दिवाली के दिये या दिये से दिवाली


दिवाली के दिये या दिये से दिवाली
 पूर्व पुलिस आयुक्त और वर्तमान मे सीबीआई के निदेशक श्री आलोक वर्मा 
दिवाली और दिये का संबंध अभिन्न है। कार्तिक माह की अमावस्या की रात्रि जब न सूर्यदेव हैं और न ही चन्द्रमा। चहूं ओर घनघोर अंधेरा। हाथ को हाथ नहीं दिखता। राह नहीं दिखती। लेकिन चैदह वर्ष के वनवास के बाद एक विशाल खजाना लिए अयोध्या लौट रहे श्रीराम के दर्शनों की चाह सबको रही होगी। चैदह वर्ष के अनुभव किसी विशाल खजाना से कम न थे। मर्यादा की रक्षा, सरल सहज जीवन जीते हुए वनवासी से मित्रता के सहारे शक्तिशाली राक्षसों का संहार, हनुमान से मित्रता, विभिषण को राजतिलक, अनुभवी जामवंत से ज्ञान और अंगद से दृढ़ता के अनुभव लिए असाधारण नायक श्रीराम का अभूतपूर्व  स्वागत होना ही था।  इसलिए हुआ। कार्तिक की अमावस्या के घनघोर अंधेरे की चुनौती को स्वीकार करते हुए उसके प्रभाव को समाप्त करने की जिम्मेवारी छोटे से दिये से संभाली ही नहीं, कुशलता और सफलता से उसे निभाया भी। लगातार निभाता आ रहा है आज तक। बेशक दिये ने रूप बदला हो, आकार बदला हो, ईंधन बदला हो। लेकिन अपनी जिम्मेवारी को नहीं  बदला। क्या किसी को संदेह है कि न जाने कल दिया अंधेरों से लड़ने की  जिम्मेवारी निभायेगा भी या नहीं? नहीं, नहीं। दिया यानी देते रहने वाले पर अविश्वास का कोई कारण नहीं है। यह दिये की विश्वसनीयता ही है कि एक साधारण से साधारण व्यक्ति को अन्याय, अत्याचार, असमानता के विरूद्ध खड़ा होने की शक्ति प्रदान करता है। करता रहेगा  भी सदा-हमेशा।  
न जाने कब से हम अंधेरों से लड़ने की बात सुनते आ रहे हैं। कहते आ रहे हैं। लेकिन एक नन्हा सा दिया विशाल अंधकार से लड़ भी सकता है, इसपर कभी-कभी कुछ लोगों को संदेह होता है। ऐसे संदेह के अनेक कारण हो सकते है। लेकिन उन्हें समझना होगा कि दिया कोई हथियार नहीं उठाता। हिंसा नहीं करता। खून नहीं बहाता। किसी का अहित नहीं करता। बस अंधकार के समक्ष डटकर उसकी कालिख को अपने अंदर ग्रहण करता है। बिल्कुल नीलकंठ शिव की तरह। समुंद्र मंथन से प्राप्त अमृत तो सभी पाना चाहते थे लेकिन विष को स्थान देने वाला कोई न था। तब भोलेनाथ ने समस्त चराचर को हलाहल से बचाने के लिए उसे अपने कंठ में धारण कर लिया। नन्हा सा दिया भी भोलेनाथ का अनुयायी है। विश्वास न हो तो किसी दिये को देख लो, उसका कंठ भी अंधकार की कालिख से सराबोर मिलेगा। कुछ लोग ‘दीये तले अंधेरा’ की कहावत तो जानते हैं लेकिन वे शायद यह नहीं जानते कि किसी सच्चे और अच्छे दिये ने कभी इस अंधेरे की शिकायत नहीं की। एक सच्चा कर्मयोगी भी अपने अभावों की शिकायत किये बिना निष्काम कर्म में लगा रहा है। 
भोलेनाथ के माथे पर चन्द्रमा शोभित है तो उनका स्वयं का तेज किसी सूर्य से कमतर नहीं है। माटी से दिया बनते, सूखते, पकते दिये को भगवान सूर्य का आशीर्वाद प्राप्त होता है तो मन के देवता चन्द्रमा दिये के मन की शक्ति को पहचानते हैं। इसलिए उसमें इतना साहस नहीं कि दीपावली की रात दिये से आंख भी मिला सके
यूं दिया जब-जब अपने पूरे उत्साह के साथ  प्रकट हो वह दीपोत्सव ही होता है। किसी गरीब की कोठरी के अंधकार के सम्मुख टिमटिमाते  दिये की रोशनी में पढ़ाई करता बालक जब ज्ञान के बल पर सूर्य न सही, चन्द्रा बनने का संकल्प लिए कड़ी मेहनत करता है तो नियति उसे भी प्रकाश स्तम्भ बना देती है। एक ऐसा प्रकाश स्तम्भ जिसके दृढ़ विश्वास, जिसकी लगन और उससे प्राप्त सफलता से दूर-दूर तक लोग प्रेरणा प्राप्त करते हैं। ऐसा प्रकाश स्तम्भ जिसकी सफलता से साक्षात्कार प्रतिक्षण उत्सव सा आनंद देता है। उत्सवों का आनंद किसी के लिए नववर्ष हैं तो किसी के लिए नवजीवन। लेकिन वास्तविक आनंद तब है जब सम्पूर्ण जीवन और उसकी प्रेरणाएं तेजोमय हो जाये।  
