हाँ मै डल हूं Yes, I am Dull
जी हाँ मै डल हूं। क्या कहा? कौन डल? ओह! आप नहीं पहचान पाये मुझे! इसमें आपका भी क्या दोष। अरे जब डल वाले ही डल की परवाह नहीं करते तो आपसे भी क्या शिकवा। अमन के दुश्मनों के बहकावे में आकर पत्थर चलाने वालों ने माहौल को ऐसा बिगाड़ा कि मेरी रौनक उजड़ गई। गर्मियों में दुनिया भर से लोग मेरी खैर खबर लेने आते थे क्योंकि मैं वो डल हूं जिसके बारे में कहा गया है, ‘गर फिरदौस बररुए ज़मीनस्त, हमिअस्तो हमिअस्तो हमिअस्त!!’ अर्थात् धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है। लेकिन आज? मत पूछिए। मेरा दिल दुखता है खाली शिकारे देख कर। शिकारे की रौनक उजड़ने का मतलब है शिकारे वाले के घर फाके। मेरे आसपास का माहौल उदास है। हिन्दुस्तान का मस्तक अशांत होता है तो डल को भी भुगतना पड़ता है। मेरा बेरौनक अकेलापन मुझे अंदर ही अंदर सिसकने के लिए मजबूर करता है। ऐसे में मेरे डल होनेे का कोई अर्थ शेष नहीं रहता। इस बार मेरे और मेरे चाहने वालों के साथ ऐसा हुआ जैसे किसी खिलाड़ी को फाइनल खेलने से रोक कर उसे मैडल से महरूम कर दिया जाये। मैं वो डल हूं जिसे अमन का संदेश फैलाने के लिए मिलने वाले मैडल का कहीं कोई अता-पता नहीं है। जब अमन के दुश्मनों में डल जितनी गहराई आ जाएगी तभी वे मेरा दर्द समझ सकेगे।

जी हाँ मैं डल हूं। आर्थिक तंगी और उस पर भी बेलगाम महंगाई, मिलावटखोरी के चलते एक गृहिणी डल नहीं तो क्या प्रसन्न रहेगी? पति महोदय पहली तारीख को जो कुछ हाथ पर रखते हैं उससे सारे परिवार की फरमाईशे पूरी करना कठिन नहीं पूरी तरह असंभव है। दिनभर जी तोड़ मेहनत करने के बाद भी कोई मुझसे संतुष्ट नहीं है। सभी की शिकायतें की सुनकर रोना आता है परंतु सितम ये कि हारी, बीमारी में भी लगे ही रहना है। डल होते हुए भी डल न दिखने की चुनौती के सामने तुम्हारा ओलम्पिक मैडल बहुत बड़ा नहीं है जी।
जी हाँ मैं डल हूं। मुझे बचपन कहते हैं। कभी बचपन को जीवन का सबसे श्रेष्ठ काल कहा जाता था। आजाद, मस्त रहने वाला बचपन आज माँ-बाप सोरी मॉम -डैड की झूठी शान के बोझ तले दबा सिसक रहा है। मातृ भाषा गई भाड़ में, गिटपिट अंग्रेजी, गाना नहीं सॉग, गिनती नहीं काऊंटिंग। शरीर से बाहर झांकती हड्डियों को अब असली मक्खन दूध नहीं रासायनिक पिज्जा, बर्गर मिलता है। उसपर भी अपनी क्लास में सबसे इन्टेलीजेंट होने की चुनौती। ओह! हर मैडल जीतने का दबाव। क्या अब भी आप समझ नहीं पा रहे हो कि मैं डल क्यों हूं?
