स्वास्थ्य सुविधाओं का कड़वा सत्य Truth of Health Facilities


 स्वास्थ्य सेवाओं में हमारे सामने  दो परस्पर विरोधी ध्रुव हैं। एक ओर स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार अर्थात् अनेक पंचसितारा लेकिन निजी अस्पतालों के निर्माण के बाद से विदेशो से भारत आकर इलाज करवाने की प्रवृति बढ़ी है क्योंकि यहाँ चिकित्सा सुविधाएं आपेक्षाकृत बेहतर और कम खर्चीली हैं। तो दूसरी ओर एक बच्चे का इलाज के अभाव में पिता के कंधे पर दम तोड़ने और एक पति द्वारा अपनी पत्नी के शव को एम्बुलेंस के अभाव में मीलों कंधे पर लादे ले जाने की घटनाओं ने देश के जनमानस को झकझोड़ा है। देश के पिछड़े और सुदूर क्षेत्रों की कौन कहे देश की राजधानी के बड़े अस्पतालों में भी भारी भीड़ रहती है। एक ही बेड पर गंभीर रूप से बीमार दो से तीन रोगियों का होना तो आम बात है। पिछले दिनों नर्सों की हड़ताल से राजधानी सहित देश भर में स्वास्थ्य सेवा किस तरह चरमरा गई, यह सभी जानते हैं।
वर्तमान सरकार ने अनेक दवाओं के मूल्यों में भी भारी कमी की है। देश के विभिन्न स्थानों पर नये ‘एम्स’ खोले जा रहे हैं। एम्स जैसे अस्पतालों को ‘ऑन लाइन’ करके डाक्टर से ‘अप्वाईंटमेंट’ पहले से तय करने की सुविधा भी प्रदान की है जिससे अनावश्यक लम्बे इंतजार से बचा जा सके। बेशक यह केवल भीड़ प्रबंधन है जबकि जरूरत सभी को समय पर चिकित्सा उपलब्ध कराने के लिए प्रबंधन की जरूरत है। सरकारी अस्पतालों में प्रतिदिन एक डाक्टर को इतने मरीज देखने पड़ते हैं कि जांच औपचारिकता बन कर रह जाती है। डाक्टर मरीज की तरफ देखे बिना दवाएं लिखने को विवश होते हैं। ऐसे में तीन -चौथाई आबादी निजी अस्पतालों में इलाज कराने को विवश है। इन विवश लोगों में से अधिकांश की आर्थिक स्थिति इन अस्पतालों के बेतहाशा मरीजों की भीड़ के बीच डाक्टर अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान नहीं दे पा रहे हैं। देश में और अधिक चिकित्सा शिक्षा संस्थान एवं कॉलेज खोलने की जरूरत है, ताकि जरूरत के अनुसार डाक्टर तैयार किए जा सकें। 
हाल ही में स्वास्थ्य से जुड़े एक सर्वोक्षण के अनुसार -दवाओं की महंगाई का कारण उनकी लागत ज्यादा होना नहीं, बल्कि असीमित मुनाफा कमाने का दवा कंपनियों का लालच है। उन्होंने यह भी बताया कि राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) के विनियमों के अनुसार कोई भी दवा कंपनी अपने उत्पाद की कीमत लागत से 100 प्रतिशत से ज्यादा नहीं रख सकती। जबकि ये कंपनियां 200 से 500 प्रतिशत तक मुनाफा कमा रही हैं। इनमें कुछ दवाएं ऐसी भी हैं, जिनकी कीमत सरकार से नियंत्रित होती है।
बाजार में नकली जीवनरक्षक दवाओं की मौजूदगी शर्मनाक है।  यहाँ तक कि विदेशों में प्रतिबंधित दवाईयाँ भी धड़ल्ले से बेची जा रही हैं। यह हमारी स्वास्थ्य सुविधाओं का मात्र एक छोटा सा पक्ष है। दुर्भाग्य की बात भी है केन्द्रीय बजट ही नहीं राज्यों के बजट का बहुत मामूली अंश ही स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार पर लगाया जाता हैं। आज भी देश के अधिकांश पिछड़े क्षेत्रों में यदि सरकारी अस्पताल है भी तो इलाज करने वाला नहीं। यदि हैं तो दवा या अन्य सुविधाएं नहीं है। किसे याद न  होगा कि गत वर्ष देश के सबसे बड़े प्रदेेश के एक अस्पताल में वार्ड ब्वॉय द्वारा सड़क हादसे में घायल युवक की सर्जरी करने तथा उसी राज्य के एक अन्य अस्पताल में फार्मासिस्ट व सफाईकर्मी द्वारा इंजेक्शन लगाने के समाचार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली का आईना ही दिखाया था। तर्क दिया गया था कि वार्ड ब्वॉय व फार्मासिस्ट दशकों से काम करते-करते चिकित्सा कार्य में दक्ष हो गये हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या उनके भरोसे अस्पताल छोड़ दिये जायें? ऐसे में करोड़ों रुपये खर्च करके मेडिकल कॉलेज खोलने की क्या ज़रूरत है? फिर झोलाछाप डाक्टरों के विरूद्ध अभियान क्यों? वास्तव में इसके लिए शासन जिम्मेदार है। तमाम सरकारी अस्पताल डाक्टरों व नर्सों की कमी से जूझ रहे हैं। जो नियुक्त हैं वे ड्यूटी पर होने के बावजूद मरीजों को सहज उपलब्ध नहीं होते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तो डाक्टर जाना ही नहीं चाहते, नियुक्ति होने पर लगातार ड्यूटी से गायब रहकर निजी प्रैक्टिस में ज्यादा रुचि लेते हैं। तंत्र की संवेदनहीनता के चलते हज़ारों ज़िंदगी असमय मौत के आगोश में समा जाती हैं।
