हादसा नहीं, लापरवाही की हद-- डा विनोद बब्बर

 एक और हादसा। एक बार फिर बड़े नेताओं के शोक संदेश, मुआवजा, दोषारपण, जांच आयोग, दो-चार अधिकारी निलम्बित, कुछ का ट्रांसफर ..और ममाला ठंडा क्योंकि हमने अव्यवस्थाओं कायम रखने की व्यवस्था मजबूती से थाम रखी है।  अब अगर हादसों की भरमार है तो हमारे पास दुनिया भर के उदाहरण है- ‘यूरोप से अमेरिका और चीन, जापान तक में भी होते हैं हादसे! जीवन के साथ चुनौतियां होती हैं!’ लेकिन वहां और यहां के हादसों की दर की चर्चा करना करना हमें गवारा नहीं क्योंकि यह चर्चा हमारी प्रशासनिक योग्यता की पोल खोलती है। आखिर हम में से कितनों को याद है कि रतनगढ़ में इसी स्थान पर सात साल पहले भी इसी तरह का हादसा हुआ था। बेशक उस हादसे का स्वरूप जुदा था। तब नदी पार करके ं दर्शन के लिए जा रहे  50 तीर्थयात्री शिवपुरी के मनिखेड़ा बांध से अचानक पानी छोड़े जाने की वजह से सिंध नदी में बह गए थे।  हमने उस हादसे से कोई सबक न सीखने की कसम खा रखी है। ये हादसे हमारी हठधर्मिता को झकझोड़ते रहते हैं लेकिन हमने दुर्घटना से पहले न जागने की कसम खा रखी है। 
 दक्षिणी समुद्री तट पर फेलिन तूफान उतना प्रलयंकारी और विध्वंसक नहीं रहा क्योंकि स्थानीय प्रशासन ने बेहतर तालमेल और सर्तकता के साथ अपना कर्तव्य निभाया लेकिन दतिया जिले स्थित रतनगढ़ के देवी मंदिर में नवरात्र के अंतिम दिन अचानक मची भगदड़ में सौ से ज्यादा श्रद्धालुओं की मौत हो गई। कुछ लोग अफवाह को जिम्मेवार ठहरा रहे हैं लेकिन वे यह बताने को तैयार नहीं कि लाखों की भीड़ के मंदिर आने जाने के लिए एक ही संकरे पुल था। उस पर से वाहनों को भी गुजरने की इजाजत किसने और क्यों दी?
धार्मिक स्थलों पर हादसे होना नई बात नहीं है। पिछले ही दिनों बिहार के सहरसा के पास कात्यायनी देवी का मंदिर में दर्शन करने जा रहे श्रद्धालु एक ट्रेन हादसे का शिकार हो गए थे। प्रशासन को अच्छी तरह मालूम था कि यहां हमेशा की तरह सावन के अंतिम सोमवार को काफी भीड़ होगी लेकिन सब कुछ रामभरोसे छोड़ दिया गया। हादसा हो गया तो वे भी अपने विरोधियों को कोसने के लिए सक्रिय हो गए जो अब तक सोए थे। नैतिक जिम्मेवारी लेने को कोई तैयार नही। प्रशासन को बड़े नेताओं की मिजाजपुर्सी और वसूली से ही फुर्सत हो तो देखे कि उनके क्षेत्र में कौन से ऐसे स्थान है जहां  मेल लगते हैं, भीड़ होती है। मेले लगते भी है तो कब-कब? आखिर कौन रखेगा इसका हिसाब? 
