात्रा के दौरान पुरी भी आदि शंकराचार्य का पड़ाव रहा। अपने पुरी प्रवास के दौरान उन्होंनेे अपनी विद्वत्ता से यहां के बौद्ध मठाधीशों को परास्त कर उन्हें सनातन धर्म की ओर आकृष्ट करने में सफलता प्राप्त की। शंकराचार्य जी द्वारा यहाँ गोवर्धन पीठ भी स्थापित की गई। इस पीठ के प्रथम जगतगुरु के रूप में, शंकराचार्य जी ने अपने चार शिष्यों में से एक, पद्मपदाचार्य (नम्पूतिरी ब्राह्मण) को नियुक्त किया था। यह सर्वज्ञात है कि शंकराचार्य जी ने ही जगन्नाथ की गीता के पुरुषोत्तम के रूप में पहचान घोषित की थी। संभवतः इस धार्मिक विजय के स्मरण में ही श्री शंकर एवं पद्मपाद की मूर्तियाँ जगन्नाथ जी के रत्न सिंहासन में स्थापित की गयीं थीं। मंदिर द्वारा ओडिया में प्रकाशित अभिलेख मदलापंजी के अनुसार पुरी के राजा दिव्य सिंहदेव द्वितीय (1793 से 1798) के शासन काल में उन दो मूर्तियों को हटा दिया गया था।
12वीं सदी में पुरी में श्री रामानुजाचार्य जी के आगमन और उनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर तत्कालीन राजा चोलगंग देव जिसके पूर्वज 600 वर्षों से परम महेश्वर रहे, उनकी आसक्ति वैष्णव धर्म के प्रति हो गयी। तत्पश्चात् अनेक वैष्णव आचार्यों ने पुरी को अपनी कर्मस्थली बना यहां अपने मठ स्थापित किये और इस तरहपूरा ओडीसा ही धीरे-धीरे वैष्णव रंग में रंग गया।
एक अन्य कथा के अनुसार राजा इन्द्रद्युम्न को स्वप्न में जगन्नाथ जी के दर्शन हुए और निर्देशानुसार समुद्र से प्राप्त काष्ठ (काष्ठ को यहां दारु कहा जाता है) से मूर्तियाँ बनाई गर्द। उस राजा ने ही जगन्नाथ पुरी का मंदिर बनवाया था। जबकि ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार पुरी के वर्त्तमान जगन्नाथ मंदिर का निर्माण वीरराजेन्द्र चोल के पौत्र और कलिंग के शासक अनंतवर्मन चोड्गंग (1078-1148) ने करवाया था। 1174 में राजा आनंग भीम देव ने इस मंदिर के विस्तार किया जिसमें 14 वर्षें लगे। वैसे मंदिर में स्थापित बलभद्र, जगन्नाथ तथा सुभद्रा की काष्ठ मूर्तियों का पुनर्निर्माण 1863, 1931, 1950, 1969, तथा 1977 में भी किया गया था।
बाहर सेें मंदिर किसी किलेनुमा दिखताहै जिसकी चारदीवारी 20फुट ऊंची हैं। अतः मंदिर का ऊपरी हिस्सा ही बाहर से दिखार्द देता है। अंदर कैमरा ले जाना मना है इसलिए हम चारदीवारी के बाहर से ही चित्र ले सके। 182 फुट ऊँचाई वाले शिखर वाले जगन्नाथ जी के इस मंदिर को ओडिशा का सबसे ऊंचा मंदिर माना जाता है। यह मंदिर लगभग 4 लाख वर्ग फुट क्षेत्र में फैला हुआ है। इस परिसर में 120अन्ये देवी देवताओं के आवास भी हैं। लगभग हर मंदिर में मंडप और गर्भ गृह हैं। एकदम बाहर की तरफ भोगमंदिर, उसके बाद नट मंदिर (नाट्यशाला) फिर जगमोहन अथवा मंडप जहाँ श्रद्धालु एकत्रित होते हैं और अंत में देउल (गर्भगृह) जहाँ जगन्नाथ जी अपने भाई बलभद्र (बलराम) और बहन सुभद्रा के साथ विराजे हुए हैं। इन दिनों यहां जीर्णाद्वार का कार्य चल रहा है क्योंकि पिछले दिनों मंदिर के पिलर और आर्क में तीन दरारे देखी गई थी।