देश के बड़े चिकित्सा संस्थानों में मरीजों की तादाद बहुत ज्यादा होने के कारण इलाज की बेहतर सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं, जिसमें वे अपने मकसद से भटक गए हैं। इसलिए  प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों के विस्तार और वहां जरूरी उपकरणों एवं डाक्टरों की नियुक्ति पर ध्यान देना होगा। राजधानी दिल्ली में भी जिस तेजी से जनसंख्या बढ़ी है उस अनुपात में अस्पताल नहीं बने। चुनावी वादे और ‘खास क्लीनिक’ की नौटंकी जरूर होती रही है। पिछले एक दशक में विकासपुरी विधानसभा क्षेत्र में एक अस्पताल का अनेको बार शिलान्यास तो जरूर हुआ लेकिन बात शिला से आगे नहीं बढ सक़ी। ऐसे में उपलब्ध साधनों पर दबाव पड़ना स्वाभाविक है। 
सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति अश्वस्त न होने के कारण लोगों में  मेडीक्लैम का प्रचलन बढ़ा है।  लेकिन स्वास्थ्य बीमा लेने की सभी की समर्थ नहीं। अनेक बार तो यह भी देखा गया है कि निजी अस्पताल मेडीक्लेम वाले रोगियों की अज्ञानता का लाभ उठाकर भारी भरकम बिल पास करवा लेते हैं। भुगतभोगी को जब जानकारी मिलती हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। क्या यह उचित नहीं होगा कि स्वास्थ्य बीमा करने वाली कम्पनियो के लिए अपने ग्राहकों की  सम्पूर्ण स्वास्थ्य जांच  अनिवार्य की जाये। इससे किसी भी रोग को बढ़ने से पहले नियंत्रित किया जा सकता है दूसरे अस्पतालों से गंभीर रोगियों की भीड़ कम होगी। 
निजी अस्पताल सरकार से भूमि तथा अन्य सुविधाएं लेते हुए वचन देते हैं कि वे गरीबों का इलाज निःशुल्क अथवा रियायती करेंगे लेकिन अनुभव बताते हैं कि ऐसे दावे पूर्ण रुप से हवाई साबित हुए हैं। वे यह कह कर भी अपना पल्ला झाड़ लेते है कि यह छूट हार्ट, किडनी, लीवर जैसे मंहगे इलाजों के लिए संभव नही है। एक सर्वे के अनुसार निजी डाक्टर चिकित्सकीय रेडिएशन जैसे सीटी स्कैन जैसी सुविधा का अनावश्यक रूप से उपयोग करते हैं और इससे स्वास्थ्य पर विपरित असर पड रहा है।  जितने टेस्ट  करवाये जाते हैं उनमें से आधे अनावश्यक होते हैं। इनसे न केवल आर्थिक दंड है बल्कि  कई प्रकार से साइड इफैक्ट के शिकार होते हैं। यह कोइ्र रहस्य नहीं है कि मोटी कमीशन के कारण ऐसा किया जाता है। समाज का एक वर्ग  ओवरट्रीटमेंट का शिकार हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि हम छोटी सी बीमारी के लिए भी अनावश्यक बडा उपचार करवाते हैं. जबकि वह बीमारी घरेलू उपायों से भी ठीक हो सकती है या फिर उसके लिए किसी उपचार या जांच की आवश्यकता ही नहीं होती है। 
आज भी देश में डॉक्टर के लाखों पद खाली हैं। डॉक्टर एवं मरीज का अनुपात काफी असंतुलित है। अब यह जानकारी कोई रहस्य नहीं रही कि दवा कम्पनियां डाक्टरों को विदेश यात्रा तथा कुछ अन्य प्रलोभन देकर अपनी दवाओं की खपत बढ़ाने का इंतजाम  रहती हैं। आज चिकित्सा सेवाभाव के स्थान पर बाजार में बदल चुका हैं। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार सरकारी संस्थानों से एमबीबीएस करने के पश्चात लगभग आधे  डॉक्टर विदेश में शिक्षा ग्रहण करने के बहाने वहीं बस जाते हैं। क्या भ्रूण हत्या डॉक्टरों की संलिप्तता के बिना संभव है?
सरकार ने डॉक्टरी के प्रथम दो वर्ष गाँवों में सेवा देने को अनिवार्य बनाने का प्रस्ताव रखा ही था कि विभिन्न संगठनों ने इसका पुरजोर विरोध किया। इसीसे गाँवों को लेकर इनकी सोच का अंदाजा लगाया जा सकता है, जबकि गाँवों में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की सबसे ज्यादा जरुरत है । अधिकांश डॉक्टर अब सेवा भाव के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुऐ इस क्षेत्र में कदम नहीं रख रहे बल्कि इनका मूल मकसद है शहरों, महानगरों में रहना एवं अधिक से अधिक धन अर्जित करना।
लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि सभी डाक्टरों में सेवाभावना समाप्त हो चुकी है। आज भी अनेकों ऐसे डाक्टर हैं जो धर्मार्थ संस्थाओं के माध्यम से नाममात्र के शुल्क पर श्रेष्ठ उपचार दे रहे हैं। ऐसे डाक्टर ही मानवता के उपासक है। ऐसे डाक्टरों को कोटिशः नमन!  सरकार को भी ऐसे चिकित्सकों को ही सम्मानित करना चाहिए।-विनोद बब्बर 09868211911


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