बीते एक दशक से शायद ही कोई ऐसा साल  गुजरा हो, जब धार्मिक स्थल पर हादसा न हुआ हो। 2003 में नासिक कुंभ,  2005 में सतारा जिले का मंधेरी देवी मंदिर, 2008 में श्रावण पर्व पर नैनादेवी मंदिर में जमीन खिसकने की अफवाह के बाद मची भगदड़, उसी साल जोधपुर के मेहरानगढ़ किले के चामुंडा देवी मंदिर में भगदड़, 2011 में सबरीमाला मंदिर तो पिछले दिनों इलाहाबाद कुंभ के दौरान रेलवे स्टेशन पर भगदड़। आखिर यह सब क्या है? उत्सव-मेलों के देश में ऐसे आयोजनों से निपटने के लिए आखिर हमने अब तक कुछ सीखने-समझने की जरूरत क्यों महसूस नहीं की? हम हर मुसीबत और खुशी से निपटने का काम पुलिस को सौंपकर निश्चित हो जाते हैं जबकि हमारी पुलिस भीड़ से निपटने का जो तरीका जानती है उसमें सबसे बैरिकैट्स लगाकर रोकने की कोशिश करना। सफल न होने पर लाठीचार्ज, आंसूगैस, हवाई फायर से माध्यम से भीड़ को ‘कंट्रोल’ की ट्रेनिंग उन्हें जरूर होती है लेकिन सेना की तरह ऐसी स्थिति से पूर्व अर्थात् भीड़ प्रबंधन, बचाव का मामला तो उनके विवेक पर छोड़ दिया जाता है। यदि ऐसे अवसरों पर तैनात होने वाली कुछ टुकड़ि़यों को भीड़-प्रबंधन की वैज्ञानिक और मानवीय खास ट्रेनिंग दी जाए तो निश्चित रूप से ऐसी परिस्थितियों से बेहतर तरीके से निपट जा सकता है। प्राकृतिक हों या मानवीय भूल से, हादसे होना स्वाभाविक है लेकिन प्रबंधन की अनुपस्थिति स्वीकार नहीं की जा सकती। प्रबंधन में सबसे महत्वपूर्ण है- पूर्व मूल्यांकन। जो सूचनाएं  होती हैं, उनके आधार पर अनियंत्रित हो सकने वाली स्थितियों का आकलन करत उससे बचाव के तरीके तलाशते जाते हैं। सभी प्रशासनिक तंत्र सक्रिय और  मुस्तैद हो तो बड़े से बड़ी आपदा भी अपनी पूरी शक्ति के बावजूद कम से कम निशान छोड़ पाती है। 
बेहद शर्मनाक है कि जो प्रशासन और उसके मुखिया हादसों तक सोऐ रहते हैं। हादसों के बाद उमड़ने लगते हैं मुआवजे की घोषणा करने। यह सही है कि इससे पीड़ित परिवार को तत्कालिक रूप से कुछ आर्थिक सहायता मिल जाती है लेकिन हमें समझना चाहिए कि हर जीवन अमूल्य है।  यदि मुआवजे के रूप में बांटी गई धनराशि ही व्यवस्था को चस्त-दुरूस्त बनाने के लिए खर्च कर दे तो ऐसी दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है। ऐसे में जरूरी है कि हर उत्सव मेले से पूर्व उसकी व्यवस्था के लिए अन्य दायित्वों से पूरी तरह से  मुक्त लोगों की टीम बनाई जाना अनिवार्य हो जो हर परिस्थिति का आंकलन कर अधिकतम संभव सुरक्षित व्यवस्था करें। इसके अतिरिक्त  पूर्वानुमान न लगा पाने और उपयुक्त व्यवस्था न कर पाने के दोषी जवाबदेही तय की जानी चाहिए।
