अपसंस्कृति के अंधानुशरण के परिणाम

गत सप्ताह नान्देड से दिल्ली लौटते हुए औरंगाबाद से एक नवयुगल रेल पर सवार हुआ। ठीक हमारे ही सामने वाली साइड लोअर सीट पर पहुंचते ही उन्होंने कुछ ऐसी शारीरिक चेष्टाएं आरम्भ कर दी कि सभी शर्मसार होने लगे। जब मर्यादा की लक्षमणरेखा तार-तार होने लगी तो सामने बैठे एक सज्जन ने मेरी ओर देखते हुए धीरे से कहा, ‘महाराज, आप ही कुछ करो’
मैंने उनसे संवाद शुरु किया, ‘कहां तक जाओंगे?’
युवक ने उत्तर दिया, ‘आगरा तक’ 
‘आपकी शादी कब हुई?’
‘लगभग एक साल हो चुका है।’
क्या घर पर ये सब करने पर प्रतिबंध है?’ सुनते ही वह सकपकाया और बोला, ‘मैं समझा नहीं?’
‘समझ की ही तो समस्या है। हम आप को नहीं समझे और आप इस सीधी बात को नहीं समझे। बेटा! समझने की कोशिश करो। घर और सार्वजनिक स्थलों में अंतर होता है। हर कार्य घर पर नहीं हो सकता इसलिए हमे बाहर आना जाना पड़ता है। लेकिन सब काम बाहर भी नहीं होना चाहिए। इसीलिए नहीं होना ही मर्यादा है। घर में हर काम का अलग स्थान तय है। जैसे घर में घूरा ड्राइंग रूम में नहीं रखा जाता। उसका स्थान तय है। शौच का स्थान तय है। रसोई, पूजा स्थल आदि के लिए तयशुदा स्थान होते है। इसी तरह आपके घर पर भी आराम और काम के लिए भी जरूर कोई एकान्त स्थान होगा। रेल के  इस  डिब्बे में भी तो शौच का स्थान अलग है। यदि कोई सिरफिरा वहां का कृत्य यहां करें तो हमें आपको आपत्ति होना स्वाभाविक है। यह मर्यादा ही है जो  मनुष्य और पशु में भेद करती है। चेहरे से, वस्त्रों से, हाथ में कीमती मोबाइल से जो आपकी छवि बनती है आपका आचरण उसे खंडित करता है। शायद इस क्षण आपको मेरी बात चुभ रही होगी। लेकिन मानव शरीर धारण किया है तो समाज की मान्यताओं को मानना ही पड़ेगा।’
मुझे यह कहते हुए संतोष है कि उसके बाद पूरे रास्ते उनका व्यवहार काफी संतुलित रहा। जो हुआ सो हुआ लेकिन उसके बाद शालीनता कायम रही। 
यह समस्या केवल उस एक रेल के डिब्बे की नहीं है। दिल्ली मैट्रो में तो दिनभर ऐसे ही दृश्य दिखाई देते है। आखिर क्या हो गया है हमारी नई पीढ़ी को? आखिर कौन जिम्मेवार है इस परिस्थिति है? कानून मौन है तो व्यवस्था अंधी और बहरी। जो बोले वह ‘पिछड़ी’ हुई सोच वाला। सवाल उठाने वाले ‘मोरल पुलिस’ लेकिन चुपचाप सब देखते रहने वाले भी देश के जिम्मेवार नागरिक कैसे माने जा सकते हैं? एक प्रतिष्ठित स्कूल के प्रबंधक के अनुसार ‘किशोर बच्चों का व्यवहार स्वच्छंद हो रहा है। जरा सा मौका मिलते ही वे ऐसी हरकते करते हैं जिन्हें देख-सुनकर भी शर्म आती है परंतु हम चाह कर भी उन्हें डांट तक नहीं कर सकते क्योंकि हमें निर्देश है कि दंड तो दूर, पागल, गधा भी कहना अपराध है। पेरेंटस को बुलाओं तो वे भी पल्ला झाड़ देते हैं ऐसे में सुचिता और अनुशासन का क्या अर्थ शेष बचता है।’
यह या ऐसी घटनाएं कानून व्यवस्था की नहीं क्योंकि कानून किसी भी सामाजिक, चरित्रिक दोष का निदान कर ही नहीं सकता है। जो समाज अपने जिम्मेवारी को भूल अपनी युवा पीढ़ी को खुला छोड़ देगा उसे ऐसे दिन ही देखने पड़ते हैं। क्या यह सच नहीं कि हम अपनों के लिए किसी भी तरह से ज्यादा से ज्यादा सुविधाए जुटाने से अपने बच्चो के ज्यादा अंक पाने की चिंता में लगे हैं ताकि वे ‘मोटा पैकेज’ पाने लायक बन सके।