जगन्नाथ पुरी में बैशाख तृतीया से ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी तक, 21 दिन की चन्दन यात्रा भी होती है। वैसे आषाढ़ शुक्ल द्वितीय को होने वाली रथयात्रा ही यहां का प्रधान उत्सव है जिसके अवलोकन के लिए देश-विदेश के लाखों लोग पुरी पधारते हैं। इस यात्रा में तीन विशाल रथ भव्य तरीके से सजाए जाते हैं, जिसमें पहले में बलराम, दूसरे में सुभद्रा तथा सुदर्शन चक्र और तीसरे में स्वयं भगवान श्रीजगन्नाथ विराजते हैं। प्रथम दिन प्रभु का रथ संध्या तक जगन्नाथ पुरी स्थित गुंडीचा मंदिर जाता है तो दूसरे दिन भगवान को रथ से अगले 7 दिनों के लिए इस मंदिर में स्थापित किया जाता है। यह जानना आश्चर्यजनक था कि इस रथयात्रा के अतिरिक्त शेष दिनों में गुंडीचा मंदिर में कोई मूर्ति नहीं रहती। इस रथ यात्रा महोत्सव के दौरान भगवान श्रीजगन्नाथ के दर्शन को आड़प दर्शन कहा जाता है, जिसका कि पुराणों में बड़ा महात्म्य बताया गया है।
रथयात्रा की भीड़ से बचता हूं इसलिए अपेक्षाकृत कम भीड़ वाले इस एक सप्ताह के प्रवास के दौरान इस ऐतिहासिक नगरी को विभिन्न पहलुओं से देखा, समझा। अपने इस अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि जगन्नाथ जी का यह मंदिर देश का एक प्रसिद्ध सामाजिक एवं धार्मिक केन्द्र है। देश के विभिन्न बड़े धामों और तीर्थों की तरह यहां भी मंदिर में प्रवेश करते ही लगभग हर कदम पर खड़े पंडे अपने विशिष्ट अंदाज में अधिक से अधिक बटोरने का प्रयास करते है। जरूरत है इस व्यवस्था को वैष्णोदेवी ट्रस्ट की तरह व्यवस्थित करने की। वैसे जगन्नाथ मंदिर का एक विशेष आकर्षण यहां की रसोई है। जोकि भारत की सबसे बड़ी रसोई कही जाती है। इस विशाल रसोई में भगवान को चढाने वाले महाप्रसाद को तैयार करने के लिए सैंकड़ों रसोईए कार्यरत हैं। हम इस रसोई का महाप्रसाद तो ग्रहण नहीं कर सके लेकिन मंदिर के आसपास सर्वाधिक बिकने वाले पुरी के विशिष्ट पकवान ‘खाजा’ का आनंद जरूर लिया। वैसे मंदिर के आसपास की दुकानों पर शंख सहित अन्य समुद्री उत्पाद, तथा थगवान जगन्नाथ जी के दारु (लकड़ी) के स्वरूप विशेष रूप से मिलते हैं। लेकिन दाम में मोलभाव की बहुत गुंजाइश रहती है। विशेष बात यह भी है कि हमने कच्ची हरी मिर्च, पीली मिर्च, लाल मिर्च तो देखी थी लेकिन पुरी में भोजन के साथ हर बार स्लाद में लगभग काले रंग की मिर्च अवश्य मिलती थी।
दिल्ली से पुरी का एक्सप्रैस रेल यात्रा का अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा इसलिए पुरी से वापसी का आरक्षण रद्द करवा भुवनेश्वर से राजधानी पर सवार हुए जो 24 घंटे से भी कम समय में दिल्ली पहुंचती है। और हां, जगन्नाथ जी की नगरी की ‘खाजा’ मिठाई और काली मिर्च भी लाना नहीं भूले। जय जगन्नाथ! विनोद बब्बर संपर्क- 09458514685, 09868211 911
अनेक स्मृतियां और इतिहास संजोये है जगन्नाथ पुरी
Reviewed by rashtra kinkar
on
01:19
Rating:
This comment has been removed by a blog administrator.
ReplyDelete