किस करवट बैंठेगा सेमीफाइनल का ऊंट -- डा. विनोद बब्बर

किस करवट बैंठेगा सेमीफाइनल का ऊंट -- डा. विनोद बब्बर
चुनाव लोकतंत्र का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कर्मकांड है। जब तक चुनने के लिए एक से अधिक विकल्प की उपस्थिति न हो, चुनाव का कोई अर्थ नहीं होता। यह भी शाश्वत सत्य है कि हर उम्मीदवार विकल्प नहीं होता क्योंकि कुछ जीतने के लिए मैदान में होते हो तो कुछ हराने के लिए। कुछ का उद्देश्य अपनी शक्ति आंकना होता है तो कुछ अगली तैयारी के लिए ताल ठोकते है। हर चुनाव में ‘धरती पकड़ों’ की उपस्थिति का भी महत्व होता है। ये लोग विशुद्ध मनोरंजन के लिए लोकतंत्र के इस महायज्ञ को माध्यम बनाते है। 
..और हाँ, हर लड़ने वाला स्वयं को विजेता घोषित करता है क्योंकि हारे हुए मनोबल से तो लड़ा नहीं तो अड़ा जरूर जा सकता है पर चर्चा में रहने के लिए बड़े-बड़े दावे करना जरूरी है। लेकिन जागरूक मतदाता उनके दावों की नहीं, उनकी क्षमताओं का मूल्यांकन करता है जबकि कुछ नासमझ मतदाता उम्मीदवार अथवा उसकी पार्टी की नीतियों, उनके आदर्शो, उनके चुनाव घोषणापत्र के बारे में नहीं जानना चाहता क्योंकि उसे तो चुनाव की पूर्व संध्या पर ‘पर्ची’ के साथ ‘खर्ची’ चाहिए। उन्हें जो बड़ा ‘गांधीवादी’ मिलेगा, ये उसी के सुर-में-सुर मिलायेंगे। इनका र्दान बिल्कुल स्पष्ट है, ‘चुनाव के बाद वे हमारी सुनने वाले नहीं हैं। बिन पैसे कोई काम होने वाला नहीं तो हमारा खर्ची लेना गलत कैसे?’
बेशक पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों पर अनेक सर्वेक्षण और अनुमान हमारे सामने ओ हैं। इनके परिणामों में जबरदस्त विरोधाभास है क्योंकि प्रायोजित अनुमानों की भी कमी नहीं है। उदाहरण के तौर पर दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने अपने सर्वे में  नयी दिल्ली सीट से मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पर अरविंद केजरीवाल की बढ़त दिखाई है। शीला दीक्षित का बड़े से बड़ा विरोधी भी यह स्वीकार नहीं कर सकता कि केजरीवाल क्या, कोई अन्य भी उन्हें हरा सकता है। जाहिर है कि जिसके पक्ष में ऐसे अनुमान होंगे वह फूला नहीं समायेगा और उस सर्वेक्षण को पूर्ण वैज्ञानिक बताने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहेगा लेकिन जिसे पिछड़ा हुआ बताया जाएगा वह अपने विरोधी स्वर को पूरी शक्ति के साथ प्रस्तुत करते हुए सर्वेक्षणों को ‘मनोरंजक’ सिद्ध करने का प्रयास करेगा ही। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि सभी अनुमान बेकार होते है। अब तक के अनुभव रहे हैं कि ईमादारी से किये गये सर्वेक्षण सत्य के आसपास होते है।  
आज के बदलते दौर में मीडिया, सोशल मीडिया के रूझान और रैलियों में उमड़ती भीड़ को यदि कुछ संकेत माना जा सकता है तो एक बात बिल्कुल साफ है कि फिलहाल सितारे कांग्रेस के पक्ष में दिखाई नहीं दे रहे हैं। कारण एक नहीं, अनेक हो सकते हैं। बढ़ती महंगाई, बेकाबू भ्रष्टाचार, लूट की छूट जैसे मुद्दे सभी को आंदोलित कर रहे हैं। दिल्ली, राजस्थान और मध्यप्रदेश के अतिरिक्त पूर्वोत्तर के राज्य मिजोरम के विधानसभा चुनावों को लोकसभा चुनाव से पूर्व ‘सेमीफाइनल’ घोषित किया जा रहा है क्योंकि इनके नतीजे निश्चित रूप से कुछ महीनों बाद होने वाले चुनाव को प्रभावित करेंगे। प्रथम चार राज्यों में मुकाबला भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच है तथा पांचवे में कुछ क्षेत्रीय दलों के बीच होड है।
