‘वेल इन टाइम’ और ‘वेलेन्टाइन’ का अंतर My First Love




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बसंत फरवरी में आता है जब चहूं ओर रंग-बिरंगे फूल, हरियाली, स्वच्छ सुरीली हवा मन, मस्तिष्क को ताजगी देती है। इधर पिछले कुछ वर्षों से  फरवरी में एक बुखार भी बहुत तेजी से फैलता है। कुछ लोग इस बुखार को लवेरिया का नाम देते हैं। सुना है इसके मूल में कोई विदेशी वायरस है। नगरों, महानगरों के कालेज, पाकों, रेस्टारेंटों से सोशल मीडिया को संक्रमण की चपेट में ले लेने वाले इस एक दिवसीय बुखार के लक्षण कई दिन पूर्व से दिखाई देने लगते हैं। पढ़े लिखे लोग इसे वेलेन्टाइन डे कहते हैं तो मेरे जैसे अनपढ़ के लिए बसंत ‘आलवेज इन टाइम’ होती है इसलिए इस बसंती मौसम को ‘वेल इन टाइम’ कहते हैं। मैं नहीं जानता ‘वेल इन टाइम’ और ‘वेलेन्टाइन’ में कितना अंतर है पर इतना अवश्य जानता हूं कि प्रेम और उसके दिखावे में जमीन आसमान का अंतर होता है।
कहा जाता है कि इंसान अपना प्रथम प्रेम कभी नहीं भूलता। मुझे भी याद है अपना प्रथम प्यार। आज मैं जो कुछ हूं उका श्रेय उस प्रथम प्रेम  को ही है। उस निस्वार्थ प्रेम ने केवल दिया ही दिया। आश्चर्य कि बदले में उसने कभी कुछ नहीं मांगा। देने की कोशिश भी तो नहीं लिया। मेरे हित की कामना की। खुद हर कष्ट सहकर भी मुझे सुख देने की कोशिश की। सच तो यह है कि उस प्यार ने मुझे प्यार का अर्थ बताया। मेरी सबसे बड़ी शक्ति रहा वह प्रेम। लेकिन मेरा दुर्भाग्य कि दुनिया की ट्रेन पर हमारा हमारा प्रेम अंतिम स्टेशन तक मेरा साथ न निभा सका।
फिर वो भूली सी याद आई है
मैं अपनी प्रथम सांस से ही प्रेम से जुड़ा हुआ हूं। जब मैंने आंखे खोली तो जिसे मैंने देखा यदि मुझे उससे प्रेम न हो तो धिक्कार है मेरे मनुष्य होने का। गुलाब का फूल लिए इधर-उधर भटकने वाले अपने प्रथम प्रेम यानी अपनी माँ के लिए भी इतना व्याकुल होते है या नहीं, यह शोध का विषय है। बूढ़ी माँ को दरकिनार कर वायरसी प्रेम के शिकार लोगों को देखकर विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि वे जानते ही नहीं कि प्रेम आखिर है क्या?
