गैस चैम्बर बनी अभागी दिल्ली Smog in Delhi


अजीब दुर्योग है जब हमारे  नेता एक आत्महत्या पर शह-मात का खेल कर रहे हैं ठीक उसी समय लगभग समस्त उत्तर भारत को धुएं और जहरीली गैसों ने ढक लिया है। मगर एक भी नेता के पास इस आत्मघात की ओर तरफ बढ़ते करोड़ों लोगों के लिए बचाव की  योजना तो दूर सहानुभूति का एक शब्द तक नहीं है। दूसरो को करोड़ो लेकर वाह-वाही लूटने वाले का बौद्धिक खजाना जहरीली गैसों में छटपटा रही दिल्ली के लिए रिक्त नजर आता है। बहुत संभव है वह इसकी जिम्मेवारी ‘जंग’ पर डाले क्योंकि उसके पास ‘अधिकार न होने’ का झुनझुना है जिसे वह गाहे-बगाहे बजाते नजर आते हैं। वैसे फिलहाल उन्होंने पड़ोसी राज्यों को कसूरवार ठहरा कर अपना पल्ला झाड़ लिया है। हमारे ‘जिम्मेवार’ नेताओं को दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा प्रेरणा लेनी चाहिए जिसने इस मामले में तत्काल कदम उठाते हुए लोगों से पर्यावरण के अनुकूल गुरुपूरब तथा उससे पूर्व की प्रभात फेरियों में पटाखे न चलाने की अपील की। कमेटी ने अपने सभी सदस्यों से न केवल सोशल मीडिया के माध्यम से बल्कि अपने-अपने क्षेत्र में स्वयं सक्रिय होकर लोगो को इस संबंध में जागरूक किया जाये कि प्रदूषण के स्तर ने पिछले रिकॉर्ड तोड़ते हुए सांस लेना तक दूभर कर दिया है।
अब तकं डेंगू, चिकनगुनिया, बर्ड फ्लु के आतंक का शिकार रही दिल्ली का वातावरण इतना ज़हरीला कभी नहीं हुआ। प्रदूषण का स्तर  मापने वाली मशीन की क्षमता से  पार जा पहुंचे इस प्रदूषण का परिणाम हर तरफ धुआं-धुआं है। सामान्य से 20 गुना से भी अधिक प्रदूषित दिल्ली के समाचार से डरे बाहर से आने वाले पर्यटक अपना कार्यक्रम रद्द कर रहे है। लेकिन दिल्ली वाले कहां जाये इसके बारे में सोचने की जरूरत न तो सत्ता वालों को है, न विपक्ष को और न ही उन लोगों को है जो देश की सुरक्षा से खिलवाड़ कर रहे एक टीवी चैनल के मात्र एक दिन बंद रहने पर हाय-तौबा मचा रहे है। चहूं ओर व्याप्त यह निष्क्रियता इस बात का प्रमाण है कि हम स्वयं को  दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बताते नहीं थकते परंतु ‘परिपक्व’ के मामले में हम बहुत छोटे है। यहां सिर्फ और सिर्फ ‘तंत्र’ की लड़ाई है ‘लोक’ की चिंता तो दिखावा मात्र है। अगर लोक हित सर्वोपरि होता जैसाकि चुनावों से हर रैली और बयान में हमारे नेता शोर मचाते हैं तो प्राथमिकता एक पत्रकार गलती पर पर्दा डालने अथवा उसे निर्दोष साबित करना नहीं, बल्कि करोड़ो लोगों के हितों के लिए कुछ कठोर कदम उठाना होता।
 विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताजा रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली विश्व को सबसे ज्यादा प्रदूषित नगर है। यहां के अस्पतालों में अधिकांश मरीज दमा, अस्थमा और सांस की बीमारियों से रोगी आते हैं। सांस और फेफड़े संबंधी रोगों के कारण होने वाली मौतों की दर भी सर्वाधिक है। आंखो में जलन, सांस लेने में कठिनाई, घुटन से परेशान लोगों को कोई राहत देने वाला नहीं। हाँ, दिवाली पर पटाखे चलाने के लिए  कोसने वाले जरूर सक्रिय है। वैसे कारण कम नहीं है। पटाखे तो एक दिन छोड़े गये जबकि अनेक स्थानों पर वैध, अवैध फैक्ट्रियों की चिमनियों सक  धा है तो भलस्वा और गाजीपुर के सैनेट्री लैंड फिल पर कूड़े के जलते ढेर हैं। तो लाखो वाहनों का प्रदूषण भी है। उसपर भी इन दिनों पंजाब और हरियाणा में धान की मशीनों से कटाई के बाद खेतों में बच गये ठूंठ भी जलाये जाते है। ताकि अगली फसल के लिए मैदान साफ हो सके।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 20 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में 13 भारत के हैं। पीएम 2.5 (सांस के साथ जाने वाले पार्टिकल्स) का कांस्ट्रक्शन प्रति घन मीटर 10 माइकोग्राम से अधिक नहीं होना चाहिए लेकिन दिल्ली में इसका स्तर 122 है। 75 लाख से अधिक निजी वाहनों की भीड़ से पिछले कुछ महीनों से दिल्ली प्रतिदिन ट्रैफिक जाम का शिकार होती है। एक घंटे से भी कम का सफर कई घंटों में तय होना रूलाता तो है पर चौकाता नहीं है। क्योंकि अब यह सामान्य सी बात है।  तेजी से बढ़ती जनसंख्या के बोझ से बेहाल अब दिल्ली की यही नियति बन चुकी है। पर्यावरण में सुधार के लिए अधिक इवन-ओड के प्रयोग तो किये गये लेकिन जब तक सार्वजनिक यातायात में सुधार न हो, सफलता संदिग्ध ही रहती है। दिल्ली में उत्पन्न किये जा रहे धूल और धुएं के कण आसपास के राज्यों के लिए भी समस्या बन रहे हैे।