दिये के अतिरिक्त दिवाली से जुड़ा दूसरा नाम है धूम-धड़ाके और पटाखे का। स्वागत बारात का हो या किसी नायक का। नाचने, गाने  बैंड बाजा, ढ़ोल आदि की धूम सदा से रही है। अब जब कोई नायकों के नायक राक्षसराज महाबली रावण के आतंक को समाप्त कर लौट रहा हो तो उसके स्वागत में कितनी धूम होनी चाहिए, यह अनुमान लगाया जा सकता है। वह धूम वास्तव में ही इतनी जबरदस्त रही होगी कि उसकी गूंज त्रेतायुग से अजा कलयुग तक सुनाई दे रही है। केवल भारत में ही नहीं, बाली, सुमात्रा, जावा, इंडोनेशिया, मोरिशस, फिजी सहित न जाने कितने देशों में यह गूंज आज भी सुनाई, दिखाई दे रही है।
 दिवाली पर पटाखे और आतिशबाजी की परंपरा कब से शुरू हुई पूरे प्रमाण और विश्वास के साथ कहना कठिन है लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि धूम धड़ाका प्रथम दिवस से ही जारी है। हां, यह धूम धड़ाका कब बारूदी पटाखों में बदलता और कब जनून की सीमा पार कर गया यह शोध का विषय है। लेकिन प्रश्न यह भी है कि यह जनून क्या केवल हिन्दू को ही है? क्रिसमस से गुरुपर्व तक। जलूस से किसी विवाह बारात तक। चुनावी जीत से क्रिकेट या फुटबाल की जीत को न जाने क्यों जनून, पागलपन की श्रेणी से बाहर रखा जाता है। उनके पटाखें प्रदूषण रहित लेकिन हमारे पटाखें प्रदूषण का मूल। रोगों की मूल। जबरदस्त भूल। लेकिन हमारा यह स्पष्ट करना अनिवार्य है कि कान फोडू वाले शोर, धुंए, जहरीली गैसे छोड़ने वाले पटाखें का समर्थन नहीं किया जा रहा है। लेकिन भेदभावपूर्ण प्रतिबंध का विरोध अवश्य दर्ज कराया जाना चाहिए। धूम धड़का जरूरी है लेकिन उसमें उत्साह अधिक, दुस्साहस कम से कम होना चाहिए।
वास्तव में दिवाली तो प्रकाश का पर्व है। तम से मुक्ति का पर्व। उस अंधकार से मुक्ति जिसके लिए हम नित्यप्रति प्रार्थना करते हैं- असतो मा सदगमय।। तमसो मा ज्योतिर्गमय।। मृत्योर्मामृतम् गमय।। अर्थात् हे देव हमें असत्य से सत्य की ओर ले चलो। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो। असत्य, असमानता, अत्याचार, अनाचार, अन्याय, प्रदूषण, गंदगी आदि अंधकार (अज्ञानता) के ही तो प्रतीक हैं। हम धन फूंकने (बर्बाद करने) के नहीं, बल्कि उसके सदुपयोग की संस्कृति के पुजारी हंै।
धन को लक्ष्मी कहा गया है। वह शक्तिशाली है। लेकिन चंचला है। संसार का कामकाज धन के बिना चल ही नहीं सकता। लेकिन हम उसकी धुन पर ही झूमते रहे यह भी ठीक नहीं। लक्ष्मी संग सरस्वती और गणेश पूजन के अर्थ को हमें समझना होगा। गणेश जी विघ्नविनाशक है तो सरस्वती ज्ञान की देवी है। संसार का हित इसी में है कि साधन शुद्धि का विवेक बरकरार रहे। बेशक धन काला या सफेद नहीं होता लेकिन उसका दुरपयोग उसे काला बनाता है। भ्रष्टाचार, टैक्स की चोरी, जुआ, सट्टा, व्यभिचार, तस्करी, रिश्वत जैसे साधनों का स्पर्श कर धन अपनी पवित्रता खो देता है। वह देवता से दानव हो जाता है। प्रकाश से अंधकार हो जाता है। मेहनत और ईमानदारी से प्राप्त लक्ष्मी ही पूजन योग्य है। ऐसे लोग ही दिये की तरह प्रकाश स्तम्भ बनते और पूजे जाते है। आओ, इस दीपावली पर ऐसे सभी दीपों का पूजन भी करें जिन्होंने कठिन परिस्थितियों के बावजूद अपनी पहचान बनाई। आंधी के बावजूद जलते रहे इन सभी दियो को नमन। Vinod Babbar 7982170421


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