सत्यमेेव जयते बनाम सत्यमेेव वर्जयते What a Justice
सत्यमेेव जयते बनाम सत्यमेेव वर्जयते
गत दिवस एक चैक मामले में एक अदालत पहुंचा तो बाहर चिपके नोटिस पर लिखा था- ‘न्यायिक अधिकारी 1 फरवरी से 10 फरवरी, 2017 तक छुट्टी पर है। 10:10 बजे तारीख मिलेगी।’ संविधान, कानून, न्याय जैसे शब्दों में मेरी ‘गहरी’ आस्था है इसलिए अगली तारीख लेकर लौट आया। वैसे इसके अलावा कोई और विकल्प है भी नहीं। चैक बाउंस मामले धारा 138 में ‘प्रथम पेशी के छ महीने में निपटारे’ का प्रावधान है लेकिन एक बार तो चौदह महीने बाद की पेशी के अनुभव का सौभाग्य भी प्राप्त कर चुका हूं। पिछले अनेक वर्षों से अदालतों के चक्कर लगा रहा हूं। हर बार न्याय के नाम पर तारीख जरूर मिलती है। पर इसका मतलब यह भी नहीं कि वहां इसके अतिरिक्त कुछ और नहीं होता है। होता है, जरूर होता है जैसे औसतन हर तीसरी तारीख पर जज या कमरा बदला, अनेक बार जज छुट्टी पर तो कभी वकीलों की हडताल। उसपर भी सर्दी और गर्मियों में अदालतों की छुट्टियां भी होती है। वैसे इस द्वार से फैसले आ भी जाये तो भी कई और द्वार भी है। आशा है ऊपर वाले का फैसला आने से पहले यहां का फैसला प्राप्त होगा।बात केवल मेरी नहीं है। लाखों लोग हैं जिनका पूरा जीवन न्याय के इंतजार में बीत गया। कहा गया है ‘जस्टिस डिलेड इज, जस्टिस डिनाइड’ अर्थात् ‘न्याय में देरी, न्याय से वंचित होना ही है।’ एकाधिक बार स्वयं देश की सबसे बड़ी अदालत भी इस स्थिति पर अपना ‘गुस्सा, पीड.ा और चिंता’ जता चुकी है। पिछले दिनों जस्टिस ए.पी. शाह ने कहा कि- ‘भारत की अदालतों में 3,30, 00, 000 (तीन करोड तीस लाख) मुकदमे लंबित हैं। इनके निपटारे में 486 (चार सौ छियासठ वर्ष) लग जायेंगे।’
मात्र 486 वर्ष ही कहा है उन्होंने। हम भारतीय आत्मा को अजर-अमर मानते हैं। 486 वर्ष कुछ ज्यादा नहीं होते। जरूरत पड़ी तो सौ बार जन्म लेकर भी मुकद्दमा लड़ेंगे। वैसे बता दूं मेरा चैक सिर्फ एक लाख है और मैं इससे ज्यादा मूल्य का अपना समय, वकील की फीस, किराया आदि लगा चुका हूं। बहुत संभव है कि किसी दिन सलमान स्टाइल न्याय यानी सबूत होते हुए भी आरोपी निर्दाेष साबित हो जायें।
अदालत एकमात्र ऐसा स्थान है जहां सवाल उठाना मानहानि यानी जुर्म है इसलिए मैं यह यह पूछने का दुस्साहस नहीं कर पा रहा कि अगर वे जज साहब लगातार 10 दिन तक अनुपस्थित रहते हैं तो उनके बदले किसी दूसरे को क्यों नहीं लगाया जा सकता? प्रतिदिन 100 मामले भी हो तो प्रति केस दोनो पक्ष के एक-एक व्यक्ति और वकील यानी कम से कम चार आदमी तो सौ केसों में 400 व्यक्ति प्रतिदिन और 10 दिनों में कम से कम 4,000 लोग बैरंग लौटे तो इसे न्यायपालिका की निष्पक्ष सक्रिय सेवा क्यों न कहा जाये?