समस्याओं की चर्चा करना और उनका समाधान करना दो अलग -अलग विषय हैं। चर्चा के लिए तो मात्र कुछ शब्द चाहिए लेकिन समाधान के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति चाहिए। दुर्भाग्य से इस मामले में हम  दीन- हीन है।  अनेक बार दीर्घकालिक समाज हित में शासक को अपनी लोकप्रियता की चिंता तक को ताक पर रखना पड़ता है। राजनैतिक लाभ-हानि से ऊपर उठने का साहस चाहिए। एक अगर समाधान की सोचे भी तो दूसरा उसकी खामियां ढ़ूंढ़ने लगता है। उसे जनविरोधी, लोकतंत्र विरोधी, फाजीवादी घोषित करने में जरा भी देरी नहीं करता। आखिर स्वयं को जननायक बताने वाले नेताओं से यह पूछना मना क्यों है कि केन्द्रित विकास क्यों? क्यों देश के हर जिले में रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं कराये गये? उनके इस अपराध के लिए रोजगार के लिए होने वाले पलायन के कारण ही दिल्ली तथा अन्य महानगरों पर दबाव बढ़ा है। नगरों में तेजी से घटते हरित क्षेत्र और बढ़ती झुग्गी बस्तियों और स्लम को बढ़ावा देने वाले अपना अपराध स्वीकारना तो दूर इस संबंध में चर्चा को भी गरीब विरोध की ओर मोड़ने में माहिर हैं। यह कटु सत्य है कि हमारे रहनुमा चाहते ही नहीं कि अमानवीय स्थितियों में रहने को विवश करोड़ों लोगों के जीवन स्तर में सुधार हो।  दिल्ली का जहरीली गैसों का चैम्बर बनना उसी सस्ती लोकप्रियता प्रतिफल है। हर सड़क रेहड़ी- पटरी, ई-रिक्शा से सकरी हो रही है। रही सही कसर लाखों वाहन पूरी कर रहे है। केवल प्रशासन ही नहीं नागरिक के रूप में हम सब भी कहीं न कहीं नियमों को पालन न करने के दोषी है। लगता है जैसेे आत्मघाती होने की हमने कसम खा रखी है। हमे और हमारे रहनुमाओं को स्वयं को निरपराध साबित करने में विशेष दक्षता प्राप्त है। परिणाम सामने है ---We are the masters of causes but slaves of their results.
बहुत संभव है दिखावे के लिए हमारे शासक विशेषज्ञों की उच्च अधिकार प्रापत समिति बनाने की घोषणा करें जो उपाय सुझायेगी। लेकिन उनसे पूछा जाना चाहिए कि अब तक बनी समितियों के सुझावों का क्या हुआ? तत्कालिक रोष को शांत करने के अतिरिक्त विशेषज्ञों की समिति का क्या उपयोग हो सकता है इसका उत्तर जाने बिना सुधार की बातें बेमानी हैं। क्या अब तक प्राप्त सुधार के सुझावों को लागू न कर पाने की जिम्मेवारी कोई लेगा? क्या इसके लिए किसी को दंडित किया जायेगा? शायद नहीं। हाँ, यह जरूर संभव है कि एक-दूसरे को जिम्मेवार ठहराकर सब अपना-अपना पल्ला झाड़ लें  पर समस्या वहीं की वहीं।
चेहरे पर मास्क लगाना अथवा पानी की बोतल की तरह आक्सीजन की बोतले बाजार में उतारना व्यवसायिक लाभ लेने की प्रवृति है। खतरे की यह घंटी चिल्ला- चिल्ला कर कह ही है कि अब सचमुच कुछ करना जरूरी है।  सबसे जरूरी है जनसंख्या पर लगाम लगाने की। इसके लिए कानून बनाकर ही लगाम कसी जा सकती है। लेकिन  ऐसा होना तो दूर सोचने पर भी धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप का शोर मचने लगेगा।  वोट बैंक की राजनीति करने वालों पर लगाम कसे बिना न तो कानून का शासन संभव है और न ही पर्यावरण को सुधारा जा सकता है। आखिर स्वच्छ शुद्ध हवा में सांस लेना हर मनुष्य का अधिकार है। इसे जाति, धर्म अथवा ऊंच- नीच के नाम पर बाधित करने वालों को अयोग्य घोषित करने की पहल होनी ही चाहिए। वरना दिल्ली सहित देश का हर नगर, गांव स्थाई रूप से जहरीली गैसों का घर बनकर बिना किसी भेदभाव के हम सभी को पहले अस्वस्थ, अक्षम और फिर हमेशा के लिए अनुपस्थित कर सकता है। .
--विनोद बब्बर  संपर्क-   09868211911,  7892170421 rashtrakinkar@gmail.com


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