क्या इसे संयोग ही माना जाए कि लगभग हर सर्वेक्षण ने  चारों राज्यों में कांग्रेस के पतन और भारतीय जनता पार्टी के उदय की तस्वीर प्रस्तुत की है? हमारा मत है कि यह संयोग नहीं, बल्कि जमीनी सच्चाई है कि दिल्ली में शीला दीक्षित की सर्वाधिक प्रतिष्ठा होते हुए भी केन्द्र सरकार की कारगुजारियां उसे ले डूबेगी। राजस्थान लगातार बदलाव की अपनी परम्परा कायम रखने की ओर बढ़ रहा है तो मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी भाजपा की बजाय आपस में ही लड़ रहे हैं तो  हम किस प्रकार के परिणामों का अनुमान लगा सकते है?
यदि राज्यवार विचार करें तो मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह लगातार शलीनता और कर्मठता की अपनी छवि बरकरार रखने में सफल रहे हैं। अनावश्यक विवादों को स्वयं से दूर रखने वाले शिवराज के सामने कांग्रेस की तरफ से सिन्धिया को उतारने का  विचार जरूर कुछ चुनौ।ती प्रस्तुत कर सकता था क्योंकि छोटे सिन्धिया की छवि अन्य कांग्रेसी नेताओं के मुकाबले बेहतर है। दिग्विजय के रहते कोई मध्य प्रदेश में मुखिया कैसे हो सकता है अतः उन्होंने केन्द्रीय नेतृत्व से अपनी निकटता का लाभ उठाते हुए न केवल ज्योतिरादित्य सिन्धिया को बल्कि कांग्रेस को ही किनारे लगा दिया। पहले से कुछ कम मतों के साथ शिवराज की वापसी तय है। इसी प्रकार नये बने राज्य छत्तीसगढ़ को जिस ढ़ंग से विकस के पथ पर शांत, सौम्य डा. रमन सिंह ने आगे बढ़ाया है उससे वहां की जनता उनकी फेन है जबकि कांग्रेस अजीत जोगी की बंदी बनकर रह गई है। जोगी महाराज फ्री हैंड चाहते थे जबकि प्रदेश नेतृत्व उनसे पल्ला छुड़ाने के मूड में है अतः कांग्रेस रमन से नहीं आपसी ‘अमन’ से लड़ने में मशगूल है। 
राजस्थान में पिछले चुनाव में कुछ सीटे कम रहने के बावजूद सफलता से पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाले अशोक गहलोट जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं लेकिन उनके अपने ही मंत्रीमंडल के साथियों  की कारगुजारी उन्हें महंगी पड़ने वाली है। बलात्कार जैसे मामलों में फंसे मंत्री सरकार की बदनामी का कारण बन रहे हैं तो केन्द्र की बदनामी की धूल भी ‘अशोक’ को ‘शोक’ दे सकती है।  उसपर वसुंधरा राजे ने पूरे राज्य में जिस तरह से मेहनत की है और सरकार को कटघरे में खड़ा करने में सफल रही है। गूजर, जाट तथा कुछ अन्य जातियां फिर से भाजपा के निकट आ रही है इसका लाभ उन्हें मिल सकता है। अतः काम चलाऊ बहुमत के साथ वसुंधरा की वापसी हो सकती है। 