फिर वो भूली सी याद आई है
प्र्रेेम इस संसार का मूल है। इसीलिए तो सभी उसके दीवाने हैं पर वे जानते ही नहीं कि प्रेम आखिर है क्या?इसीलिए तो जितनी परिभाषाएं प्रेम की है उतने तो तत्व विज्ञान में नहीं होंगे। किसी के लिए प्रेम समर्पण है तो कोई पाने को प्रेम कहता है। कोई खोने को प्रेम का नाम दे रहा है तो कोई लुटाने को। वैसे लूटने वाले भी कम नहीं है। 
प्रेम मानवीय आवश्यकता है। इसके बिना संसार निस्सार है परंतु प्रेम का स्वरुप देश काल और परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित होता है। परंतु वायरसी प्रेम अर्थात्  ‘नोट वेल बट इन टाइम’ यानि समय से पहले आंधी तूफान की तरह छाये दिखवटी ने जिस तरह से मनमाना रूप ग्रहण कर लिया है उसे प्रेम कहे भी तो कैसे? क्या प्रेम महज दैहिक अभिव्यक्ति है? क्या प्रेम इतना गिर सकता कि उसे लोकलाज, मर्यादा का ध्यान न रहे तो न रहे पर इतना भी ध्यान न रहे कि वह विद्यार्थी होने के नाते ब्रह्मचर्य आश्रम में है। इसलिए उसे प्रेम का लबादा ओढ़ कर आये ‘काम’ से बचना चाहिए वरना उसका स्वास्थ्य, उसका चरित्र, उसकी मानसिकता, उसकी एकाग्रता खो सकती है। उसके साथ ही खो सकते है सुनहरे भविष्य के लिए देखे उसके और उसके अभिभावकों से सपने। 
नहीं, नहीं, प्रेम इतना कमजोर नहीं हो सकता जो ‘अनवेल एण्ड इन टाइम’ हो। प्रेम करना इतना आसान नहीं है। तभी तो कबीर कहते है,
‘कबीर यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं।
सीस उतारे हाथि धरि, सो पैसे घर माहिं।।’
सच ही है प्रेम ‘खाला का घर’ नहीं है। इसीलिए कहता हूं कमजोर लोग प्रेम से दूर रहे क्योंकि मन, वचन, कर्म से शक्तिशाली ही प्रेम कर सकते हैं। कमजोर मन फौरन प्रतिफल चाहता है। यानी वह प्रेम नहीं, व्यापार करता है। उनके लिए प्रेम अब वन डे मैच भी नहीं रहा। अब ट्वन्टी-ट्वन्टी की ओर बढ़ते प्रेम-प्रदर्शन करने वाले  पुतले प्रेम का इतिहास भुगोल भी नहीं जानते। 
बेशक हर बंबईयां फिल्म में प्रेम की परिणित शादी होती है लेकिन हीर रांझा, शीरी फरयाद, लैला मजनू, ससि पुन्नु आदि, आदि की प्रेम कहानी सब जानते और मानते हैं पर इनमें से किसी का भी प्रेम स्थाई मिलन तक नहीं पहुंचा। वैसे प्रेम के अनेक रूप है। माँ, मातृभाषा, मातृभूमि, निज संस्कृति, अपने भविष्य को सजाने-संवारने से आरम्भ होने वाल प्रेम की पालकी आज भटक चुकी है। आज जिस संबंध को प्रेम का एकमात्र पर्याय मान लिया गया है उसका नम्बर तो बहुत बाद में आना चाहिए। इसीलिए  वायरसी प्रेम खूब फल फूल रहा है। इसे व्यापार बनाने पर तुले कुछ लोग खूब जोर शोर से इसके प्रचार में लगे हैं। वे ‘खालाजी का घर’ का अर्थ समझना, समझाना नहीं चाहते इसीलिए नसमझों की ‘खाल’ उतारने कर अपना ‘घर’ भरने में सफल हो रहे हैं।