मैडल बहुत आकर्षक शब्द है। लेकिन इसे पाना ढेढ़ी खीर है। यह पूछना मना है कि खीर भी क्यों और कैसे टेढ़ी होती है। इसीलिए तो सच्चाई कहती है- हाँ मै डल हूं क्योंकि मेरे हिस्से का मैडल झूठ ने हथिया लिया है। मेहनत की पीड़ा भी यही है - हाँ मै डल हूं क्योंकि चाटूकारिता ने उसके प्रयासों पर पानी फेर दिया है। ईमानदारी भी कम परेशान नहीं है इसीलिए वह भी कहती है- हाँ मै डल हूं क्योंकि भ्रष्टाचार बलात्कारी बना गले में सीडी के मैडल टांगे घूम रहा है। धर्म सिसक रहा है- हाँ मै डल हूं क्योंकि ढ़ोंग और पाखंड ने उसका मैडल ही नहीं मुकुट भी छीन लिया है। न्याय का दर्द फूट- फूट कर बाहर आ रहा है- हाँ मै डल हूं क्योंकि बरसो तारीख- दर- तारीख बांटने के बाद भी न्याय रूपी मैडल का कहीं अता-पता नहीं हैं।
दुखी तो रेल भी है जहां सिर्फ और सिर्फ रेलम-पेल है। जनरल डिब्बे में दस आरक्षित डिब्बों के बराबर भीड़ होती है। बाहर आरक्षण शायद दबे-कुचलो को मिलता होगा लेकिन यहां आरक्षण साधन संपन्न को ही मिलता है। कोशिश करने पर भी गरीब नाकाम ही रहता है। हे प्रभु! हमारी भी सुन लीजे। मैं डल हूं। साल में कम से कम एक बार तो कन्फर्म सीट रूपी मैडल दिलवाने का इंतजाम ही कर दो।
आज जब हर तरफ ‘मैं डल हूं’ की गूंज सुनाई दे रही है। अंधेरे को चीर कर हर रोज निकलने वाला सूर्य ‘मैं डल नहीं हूं’ का जयघोष कर रहा है। उसकी चमक, उसकी उष्मा, उसका प्राणतत्व, जगत को प्राणवान बनाता है। उसके तेज के सामने तो हर मैडल परम अणु है। शीतलता बिखेरते चंदामामा बेशक घटते- बढ़ते रहते हैं पर उन्होंने कभी स्वयं को ‘मैं डल हूं’ घोषित नहीं किया। वे तो हर आशिक की महबूबा और शायर की ग़ज़ल के रूप में चहकते हैं।
सारे जहां का प्रदूषण समेटकर आने वाली नदियों का स्वागत करते महासागर भी कभी ‘मैं डल हूं’ नहीं कहता। उसकी लहरो कभी आसमान को छूने के लिए मचलती हैं तो कभी समुन्द्र तट पर आपके चरण चुंबन कर बहुत सहजता से लौट जाती है। उसकी इस विनम्रता को आप चाटुकारिता नहीं कह सकते क्योंकि उसकी गंभीर गहराई में छिपे अनन्त खजाने एक नहीं,, दुनिया के तमाम मैडलों से अधिक मूल्यवान है जिन्हें वह निस्वार्थ भाव से मानवता को समर्पित करता है।
केवल सूर्य, चन्द्रा, सागर ही क्यों बर्फ से ढकी पर्वतं, तपते रेगिस्तान, चहकती चिड़ियां, किसी कंटीली झाड़ी में सीने ताने पत्तियां चुनती बकरी, परिस्थितियों से संघर्ष करते हर उस व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करते है जो हर परिस्थिति का सामने करते हुए नहीं कहता ‘हाँ मैं डल हूं’। जब तक उनका आत्मविश्वास जिंदा है केवल तभी तक मानवता जिंदा है। मानव के मानव होने का कोई अर्थ है। उनकी जिजीविषा ने ही आदि मानव को चांद सितारों से पार तक पहुंचाया है। दुनिया का हर आविष्कार उसंने ही किया है लेकिन कुछ ‘डल’’ यानि आराम परस्त लोग वायुमंडल से मन-मस्तिष्क तक प्रदूषण फैला रहे हैं। उन्हीं के पापकर्मो का फल दुनिया झेल रही है। उन्हें दूर से सलाम करते हुए अपुन तो चले अमन, समानता, इंसानियत और संपन्न दुनिया का प्राणी होने का मैडल लेने। लेकिन उस तक पहुंचने का रास्ता तो हम जाने कब का छोड़ चुके हे। सच तो यह है कि छोड़ ही नहीं भूल भी चुके हैं। क्या इरादा है आपका- ऐसा अद्वितीय मैडल ढूंढ़ा जाये या ‘मैं डल’ से ही काम चलाओंगेे?
- विनोद बब्बर संपर्क- 09458514685, 09868211911
हाँ मै डल हूं Yes, I am Dull
Reviewed by rashtra kinkar
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