वैश्वीकरण व खुली अर्थव्यवस्था के नाम पर पश्चिमी देशों ने अपने आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए जो हथकंडे अपनाये, उसके साथ पश्चिमी देशों की गंदगी भी हमारे समाज में घुल रही है। सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति के साथ उनकी अपसंस्कृति के वायरस हमारे तंत्र में घुल रहे हैं। सोशल साइट्स के नाम पर इसका विस्तार घर-घर तक पहुंच चुका है। यह सब पश्चिमी संस्कृति में स्वीकार्य है लेकिन भारत में वर्जित है क्योंकि रिश्तों की पवित्रता व यौन-शुचिता को नष्ट करते ये आक्रमण युवा पीढ़ी को कहां ले जा रहे हैं? ईमानदारी की बात तो यह है कि  अब तक हुए तमाम आक्रमणों ने भारतीय संस्कृति को उतना नुकसान नहीं पहुंचाया जितना इस अपसंस्कृति ने पहुंचाया है। क्या यह सत्य नहीं कि जो कुछ हुआ उसके दोषी सिर्फ वे नहीं जिन्होने ये सब किया बल्कि वे भी हैं जिन्होने देख कर अनदेखा किया? यदि ऐसा है तो हम सब भी अपराधी है। 
हमारी युवा पीढ़ी दो-दो अंतर्धाराओं के बीच झूल रही हैं। एक आधुनिक परिवेश है, जिसमें    लिव-इन- रिलेशनशिप, समलैंगिक तथा विवाहेत्तर संबंध और न जाने क्या-क्या परोसा जा रहा है। वहां नैतिकता के मापदंड पश्चिमी हैं जहां उन्मुक्त कामुक आचरण अर्थात् बड़े मॉल में स्वचलित सीढ़ियों पर गलबहियां करना आपके मॉडर्न होने की निशानी मानी जाती है। दूसरी ओर वे लोग हैं जिसे आधुनिक वर्ग पिछड़ा हुआ अथवा गंवार कहता है, उसके नैतिक मापदंड उनकी परंपरा से जुड़े हैं। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि हमारी संस्कृति प्रेम की विरोधी नहीं है। लेकिन अभिव्यक्ति की इस  स्वतंत्रता में स्वयमेव जिम्मेदारी का भाव भी बना रहना चाहिए। बेशक कुछ लोग कह सकते हैं कि यह सब दमित, कुण्ठित समाज और उसकी रूढ़ियों व दोगलेपन का परिणाम है। परंतु टीवी से सार्वजनिक स्थानों पर ‘सुरक्षित सेक्स’, कंडोम, हर विज्ञापन में नारी देह प्रदर्शित करने वाले आखिर क्या कहते हैं? इस परिदृश्य में एक ओर हमारा मौन तो दूसरी और युवापीढ़ी की भटक होना स्वाभाविक है। आखिर कहाँ जा रहे हैं हम?
यह सत्य है कि काम जीवन के चार महत्वपूर्ण स्तम्भों अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष में से एक है लेकिन इसका स्थान प्रथम नहीं है। पहले अर्थोपार्जन करने की योग्यता, क्षमता (पढ़ाई, ट्रेनिंग आदि)प्राप्त करें फिर धर्म (नियम, मर्यादा)का ज्ञान प्राप्त करे उसके बाद ही आप काम की कामना करें। यदि कोई पहले दो सोपानों को छोड़कर तीसरे की ओर कदम बढ़ाता है तो निश्चित मानिये कि वह आत्महंता है। चरित्रहीन है। क्या खोखले चरित्रवालों से कोई समाज किसी प्रकार की आशा कर सकता है? क्या राष्ट्र की सुरक्षा और प्रतिष्ठा ऐसे लोगों के हाथों सुरक्षित है? क्या स्वच्छंद युवा पीढ़ी आने वाले अपने पारिवारिक संबंधों की मर्यादा की रक्षा कर सकेगी? क्या ये संबंध स्थायी रह पाऐगे?
यदि हम केवल लक्षणों को रोग मानकर विचार करेंगे तो बात बनने वाली नहीं है। जड़ पर प्रहार नहीं होगा अर्थात संस्कार नहीं सुधरेंगे, कितने भी उपचार किये जायें, अधूरे ही रहेंगे। शिक्षा, संस्कार व जीवन लक्ष्य तथा उन्हें प्राप्त करने के तरीको को बदलने की सख्त जरूरत है। अगर हम कंटकाकीर्ण मार्ग पर ही चलते रहे  तो फिर उपवन और सुमन की पावन सुरभि की कामना व्यर्थ है। 
क्या यह सत्य नहीं कि आज हमारे घरों में सुख के तमाम साधनों के अतिरिक्त कार्टून कोमिक्स, कंप्यूटर गेम्स की सीडी तो शायद मिल भी जाएं लेकिन कोई अच्छी पुस्तक  मिलना मुश्किल है। होगी भी तो न जाने कहां होगी। ऐसे में हमे अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या हमारे बच्चों ने हमें कभी नैतिक सामाजिक मूल्यों की कोई पुस्तक पढ़ते देखा है? क्या कभी हमने उन्हें अपने किसी नैतिक आचरण से गौरवांवित होने का सुअवसर प्रदान किया? हमें  समझना ही होगा कि समाधान केवल और केवल एक ही है और वह है अपनी अगली पीढ़ी को अपसंस्कृति की संड़ांध से बचाने के लिए तत्काल स्वयं को जगाना।-- विनोद बब्बर संपर्क-  09458514685, 09868211911
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