दिल्ली को मिनी भारत कहा जाता है क्योंकि लगभग हर राज्य के लोग यहां रहते हैं। यहां से उठनेवाली हवा के झोंके पूरे देश को प्रभावित करते हैं. हाल में दिल्ली गैंग रेप के खिलाफ और उसके पहले अन्ना हजारे के आंदोलन की जमीन देश-व्यापी नहीं थी, पर देश की राजधानी होने के कारण उसे व्यापक चर्चा मिली। दिल्ली के बारे में कहा जाता है कि इसका न कोई अपना मौसम है और न ही मिजाज। शिमला की ठंडी हवाएं दिल्ली को ठिठुरने के लिए मजबूर कर देती है तो रेगिस्तान का चक्रवात  धूल से दिल्ली के आसमान को ढक लेता है ठीक इसी प्रकार रोजी -रोटी की तलाश में आए प्रवासी दिल्ली  की राजनैतिक फिज़ा को प्रभावित करते हैं। विभाजन के बाद बसे लेगों ने इसे पंजाबी बाहुल्य बना दिया था तो पिछले दो दशकों में दिल्ली का स्वरूप पूर्वांचली होता जा रहा है। छठ की धूम, यमुना सहित अनेक स्थानों पर छठ घाटों का निर्माण, भोजपुरी-मैथिली अकादमी की स्थापना पूर्वांचली वोट बैंक को साधने की कला के नमूने हैं। दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से दो-तीन मुस्लिम बहुल्य तो चार-पांच सिक्ख बहुल्य जबकि  इनसे कुछ अधिक सीटे पूर्वांचल बाहुल्य की होने के कारण इनके रूझान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। भोजपुरी के प्रसिद्ध कलाकार मनोज तिवारी का भाजपा प्रवेश इनके रूझान का संकेत है तो परिणामों का अनुमान लगाया जा सकता है।
शेष तीन राज्यों से अलग दिल्ली की स्थिति इसलिए भी अलग है क्योंकि अन्ना की लोकप्रिता के बीच उभरे अविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाकर दिल्ली में चुनाव लड़ने की घोषणा की है। बेशक केजरीवाल जमीन की बजाय सोशल मीडिया पर काफी चर्चित हैं लेकिन स्वयं अन्ना, किरण बेदी सहित उनके तमाम साथी उनसे असहमत हैं। केजरीवाल ईमानदार लोगों को उम्मीदवार बनाने का दावा करते रहे हैं लेकिन जिस तरह से उन्होंने भाजपा और कांग्रेस से निकाले अथवा निकले लोगों को आंख बंद किये उम्मीदवार बना रहे हैं उससे उनकी छवि बनने से पहले ही बिगड़ रही है। वैसे अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते हुए केजरीवाल स्वयं को भावी मुख्यमंत्री घोषित कर रहे हैं क्योंकि उनका दावा है कि उन्हें 70 में से 42 सीटे मिलेगी। कुछ सर्वेक्षण उन्हें जरूरत से ज्यादा भाव दे रहे हैं ताकि लोग भ्रमित हो। वैसे झाडू नहीं, पुराने दागी-बागी अपने प्रभाव से जरूर कुछ कर  सकते हैं। हाँ, भाजपा जरूर आत्मघाती मार्ग पर है। साफ छवि के डा. हर्षवर्धन को आरंभ में ही नेता घोषित करना चाहिए था। विलम्ब से अनावश्यक भ्रम फैला। दूसरे प्रदेश की जम्बो कार्यकारिणी तथा सभी के लिए दरवाजा खोलने की नीति ने टिकटार्थियों की भीड़ बढ़ाई है। सभी को खुश करना संभव नहीं अतः टिकट वितरण के बाद असंतोष और भीतरीघात के प्रति सजगता की आवश्यकता है वरना पिछली बार की तरह दिल्ली  की किल्ली ढिल्ली हो सकती है और सजी-सजाई थाली सामने से सरक सकती है। कुल मिलाकर देश मनमोहन सिंह जी के मौन से असंतुष्ट है। उनके जैसे विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री के प्रधानमंत्री रहते रुपये के अवमूल्यन, भ्रष्टाचार, महंगाई की सभी सीमाएं लांघना उनकी छवि को धूमिल कर रहा है तो दूसरी ओर मोदी का आकर्षण लगातार बढ़ रहा है। अब देखना है सेमीफाइनल का ऊंट किस करवट बैठता है।

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