 वैसे उस तथाकथित प्रेम को पाने और निभाने में बहुत खाईयां है। इसमें जितने विवाद हैं उतने शायद ही किसी अन्य रिश्तें में है। अब प्रश्न यह है कि क्या प्रेम ‘रिश्ता’ है? यदि हाँ तो जरूरी नहीं कि रिश्तों में केवल प्रेम ही हो। रिश्तों में तो नफरत भी हो सकती है। नफरत के रिश्ते प्रेम के रिश्ते से ज्यादा टिकाऊ होते हैं। इस स्वार्थी संसार में क्षणिक प्रेम कब चूक जाये कहना मुश्किल है। पर नफरत का घड़ा बहुत बड़ा है, खाली होना असंभव नहीं तो कठिन जरूर है। अब जीवन है तो प्रेम भी होगा और नफरत भी। तृष्णा भी और वासना भी। दिव्य प्रेम की बहुत सी कहानियां सामने आती रहती है लेकिन वायरसी (नॉट वेल इफ इन टाइम) दैहिक प्रेम वाले आत्मिक प्रेम को कहां समझते हैं। ऐसे में एक प्रश्न यह उछाला जा सकता है कि क्या प्रेम और काम एक साथ नहीं रह सकते? आखिर इन दोनो को एक दूसरे के खिलाफ क्यों खड़ा किया जा रहा है? वे इसे अपने ढ़ंग से परिभाषित करते हुए कह सकते हैं कि क्या इसका मतलब यह नहीं हुआ कि जिससे प्रेम करो उससे दैहिक संबंध नहीं होने चाहिए और जिससे दैहिक संबंध हो उससे प्रेम नहीं करो। यानि प्रेम में संबंध वर्जित।
नहीं, नहीं, यहां यह अभिप्राय नहीं है।  इस फॉर्मूले से तो सब पतित हो गए। इससे माने तो दुनिया का कोई भी वैवाहिक जोडा प्रेम कर ही नहीं सकता। ‘जिससे प्रेम करता हूं, उसी से मेरी शादी हो’ के जनून को कौन समझायेगा कि ‘जिससे मेरी शादी हो मेरा उससे प्रेम हो’ श्रेष्ठ है। वे समझ नहीं पा रहे हैं इसीलिए प्रेम प्रदर्शन से शुरु हुआ साथ प्रेम रहित होकर बोझ बन जाता है। क्या यही कारण नहीं कि इधर प्रेम रहित विवाहित जोड़ों की बाढ सी आ गई है। साथ तो रहते हैं पर प्रेम नहीं। प्रेम तो चूक गया क्योंकि वह तो था ही नहीं। बस प्रेम का मुखौटा ही शेष रहा क्योंकि वास्तव में था भी वहीं। 
अब प्रश्न यह है कि प्रेम रहित लोगों की संतान से प्रेम की आपेक्षा क्यों? अगर पति-पत्नी में प्रेम नहीं तो क्या वे व्यभिचारी हैं? क्या पत्नी गुलाम है या पति? नहीं प्रेम की यह परिभाषा स्वीकार्य नहीं हो सकती। कुछ अपवाद छोड़ दे तो भारतीय दम्पत्ति प्रेम और समर्पण के प्रतीक है। सात जन्म न सही, इस जन्म के हर दुख-सुख यहां तक कि एक के देहावसान के बाद भी उसकी याद से जुड़े रहने को आप प्रेम रहित कैसे कह सकते हैं? वैसे प्रेम के अनेक रूप है। यह सत्य है कि कोई भी किसी से प्रेम तभी करता है, जब कोई एक भाव प्रभावित हो।  वह रूप हो, गुण हो, व्यवहार हो, वाणी हो, या सेवाभाव हो। कुछ लोग दावा करते हैं कि वे किसी से प्रभावित नहीं होते। लेकिन  उनके लिए भी ‘प्रेम रहित होना लगभग असंभव है। आपको अपने कर्तव्य, अपने सिद्धान्त, मानवता से नहीं तो अपने मिथ्याभिमान से प्रेम अवश्य होगा। गुरु गोविन्द कहते हैं- ‘साच कहु सुन लीजो सदा जिन प्रेम कियो तिन ही प्रभु पायो!’ लेकिन फिर कहता हूं- प्रेम हो तो बसंत की तरह ‘वेल इन टाइम’ बुखार की तरह ‘वेलेन्टाइन’ नहीं। उसमें सुगंध हो, दुर्गंध नहीं। शालीनता हो  अश्लीलता नहीं। हमारी संस्कृति प्रेम की विरोधी नहीं है। सत्य तो यह है कि हमे जीवन के हर कदम पर प्रेम और सद्भावना की घुट्टी पिलाई जाती है। शायद आज के तथाकथित प्रेमी कहे कबीर भी अजीब थे, एक ही जगह अटकना चाहते हैं-
घड़ी चढ़े, घड़ी उतरे, वह तो प्रेम न होय।
अघट प्रेम ही हृदय बसे, प्रेम कहिए सोय।।
फिलहाल किसी एक दिवसीय विकृति से दूरी बनाते हुए बसंत से होली तक पूरे 40 दिन चलने वाले मदनोत्सव का आनंद लो। मुझे भी प्रेम करना। आप सबसे। क्योंकि आप सब मेरे हो। क्या मैं मान लूं कि आपको भी अपनो से प्रेम है! 
-विनोद बब्बर 9868211911 rashtrakinkar@gmail.com
   


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