आखिर हिन्दी ही क्यों?

आज का सबसे बड़ा प्रश्न है कि आखिर हम हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा घोषित करते हैं? क्या जरूरत है हिन्दी को राजभाषा बनाने की? ऐसे तमाम प्रश्नों का उत्तर देने से पहले हमें एक नजर अपने इतिहास पर दौड़ानी होगी। हमारे यहाँ एक कहावत बहुत प्रचलित है-दो कोस पर बदले पानी और चार कोस पर बानी। क्या आप जानते है कि केरल में जन्मंे आद्य शंकराचार्य, जी जब काश्मीर में गये, देशभर का भ्रमण किया, चारों दिशाओं में मठों की स्थापना की तो उन्होंने किस भाषा में संवाद किया होगा? बंगाल में चौतन्य महाप्रभु जब ब्रज की धरती पर कृष्णा-कृष्णा गाते हुए झूमते थे तो क्या उनकी भाषा बंगला थी? अयोध्या के श्रीराम जब 14 वर्षाे के वनवास पर रहे और रामेश्वरम तक पहंँुचे तो आखिर उनका इतने प्रदेशों के लोगों से किस भाषा में संवाद हुआ होगा?, ब्रज में जन्में श्रीकृष्ण द्वारका में पहुँचे तो उन्होने अपने उद्गार किस भाषा में व्यक्त किये होंगे? कल की बात छोड़ भी दे तो आज भी उत्तराखंड के देवधामों में पूजा के लिए दक्षिण ब्राहमण ही क्यों पंसद किये जाते हैं? उत्तर में वैष्णोदेवी, अमरनाथ, पश्चिम में अंबाजी, पूर्व में कामाख्या, दक्षिण में तिरूपति जैसे अनेकानेक तीर्थों में देश के विभिन्न भागों के लोग जाते हैं तो वे किस भाषा में संवाद करते हैं? निश्चित रूप से यह भाषा अंग्रेजी तो नहीं ही रही होगी। 
गुजरात मंे जन्मे आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद ने देश में जनजागरण के अपने संकल्प को साकार करने के लिए सत्यार्थप्रकाश लिखा तो देव भाषा नहीं, देश भाषा में लिखा। आजादी की लड़ाई में हिन्दी की भूमिका जबरदस्त रही है। गाँधी, सुभाष, टैगोर, तिलक, भगतसिंह, चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य, लाला लाजपत राय हिन्दी भाषी नहीं थे लेकिन बात मातृभाषा की नहीं, मातृभूमि की थी। सभी ने एक स्वर में, हिन्दी के माध्यम से सोये हुए देशवासियों को जगाया इसलिए तो इस राष्ट्र ने हिन्दी को राजभाषा और राष्ट्रभाषा का सम्मान दिया। आज जब एक र.टी.आई. के जवाब में कहा जाता है कि हिन्दी राजभाषा नहीं है तो कितना कष्ट हुआ होगा स्वतंत्रता संग्राम की बलिबेदी पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वीरों की अमर आत्माओं को।
भारत आज एक अजीब संक्रमण काल के दौर से गुजर रहा है। एक ओर हम विकास के नए आँकड़ों को तो छू रहे हैं लेकिन नैतिकता के स्तर पर पिछड़ते जा रहे हैं। हिन्दी जो आज विश्व के 132 देशों में फैली हुई है और 3 करोड़ अप्रवासी जिसे बोलते हैं, फिजी, मॉरीशस, ग्याना, सूरीनाम, इंग्लैण्ड, नेपाल, थाईलैण्ड जैसे देशों में हिन्दी का व्यापक प्रचार-प्रसार हो रहा है। लेकिन अपने घर में हिन्दी को उपेक्षित किया जा रहा है। 
हिन्दी सर्वाधिक वैज्ञानिक है और हिन्दी की शब्द संख्या भी अंग्रेजी के मुकाबले कहीं ज्यादा है। जहाँ तक कम्प्यूटर की बात है। कुछ अंग्रेजी दा लोगों का मत था कि कम्प्यूटर की भाषा हिन्दी हो ही नहीं सकती। हमारे तकनीकी विशेषज्ञों ने अपनी मेहनत से हिन्दी को कम्प्यूटर की भाषा साबित कर दिखाया क्योंकि कम्प्यूटर की भाषा 0 व 1 है। डिजिटल है। फिर 0 तो हमने ही सारी दुनिया को दिया है। आज वेब, इन्टरनेट, ब्लाग्स, सोशल नेटवर्किंग पर हिन्दी का बोलबाला है जबकि कम्प्यूटर तो क्या बिजली भी सारे देश में अभी पहुंची ही नहीं है। अनेक कम्प्यूटर प्रोग्राम एवं कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर मौजूद पूर्णतः सक्षम हैं। कई लिपियाँ देवनागरी से बहुत अधिक मिलती-जुलती हैं, जैसे- बांग्ला, गुजराती, गुरुमुखी आदि। कम्प्यूटर से भारतीय लिपियों को परस्पर परिवर्तन बहुत आसान हो गया है। निश्चित रूप से तकनीक उपभोक्ता के लिए है, उपभोक्ता तकनीक के लिए नहीं। 