यह समझना दुर्भाग्यपूर्ण है  कि लापरवाही हमारे देश के विकास रथ का पहिया रोक रही है क्योंकि इससे हमारी कार्य-संस्कृति प्रभावित हो रही है। ‘कुछ नहीं होगा’ की अवधारणा को बदले बिना पाकिस्तान जैसे छोटे और अशांत देश हमारा मजाक बनाते रहेंगे। जैसाकि इस तूफान के बाद कुछ पाकिस्तानी अखबारों ने जमकर हमारी खिल्ली उड़ाई हैे। यदि जिम्मेवारी सुनिश्चित कर दें तो लापरवाही पर दंड भी सुनिश्चित होना चाहिए। फिलहाल तक यह माना जाता रहा है कि लापरवाह, सुस्त अथवा दोषी नहीं, सजा वह पाता है  जो काम करता है। यदि कोई नेता सजा पा भी जाए तो उसके साथ जेल प्रशासन  अति विशिष्ट व्यक्ति जैसा व्यवहार करते हुए उसे पंचसितारा सुविधाएं उपलब्ध कराता है। इसका एक उदाहरण झारखंड की जेल में ‘सजा’ भुगत रहे एक मुख्यमंत्री का है।  अपराधी कोई भी हो, अपराधी है। उसे विशेष सुविधाएं देना देश की गरीब जनता की खून-पसीने, मेहनत की कमाई का दुरुपयोग नहीं तो और क्या है? यह बेहद कष्टकारी है कि छोटी-छोटी बातों पर एक-दूसरे को नीचा दिखाने वाले राजनैतिक दल इस मामले पर एक शब्द भी नहीं बोलते। हमारे स्वयंभू कर्णधारों की ओर से प्राप्त ये संकेत यदि कुछ कहते है तो यहीं कि वे संविधान, कानून और सामाजिक मर्यादाओं से परे हैं। यदि निष्पक्ष मूल्यांकन किया जाए तो यह प्रवृति इस देश के साथ सबसे बड़ा हादसा है। जब तक हम इस हादसें का तोड़ नहीं ढ़ूंढते, नदी, तालाब, मंदिर, मेले, उत्सव, सड़क, रेल हादसे होते रहेंगे।
 देश इस समय चुनावों की दहलीज पर खड़ा है। ईश्वर करे कि चुनावी रैलियां  आतंकवाद अथवा अफवाहों के कारण हादसे का शिकार न बनें क्योंकि नेताओं को उच्चतम सुरक्षा प्राप्त है। उनके लिए अलग सुरक्षित रास्ते हैं पर  आम आदमी को सुरक्षा तो दूर सकरे रास्तों भी नसीब नहीं है। उन रास्तों पर भी पहला अधिकार उन वाहनों का है जो प्रबंधन में लगे लोगों की जेब गर्म कर सकते है। गरीबी, मजबूरी का मारा आम आदमी देवी की शरण में आता है गरीबी के अभिशाप से मुक्ति दिलाने की याचना लेकर। उसके पास महगाई के इस दौर में अपने बच्चों का पेट भरने के लिए ही पर्याप्त साधन नहीं है तो वह भक्ष्क बने रक्षकों को अपने बलिदान के अतिरिक्त आखिर दे ही क्या सकता है? आश्चर्य है कि शौचालय को देवालय से अहम बताने वाले ‘महापुरुष’ ने अब तक नहीं कहा कि वे लोग वहां गये ही क्यों थे?  
बस बहुत हुआ, अब हादसो पर रोक लगनी ही चाहिए। बड़े-बड़े मोर्चे जीतने वाला भारत इन  छोटी -छोटी बातों की अनदेखी का कलंक अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता।   प्रशासन में शासन नहीं, सेवा की सोच भी विकसित करनी होगी। किसी भी घटना के दुर्घटना बदलने से पहले ही तत्परता व संवेदनशीलता दिखानी होगी वरना दुष्ट पाकिस्तान को हमारी खिल्ली उड़ाने और किसी ‘फेंकू’ को  ‘पप्पू’ की खिंचाई का अवसर मिलता रहेगा क्योंकि एक छोटे से देश पोलैंड में एक कोयला खान दुर्घटना में 10 मजदूर मरे तो वहाँ राष्ट्रीय शोक घोषित किया गया लेकिन हमने सैंकड़ों पर भी......!
हादसा नहीं, लापरवाही की हद-- डा विनोद बब्बर हादसा नहीं, लापरवाही की हद-- डा  विनोद बब्बर Reviewed by rashtra kinkar on 23:52 Rating: 5

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