अंतहीन देरी के कई अन्य कारण भी है। जैसे अब तक कि हमारी सरकारों द्वारा न्यायिक ‘रिफार्म’ की ओर ध्यान न देना। केंद्र और राज्य सरकारों, स्थानीय निकायों, सार्वजनिक क्षेत्र के प्राधिकरण के बीच चल रहे लाखों मामलों को आपसी तालमेल से निपटाकर अदालतों का बोझ कम किया जा सकता है। इसी प्रकार मुकदमांे का बहुत बड़ा हिस्सा चैक वापसी, मोटर दुर्घटना, औद्योगिक विवादों से संबंधित तथा छुटपुट अपराधों का हैं जिन्हें कुछ बैठकों में निपटाया जा सकता है। अब जबकि सरकार ‘कैशलैस’ अर्थव्यवस्था के लिए अभियान चला रही है। ऐसे में चैक वापसी जैसे मामले बहुत तेजी से बढ़ सकते हैं अतः नियमों में परिवर्तन कर एक बार में ही सारे सबूत सौंपने तथा अगली तारीख पर प्रतिवादी द्वारा उसका जवाब अनिवार्य कर मामलें को लम्बा खिंचने से बचाया जा सकता है। यदि कोई पक्ष जानबूझकर मामले को लटकाने का प्रयास करता है तो उसका संज्ञान लेते हुए उसके विरुद्ध टिप्पणी दर्ज की जाए। कई बार वरिष्ठ अधिवक्ता अपना मेडिकल प्रमाणपत्र देकर स्थगन ले लेते हैं और ठीक उसी समय दूसरी अदालत में खड़े पाए जाते हैं। अनेक मामलों में वकील साहब का मुकट्टमें के लिए अच्छी तरह तैयार न होना भी टालने का कारण होता है। इधर बहुत बड़ी संख्या में युवक वकालत की ओर आकर्षित हो रहे हैं लेकिन उनकी अनुभवहीनता भी कई बार देरी का कारण होती हैं। एक मामले में मैं स्वयं साक्षी हूँ। जज ने वकील से गवाह से जिरह करने ंको कहा तो युवा वकील ने मासूमियत से उत्तर दिया, ‘सर आप ही पूछ ले जो पूछना हो!’ स्पष्ट है कि युवा वकीलों के लिए लगातार कार्यशालाओं की आवश्यकता है जहाँ उन्हें व्यवहारिक जानकारी देते हुए सुनवाई को बेहतर बनाने के लिए तैयार कराना चाहिए।
इससे अतिरिक्त अदालतों की कार्य प्रणाली में सुधार लाने के लिए आरंभ किए गए उपायों जैसेें सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग, उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों से सभी जिला अदालतों तक के कम्प्यूटरीकरण और सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के बुनियादी ढांचे को उन्नत करने के कार्य को तेजी से बढ़ाया जाना चाहिए। यदि कोई जज अनुपस्थित है और कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है तो दोनो पक्षों को एसएमएस और ईमेल से इसकी पूर्व सूचना देकर अनावश्यक भागदौड़ और संसाधनों के दुरुपयोग को तो रोका ही जा सकता है। जब रेलवे प्रतिदिन लाखों लोगों को एसएमएस कर उनके आरक्षण की स्थिति की सूचना दे सकती है तो कोई कारण नहीं कि यह कार्य अदालतंे न कर सकें। विशेष बजट प्रावधान कर संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित होनी चाहिए क्योंकि न्यायविहीनता अशांति को जन्म देती है। यदि न्याय तंत्र में जनता का भरोसा कम हो जाए तो विवादों के न्याय सम्मत और कानूनी समाधान की बजाय उनमें कानून को अपने या अपनों के हाथ में सौंप अराजक ढ़ंग से निपटाने की प्रवृत्ति पनप़ती है। इससे पहले कि नकारात्मक प्रवृत्ति से वातावरण खराब हो, व्यवस्था को लोगों का भरोसा तुरंत बहाल करने के लिए कुछ करना चाहिए।