हिन्दी देश की एकता का मंत्र है। इसकी देवनागरी लिपि तो दुनिया की सर्वश्रेष्ठ लिपि मानी जाती है। विनोबा भावे, सर विलियम जोन्स, जान क्राइस्ट सहित दुनिया भर के विद्वान इसका समर्थन करते है। कम्प्यूटर के पिता कहे जाने वाले बिल गेट्स का कथन है- जब बोलकर लिखने की तकनीक उन्नत हो जाएगी, हिन्दी अपनी लिपि की श्रेष्ठता के कारण सर्वाधिक सफल होगी। जन-जन को जोड़ने वाली, आजादी का शंखनाद, तमिल भाषी राष्ट्रकवि सुब्रह्मण्यम भारती ने 1906 पत्रिका ‘इंडिया’ के हिंदी सीखने की अपील की। उन्होंने अपनी पत्रिका में कुछ पृष्ठ हिन्दी के लिए आरक्षित कियो। छत्रपति शिवाजी के दरबार में कवि भूषण थे जिन्होंने शिवाबावनी जैसा ग्रन्थ की रचना की। हिन्दी का प्रथम फॉन्ट महाराष्ट्र के गैर हिन्दीभाषी पंचानन कर्मकार की मदद से चार्ल्स विलकन्स ने बनाया था।
अंग्रेज ने भारत में किसी अन्य भाषा को हिन्दुस्तानी भाषा को नहीं हिन्दी को चुना। हिन्दी की शक्ति को समझ और अनुभव कर चुके थे। वे अच्छी तरह समझ गए थे कि संबंध बनाने का माध्यम हिन्दी ही हो सकती है। भारत पर गहरी राजनैतिक पकड और धर्म प्रचार के लिए ही सही उन्होंने हिन्दी का सहारा लिया। जहाँ तक विदेशी धर्म का प्रश्न है आज भी इन धर्मों के अधिकांश लोग नहीं जानते कि उनकी प्रार्थना का सही अर्थ क्या है। 
सत्य तो यह है कि आज हिन्दी खूब फल फूल रही है। खूब साहित्य सृजन, प्रकाशन हो रहा है। अंग्रेजी दा लोग आज तक हिंदी के किसी साहित्यकार को नोबेल पुरस्कार क्यों नहीं मिलने पर सवाल उठाते है तो उन्हें समझना चाहिए कि हिन्दी को नोबल मिलने या न मिलने से उसकी स्थिति में परिवर्तन नहीं आता क्योंकि हमारा साहित्य स्वयं में नोबल है। पुरस्कार मिलने, न मिलने के पीछे वह मानसिकता जिम्मेवार है जिसने दो-दो बार नामांकित होने के बावजूद गाँधी को भी नोबल नहीं लेने दिया। हाँ, यह बात अलग है किे बाद में उन्होंने अपनी गलती स्वीकार करते हुए खेद व्यक्त किया था। यह भी संभव है कि वे हिन्दी साहित्य की उपेक्षा पर भी अपनी गलती स्वीकार करने के लिए बाध्य हो जाए।
इस बात से भी इन्कार नहीं कि आजादी के बाद से ही हमारी ही सरकारों का रवैया पक्षपातपूर्ण रहा। अंग्रेजी समाचार पत्रों को करोड़ों के विज्ञापन और भाषायी समाचार पत्रों से भेदभाव आज भी जारी है। जब तक पश्चिमी मानसिकता हावी रहेगी देशहित कैसे होगा? जिस लिपि के पास हर ध्वनि का अलग चिन्ह नहीं, स्वयं बर्नाड शॉ ने जिसे अराजक लिपि घोषित करते हुए परिवर्तन की सलाह दी थी, उसकी भक्ति गलत है। सत्य तो यह है कि हिन्दी मजबूरी की भाषा नहीं, मजबूती की भाषा है। क्षेत्रीय भाषाओं को हिन्दी से लड़ाने का षड़यंत्र किया जा रहा है जबकि उन्हें खतरा हिन्दी से नहीं अंग्रेजी से ही है। सभी क्षेत्रीय भाषाएं व हिन्दी तो संस्कृत की पुत्रियां होने के नाते से सहोदर हैं। 
इस संबंध में एक उदाहरण काफी होगा। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान फ्रान्स का कुछ भाग जर्मनी के अधीन था। एक बार जर्मन की महारानी उस क्षेत्र के एक स्कूल का दौरा करने गई। उन्होंने बच्चों से जर्मनी का राष्ट्रगान सुनाने को कहा। केवल एक बच्ची ऐसा कर सकी तो महारानी ने प्रसन्न होकर उससे कुछ भी मांगने को कहा तो उस बच्ची ने कहा-हमारी शिक्षा का माध्यम हमारी भाषा फ्रेंन्च बना दीजिए। यह सुनते ही महारानी का चेहरा तमतमा उठा। उसने कहा- तुमने हमें जबरदस्त शिकस्त दी जबकि नेपोलियन भी हमें चोट नहीं पहुँचा सका। दूसरी ओर हमारी अपनी स्थिति यह है कि नेहरुजी की बहन श्रीमती विजय लक्ष्मी पंिडत द्वारा रूस की राजदूत बनने पर अपने परिचय पत्र अंग्रेजी में प्रस्तुत करने पर वहाँ के शासक स्टालिन ने पूछा था कि क्या तुम्हारी अपनी कोई भाषा नहीं है। स्तालिन द्वारा अंग्रेजी पत्र स्वीकार न करने पर ही हिन्दी में परिचय पत्र प्रस्तुत किये गये। यह मानसिकता आज भी जारी है। क्या हमारा भाषा गौरव, राष्ट्र गौरव नहीं है? आखिर कब तक हम गोबर बने रहेंगे? कब मुक्त होगे हम हीनता ग्रन्थि से ? क्या हमें झकझोरने के लिए आज फिर किसी अवतार की जरुरत है? जय मातृभाषा! जय मातृभूमि की भाषा! जय देशभाषा! जय देवभाषा!
गत वर्ष दूरदर्शन शैक्षिक कार्यक्रम में प्रस्तुत विनोद बब्बर द्वारा प्रस्तुत व्याख्यान के कुछ अंश 
आखिर हिन्दी ही क्यों? आखिर हिन्दी ही क्यों? Reviewed by rashtra kinkar on 05:13 Rating: 5

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