यह बहुत गर्व की बात है कि हमारे देश के माननीय न्यायमूर्ति आतंकवाद के दोषी के लिए आधी रात को भी जागकर सुनवाई करते हैं ताकि न्याय पर कोई संशय न रहे। वे गली के कूड़े कचरे से पर्यावरण, और दूसरे सरकारी विभागों के भ्रष्टाचार पर भी ‘कठोर’ कार्यवाही करते हैं। लेकिन अपने ‘घर’ पर न जाने क्यों नजरे इनायत नहीं करते। ‘जजों की कमी है’ की बात अपनी जगह ठीक हो सकता है पर शीघ्र निपटान का कोई तरीका निकाला जाना चाहिए।
जहां तक गर्मी में अदालतों की छुट्टी का प्रश्न है। गुलामी के दौर में अंग्रेज जज गर्मी में लम्बी छुट्टी पर जाते थे। अब तो गाड़ी से चैम्बर तक वातानुकुलित है। छुट्टियां जारी रखने के औचित्य पर विचार होना चाहिए। जबकि शेष सरकारी कार्यालय, स्कूल, कालेज, बाजार आदि सर्दी, गर्मी, आंधी, तूफान, बरसात हर मौसम में जारी रहता है। यह आम धारणा है कि अनंतहीन प्रतीक्षा के अतिरिक्त आज की न्यायिक व्यवस्था बेहद महंगी है इसीलिए देश का आम आदमी अदालत में जाने से ही पहले कई बार सोचता हैं। इसे तनाव मुक्त बनाने के लिए साक्ष्य अधिनियम को सरल बनाना, बगैर वकील के भी प्रक्रिया आगे बढ़ाना, हड़ताल जैसी हालत में तारीख देने की जगह सहज कामकाज आगे बढ़ाना, अनावश्यक रूप से मामले को लटकाने वाले पक्ष को दंडित करना जैसे कदम उठाकर आम आदमी के विश्वास को बहाल किया जा सकता हैं। आर्थिक अपराधों के लिए फास्ट ट्रैक अदालतें गठित करना, सभी मुकद्दमों का समयबद्ध निपटारा, सांध्यकालीन अदालतें की स्थापना को बढ़ावा दिया जाना चाहिए जैसा कि कुछ राज्यों में हो भी रहा है।
एक विद्वान के अनुसार, ‘हमारे कानून मकड़ी के जाले की तरह हैं, जिस में छोटे कीड़ें, पतंगे तो फंस जाते हैं। परंतु बड़े-बड़े जानवर आसानी से इस जाले को तोड़ देते हैं।’ सत्य क्या है यह तो सत्य ही जानता है पर हर न्यायालय में तीन शेरों वाले चिन्ह के नीचे ‘सत्यमेव जयते’ अवश्य अंंिकत होता है। कहा जाता है कि यह सूत्र वाक्य मुंडकोपनिषद् से लिया गया है। क्या इसीलिए आज भी उस परिसर में अनेक प्रकार के मुंडन जारी है। मैं एक जिज्ञासू के सवाल कि ‘राजनीति में भ्रष्टाचार क्यों है और अपराधों में कमी क्यों नहीं आती जैसे सवाल पूछने वालों की मानसिक जांच क्यों नहीं करानी चाहिए?’ का उत्तर दे पाने में स्वयं को असमर्थ पाता हूं क्योंकि मेरी ‘न्याय’ और ‘कानून’ में गहरी आस्था है। इसलिए युअर ऑनर! जब तक सांस के साथ शरीर चलता रहेगा मैं अगली तारीख लेने के लिए उपस्थित होता रहूंगा। ये सत्यमेेव जयते बनाम सत्यमेेव वर्जयते तो केवल बौद्धिक विलासता है।
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